वक़्फ़ क़ानून पर संसद में हुई बहस से विभोर अंग्रेज़ी के एक राष्ट्रीय अख़बार ने ख़ुशी छलकाते हुए कहा, ‘लगता है संसद के पुराने दिन लौट रहे हैं’। अब किसी ख़याल को तमाम बाधाओं-बंधनों से क्या, उसे दर-हक़ीक़त से भी क्या, वह तो आँख मूँदकर ख़ाम और ख़ुशख़याली पर फुदकने लगता है। पुराने दिनों से आशय शायद उन अच्छे संसदीय दिनों से होगा जब सदनों के बाहर-भीतर दलों में आपसदारी, मंत्रणा, विमर्श और प्रक्रियात्मक सद्भाव और तालमेल की गुंजाइश होती थी, संसदीय मंत्री की एक भूमिका होती थी और कई बार वह  परेशान मारा मारा फिरता नज़र आता था। तब अमूमन वैसी ही ज़ोरदार बहसें होती थीं जैसी पिछले हफ़्ते देखकर बेचारे अख़बार का जी भर आया। तो, जब संसद के दिन वापस पलटने वाले हैं तब तो न्यायपालिका जैसी संस्थाओं के सत्ता-पाश से उन्मोचित होने की भी कुछ ख़बर होगी ही उसके पास! बदलाव आ ही रहा है तो बदलने की उसकी अपनी क्या तैयारियाँ हैं! कुछ बेबाकियों का इंतज़ाम किया जा रहा है कि नहीं! दो टूक कहने लायक़ कलेजा तैयार हो रहा है क्या! 

हद है, यह हमारा सबसे नामवर, ताक़तवर अख़बार कहा जाता रहा जो बीते अच्छे दिनों में सरकार के ख़िलाफ़ अपनी ख़बरें बहुत हल्ला मचाते हुए छापता था, अब उतनी ही ख़ामोशी से वह तरफ़दार है। गोदी मीडिया को छोड़िये यह हमारा नामीगिरामी प्रिंट मीडिया है जिसने तब कोई सूचना ही नहीं दी थी कि ये दिन आने वाले हैं। कि, संवैधानिकता, संसदीयता, आचार-विचार-संहिता-प्रक्रिया के लुट-पिट जाने के दिन आसन्न हैं। ग्यारह सालों में एक बार भी ख़बरदार नहीं किया कि मिलने-मिलाने के दिन जाने वाले हैं, वैमनस्यता आने वाली है। कि,  मेरे प्रिय पाठको, वह दिन आने वाला है जब किसी की कोई राय नहीं रह जायेगी। धर्म ही पहचान होगी, नफ़रत ही ईमान होगा। त्योहार दहशत देंगे और दहशत दिन रात ख़ूँख़ार होती जायेगी। ये ख़तरे नब्बे सालों से संघ पाल-पोस रहा था और चालीस सालों से वे ग़दर काटे हुए हैं।

ध्वंस और ख़ूँरेज़ी के बाद भी इन्होंने कभी आगाह नहीं किया कि भयावह दिन सिर पर हैं। ये अख़बार वाले सब जानते थे, सब समझ रहे थे, लेकिन इनको लेकर जनता में जागरूकता और मुस्तैदी लाने के बजाय वे ख़ुद के अनुकूलन में लग चुके थे। बाख़बर होते हुए भी वे खोखले गुजरात मॉडल के संकीर्तन में शामिल हो गये। तब से लोक कल्याण मार्ग के महलसरा से राजा ख़तरे का घंटा बजा रहा और बजवाये जा रहा है और ये सिरमौर अख़बार उसका तूर्यनाद कर रहे हैं। वैसे, इन लगभग सरकारी इश्तहारों में ज़रूरी बहुत कुछ इफ़रात में है, सूचनाएँ, ज्ञान-विज्ञान, विवेचन, फ़िल्म, खेल, लेख व मार तमाम और चीज़ें। कुछ बिना लागलपेट वाले कॉलमकार हैं जो हिम्मत दिखा देते हैं, वरना तथाकथित साहसिक सम्पादकीय ख़ासे दिलचस्प होते हैं, इल्तिज़ा के लहज़े में नाराज़गी वाले, सरकार के लिए नसीहतों, समझाइशों से भरे हुए। लेकिन रंग-बिरंगी इस काया में वह आत्मा नदारद है जो अख़बारों में किसी उद्देश्य, प्रतिबद्धता और साहस से जन्मती है। अंग्रेज़ी-हिंदी के सभी का यही हाल है।
यह भी सच है कभी-कभार अपवाद होते रहते हैं और यह भी कि, गिनती भर ही सही, इनके नियमित अपवाद भी हैं। हैरत तो तब होती है जब ये सरकारी जवाबदेही के चक्कर में कुतर्क करने लगते हैं। बिकने वालों में हमेशा अव्वलतरीन रहा एक अंग्रेज़ी दैनिक कुम्भ में और दिल्ली स्टेशन पर हुए हादसों की आलोचना से बौखलाकर सम्पादकीय में लिख बैठा कि ऐसे तो देश में अल्माइजर आदि बीमारियों से भी बहुत लोग मर जाते हैं, उस पर लोग नहीं बोलते। ज़ाहिर है अब अख़बार  लोगों को बताना और जगाना छोड़ चुके हैं।
अभी जिस अख़बार के इलहाम से बात शुरू हुई उसका पुराना रिकॉर्ड भी कभी असंदिग्ध नहीं रहा और इधर एक दशक का रिकॉर्ड तो गोया अपनी मिसाल आप वाला है। अपनी समझ से वह अब भी क्रांतिकारी पत्रकारिता कर रहा है जो कि वह तब भी नहीं कर रहा था और अब तो जो कर रहा है वह बेदम पत्रकारिता है, जबकि ज़रूरत आज उत्कट जनपक्षीय पत्रकारिता की है। चुनाव के दिनों में हैरत होती है कि इन्हें कोई अंदाज़ा है कि नहीं कि मोदी पार्टी की वे कितनी फ़ोटो, ख़बरें हर दिन छाप रहे हैं। यह अख़बार और इसका परिसर भारतीय राजनीति का एक शिविर रहा है। फिर भी एक समय था कि इसी अख़बार में आमतौर पर चुनावी भाषण लीड नहीं बना करते थे। अपनी राजनीति से परे ख़बरों के पन्नों पर बराबरी का सिद्धांत मान्य था। 

अभी वक़्फ़ पर बहस के एक दिन बाद एक ख़बर तैयार करके पहले पेज पर छापी गयी कि, ‘न राहुल वक़्फ़ पर बोले, न प्रियंका संसद में थीं’। अब ज़रूरी नहीं है कि हर मुद्दे पर राहुल बोलें। दोनों सदनों में काँग्रेस की ओर से असरदार भाषण हुए, खड़गे, गौरव गोगोई, अभिषेक मनु सिंघवी, इमरान प्रतापगढ़ी आदि के।

कांग्रेस ने प्रस्तावित क़ानून के विरुद्ध मतदान किया। ख़बर में ही बताया गया कि प्रियंका गाँधी पार्टी और लोकसभा अध्यक्ष को सूचित कर चुकी थीं कि वे कैंसर के गम्भीर शिकार एक रिश्तेदार को देखने अमेरिका जा रही हैं इसलिए संसद की बैठक से अनुपस्थित रहेंगी। इस स्पष्टीकरण के बाद शायद ही यह ख़बर पेज एक लायक़ बची रह गयी थी। नरेंद्र मोदी ने वक़्फ़ क़ानून के पारित होने को युगांतकारी घटना बताया पर इस महान घटना के घटित होते समय वे विदेश में थे। न मोदीजी ने इस अवसर पर देश और संसद में होने को मुनासिब समझा और न उनके न होने को शिरोमणि अख़बार ने ख़बर बनाना ज़रूरी जाना, अलबत्ता प्रधानमंत्री के युगांतकारी वाले बयान को अंदर प्रमुखता से छापा गया। 
इस अख़बार समूह के हिंदी दैनिक में मैंने बरसों काम किया है इसलिए कई ख़बरों का बनना देखता रहा। एक विचित्र ही प्रसंग याद आ रहा है। राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा शायद राजघाट की प्रार्थना सभा में खड़े होते हुए गिर गए। शुरुआती एडिशन में एक फ़ोटो के साथ ख़बर गयी। मुख्य संस्करण में तस्वीरों की उठते, खड़े होते, गिरते और फिर सहारे से उठते की सीक्वेंस मिली इस हिदायत के साथ कि उन्हें सबसे ऊपर इसी सिलसिले के साथ छापनी है, उसके नीचे ख़बर रहेगी। हिंदी, अंग्रेज़ी दोनों ने यही किया। अन्य अख़बारों में भी यह ख़बर प्रमुखता से थी, पर इस तरह नहीं। एडिशन छोड़ने के बाद अँग्रेज़ी के डीएनई से मैंने कहा कि ख़बर से यह बर्ताव मुझे जमा नहीं। एक तो वे राष्ट्रपति हैं, पचहत्तर पार हैं और गठिया के मरीज़ भी हैं। उस साथी का भी यही सोचना था। एक दिन बाद ‘पायोनियर’ ने , जिसके तब सम्पादक विनोद मेहता थे, पहले पेज पर बॉटम स्प्रेड में इस तरह के प्रस्तुतिकरण पर बड़े सम्पादकों-पत्रकारों की प्रतिक्रियाएँ दीं। सभी ने इसे अनुचित माना और कुछ ने तो अमानवीय कहा। अब तो ख़बरों की अमानवीयता हद पार कर चुकी है। ये अख़बार, हमारे कभी के पूर्व प्रेमी, जन-विरोधी प्रपंच में आकंठ डूबे हुए हैं।

हैरत है कि यह अख़बार कैसे, ग्यारह सालों के अख़बारों के पार, संसद के लौटते अच्छे दिनों के क़यास पर पहुँच गया। उन पर नज़र दौड़ाई होती तो चाह कर भी यह कहने की ग़लती न करता। उन अख़बारों की सुर्ख़ियों में यंत्रणा ही यंत्रणा है। उनमें घृणा है, कट्टरता है, धर्मोन्माद है। दंगे, गालियाँ, संसदीय अनाचार, सामाजिक अत्याचार, आर्थिकी में ‘संगठित लूट और वैधानिक डकैती’ दर्ज़ है। राज्यों की सरकारों के लिए ख़रीद फ़रोख़्त, महामारी का हाहाकार और लिंचिंग है, बेरोज़गारी, उत्पीड़न है, राजनीतिक प्रतिहिंसा है, ईडी, आयकर, सीबीआई, जेल है, काले क़ानून हैं, सेंसर है, सूचनाओं पर जाम है, पंगु कर दी गयी संस्थाएँ हैं, झूठ, पाखंड, अहमन्यता, लालच और प्रताड़ना है। 
यह अख़बार अपने ही पन्ने पलटता तो पाता कि जिस तरह अनुच्छेद 370 और कृषि क़ानून पारित किये गए उस पर उसी के एक कॉलमकार ने लिखा था,’ संसद को नोटिस बोर्ड बना दिया गया है’। और पच्चीस-तीस साल पुराने अख़बारों में उसे मलबा ही मलबा मिलता और सुर्ख़ियाँ रक्तरंजित मिलतीं। इतने सालों और इतनी वारदातों को किसी हिसाब में नहीं लिया और पुलकित हो बैठे! बहस निस्संदेह बेहतरीन थी लेकिन एक क्षण को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि सोनिया गाँधी सच बोल रही थीं कि यह बिल बुल्डोज्ड करके पास हुआ है। जेपीसी में क्या हुआ था और इस साम्प्रदायिकता प्रेरित शातिर बिल को पारित करवाने के लिए कौन सा धत्करम नहीं किया गया। यह भी सच कहा गया कि संसद को मोदी का दरबार बना दिया गया है। वक़्फ़ बहस का मुआयना करते हुए अंदर पेज की एक ख़बर के शीर्षक में था कि, सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच खाई गहराई। यकीनन गहराई है। सदन में वे सारे साम्प्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय, भाषाई और वैचारिक विभाजन दिखते हैं जो समाज में भयावह रूप से कर दिये गए हैं, विशेषकर साम्प्रदायिक। यह सरकार और उसका प्रेरक विचार यही कर रहे हैं और वक़्फ़ क़ानून भी उसी मंशा का परिणाम है। संसद के भीतर के विभाजनों को स्वार्थी राजनीति मिटाती रहती है जैसा कि वक़्फ़ बिल के दौरान उजागर था।

इस बात में ज़्यादा दम मुझे नहीं लगा कि 240 पर उतर आने पर मोदी सरकार तेवरों में भी उतार पर है। थोड़ा बहुत शुरुआती झटका खाकर वह मुस्तैद हो गयी और पूरी ताक़त से अपनी पर आमादा है। अपने मंसूबों को लेकर वह नि:शंक है। चार जून के बाद विपक्ष ही लड़ता, बिखरता रहा है, सरकार और पार्टी तो चैतन्य हो फिर एजेंडे पर एकाग्र हो गई। इस बिल के विरोध ने उन्हें फिर आपस में बाँधा, यह उत्साहजनक है। यह विरोध और यह एकजुटता क़ायम रहनी चाहिए। ऐसा न हो कि अंततः यह अपने क्षेत्र, प्रदेश के मुसलमानों के संबोधन और समर्थन के दिखावे में सिमट जाये। यह विरोध और समर्थन एक स्वर में अखिल भारतीय होना और दिखना चाहिए। सरकार और अख़बार के झाँसे में मत आइये… चले चलो वह मंज़िल अभी नहीं आई।