संयोग से अमेरिका की स्वतंत्रता की आज 250वीं जयंती है। इस समय का अहम सवाल है: क्या डोनाल्ड ट्रंप के दौर में अमेरिका अपनी आज़ादी के आधारभूत मूल्यों को सुरक्षित रख सकेगा? जब नागरिक की अभिव्यक्ति और विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता घुटने लगी हों, तब 19 अप्रैल 1775 को अंग्रेजों से आज़ादी के लिए बॉस्टन टी पार्टी से बजा ’आजादी का बिगुल’ का याद आना स्वाभाविक है। क्या अमेरिकी जनता अपनी आज़ादी को सुरक्षित रख सकेगी?अमेरिकी वासियों के लिए अमेरिका में सुनाई दे रही ताज़ा आवाज़ें भयावह आशंकाओं वाली लग रही हैं। आम नागरिकों के दिमागों और मीडिया में आवाज़ें उठ रही हैं : ’हम संकट में हैं’, ‘ भूमंडलीकरण ध्वस्त है, और अमेरिका तबाही के लिए तैयार हो’, ’ट्रम्प कब तक मोहक सपने दिखाएंगे’, ‘ राष्ट्रपति की मलिन -अविवेकपूर्ण नीतियां कैसा आर्थिक गुल खिलाएंगी?’, ‘ क्या अमेरिका पुलिस राज्य बनने लगा है?’, ‘मौज़ूदा जंग विगत की सभी जंगों से भिन्न है,’ ‘अमेरिका -चीन टैरिफ जंग निर्णायक होगी’, ’ट्रम्प ने चीन के आर्थिक झटकों से सबक़ नहीं सीखा’, ‘दोनों देशों की जनता की अग्नि परीक्षा’, ‘ टैरिफ से ज़िंदगी बदलेगी और ख़रीदारी प्रभावित होगी’, ‘विश्वविद्यालय व शोध संस्थान चौपट हो रहे हैं’, ’अमेरिका एलन मस्क की चंचल कार्यशैली व सफलता से गलत सबक़ ले रहा है’, ‘ट्रम्प का सामना करना सीखें’ जैसी बातों ने सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया और निजी चर्चाओं को दबोच रखा है। 

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राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की पहली पारी (2016 -20) कम विवादास्पद नहीं थी। विश्व प्रसिद्ध दैनिक वाशिंगटन पोस्ट ने ट्रम्प -उवाच पर ख़ासी निगरानी रखी थी। दैनिक के गणित में राष्ट्रपति ट्रम्प ने चार साल के दौरान 30 हज़ार 673 झूठ और असत्य दावे किये थे। इसी तरह टोरंटो स्टार और दूसरे फैक्ट्स -चेकरों ने भी ट्रम्प असत्य उवाचों की जन्मपत्री जारी की थी। दिलचस्प या हैरतअंगेज़ तो यह है कि ट्रम्प ने अपनी उवाच शैली को ताज़ा पारी में भी बनाये रखा है। प्रसिद्ध चैनल सीएनएन और अन्य मीडिया के अनुसार आज भी उनका डींग हांकना जारी है। इस वर्ष भी अपने भाषणों में 20 दफ़े उन्होंने ज़म कर हांकागीरी की थी। अब भी टैरिफ़, महंगाई, शोध संस्थाओं, विधि संस्थाओं, अवैध प्रवासियों के निष्कासन, चीन के साथ जंग आदि के संबंध में ट्रम्प साहब का अनाप -शनाप बोलना थमा नहीं है। बेशक़, भक्तगण उनके उवाचों पर फ़िदा हैं। शिक्षित वर्ग ज़रूर तिड़क रहा है, लेकिन उनके उवाचों का ज़ादू कम-अधिक बरकरार है। इसका अंदाज़ा भारत में उद्घाटनी व चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाषण शैली के शब्दजाल से लगाया जा सकता है।

ट्रम्प की गतिविधियों के प्रति अमेरिकी मीडिया अब भी सचेत है। मिसाल है ‘दी न्यूयॉर्क टाइम्स’ का साप्ताहिक स्तम्भ : दी वीक इन ट्रम्प’। इस स्तम्भ में ट्रम्प और उपराष्ट्रपति जे. डी. वेन्स के साप्ताहिक कार्यकलापों का लेखाजोखा प्रकाशित किया जाता है। बतलाया जाता है कि ट्रम्प मण्डली ने कितना हांका, विश्वविद्यालयों और लीगल फर्मों के साथ कितना पंगा लिया, पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन के फ़ैसलों को कितना उल्टा, पूर्व उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के पति की फर्म के साथ क्या किया आदि-आदि। इसके साथ ही एक सप्ताह में पूर्व डेमोक्रेट शासकों के साथ प्रतिशोध के कितने कारनामे घटे, एक सप्ताह में ट्रम्प समर्थक वकीलों-अधिकारियों -नेताओं में कितने लाभार्थी बने, प्रशासनिक ग़लती की वज़ह से कितने वैध आप्रवासियों को भी निष्कासित किया गया, आपराधिक पृष्ठभूमि के बावज़ूद ट्रम्प समर्थक व्यक्तियों को गन -अधिकारों की बहाली की गई (इसी सप्ताह अमेरिका में दो गन -शूटिंग की हिंसात्मक घटनाएं घट चुकी हैं। कहा जा रहा है कि ट्रम्प शासन ने पूर्व शासन द्वारा की गई गन- अधिकारों में कटौती को फिर से बहाल कर दिया है। यदि इस दिशा में कठोर क़दम नहीं उठाये गए तो हिंसक घटनाएँ बढ़ सकती हैं।) 

यह भी पाठकों को बतलाया गया कि किस तरह से नैवेल अकादमी पुस्तकालय से अप्रिय 350 -400 पुस्तकों को हटाया गया, कृषि शिक्षा विभाग की वित्तीय सहायता बंद की, किस प्रकार से ग्रीनलैंड में अमेरिकी सैनिक अड्डे की कमांडर को हटाया गया क्योंकि वे  उपराष्ट्रपति के दौरे से दूर रही थीं, दो सरकारी अधिकारीयों (क्रेब व टेलर) को इसलिए दण्डित किया गया क्योंकि उन्होंने ट्रम्प के प्रथम काल में उनकी चुनावी झूठों का विरोध किया था। ट्रम्प शासन किस प्रकार जन कल्याण के कामों को भी आघात पहुँचा रहे हैं, यह भी बताने से मीडिया पीछे नहीं रहता है। मसलन, ट्रम्प द्वारा विश्व खाद्य कार्यक्रम की सहायता को ख़त्म करना, क्रिप्टो मुद्रा अपराध जांच को बंद करना, ग्रीन हॉउस से जुड़े कार्यक्रमों को रोकना, एक सरकारी फर्म के 100 कर्मचारियों की बरखास्तगी, ट्रम्प की तीसरी पारी के लिए माहौल बनवाना (अमेरिका में एक व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति बन सकता है।) आदि इत्यादि।

इसके समानांतर, क्या भारत में स्वयंभू राष्ट्रीय मीडिया मोदी+शाह सत्ता निज़ाम के कारनामो को प्रकाशित -प्रसारित करके जनता को जागरूक कर रहा है? नहीं कर रहा है। मोदी जी कितना क्या-क्या हाँकते हैं, क्या इसका लेखा-जोखा राष्ट्रीय अख़बारों और चैनलों के पास है?

यदि भारत में सोशल मीडिया न रहता तो क्या जनता को सीएजी रिपोर्ट में उजागर सरकार के गलत-सलत कारनामों का पता चलता? कोर्पोरेटपतियों का कितना कर्ज़ा माफ़ किया गया, बैंकों के कितने लाख करोड़ रुपयों को बट्टे खाते डाला गया, सफेदपोश भगोड़े डकैत कहाँ छिपे हैं और कितने हज़ार करोड़ रुपया लेकर भागे हैं, पता होता? जब मोदी जी वक़्फ़ बोर्ड क़ानून के सिलसिले में मुस्लिम युवकों द्वारा पंचर लगाने की बात करते हैं, तब मीडिया उन्हें यह याद दिलाना भूल जाता है कि रेलवे प्लेटफार्म से उठा अखबार बेचनेवाला मुस्लिम बालक  देश का राष्ट्रपति (डॉ. अब्दुल कलाम) भी बन जाता है। इसके विपरीत, चैनल देश भर के बड़े नगरों का सर्वे करते हैं और पंचर लगानेवाले मुस्लिम युवकों को बड़ी बेशर्मी के साथ दिखलाते हैं। क्या हिन्दू बालक श्रमिक नहीं हैं? क्या वे घरों -होटलों में काम नहीं कर रहे हैं? किस समुदाय से अधिकांश भिखारी हैं? क्या मीडिया भूल जाता है कि देश में बाल श्रम विरोधी कानून क्यों बना? बंधक श्रमिक विरोधी कानून क्यों है? क्यों कैलाश सत्यार्थी द्वारा बचपन बचाओ आंदोलन चलाया जा रहा है? क्या गटरों को साफ़ करने की विषैली गैस से हिन्दू युवक नहीं करते हैं? गटर की गैस से पकौड़े तले जा सकते हैं, मोदी जी ने यह जुमला किसके लिए उछाला था? तुलनात्मक दृष्टि से भारत की तथाकथित मुख्यधारा का परम्परागत मीडिया मोदी+शाह सत्ता के समक्ष शरणागत है। लेकिन, अमेरिकी मीडिया में ट्रम्प शासन और कार्यशैली पर विवेचनात्मक सामग्री का अभाव खलता नहीं है।


समाज और मीडिया में उभरती प्रवृत्तियों के मद्देनज़र इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश में ‘सहमा सहमा माहौल’ बनने लगा है; लोगबाग बेबाक़ होकर बातचीत और दो -टूक टिप्पणियां करने से कतराने लगे हैं; ट्रम्प समर्थक और विरोधी की विभाजक लकीरें साफ़ साफ़ दिखाई देने लगी हैं। यह ज़रूर है कि लोगों को ट्रम्प शासन द्वारा शिक्षण संस्थाओं को हड़काने की हरक़त पसंद नहीं आ रही है। ख़ुशी इस बात से है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय और कुछ अन्य प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों ने ट्रम्प के सामने नतमस्तक होने से कतई इंकार कर दिया है। ट्रम्प ने धमकी दे रखी है यदि शिक्षण संस्थान नहीं झुकते हैं तो उनको दे जा रही अरबों डॉलर की सहायता को बंद कर दिया जायेगा। ट्रम्प ने शिक्षण संस्थानों से माफ़ी मांगने के लिए भी कहा है। लेकिन, अभी तक राष्ट्रपति को निराशा ही हाथ लगी है।

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ट्रम्प की नीतियों के विरोध में स्तम्भ और टिप्पणियां भी छपने लगी हैं। खुल कर लिखा जा रहा है कि अमेरिका में ‘पुलिस राज्य आ चुका है।’ विद्यार्थियों को तंग किया जा रहा है। मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां हो रही हैं। हवाई अड्डों पर अपमानित ढंग से तलाशियाँ ली जा रही हैं। यह भी बताया जा रहा है कि लोगों पर गुप्त ढंग से निगरानी रखने के लिए निजी निगरानी एजेंसियों को काम सौंपा गया है। विवश्वविद्यालय परिसरों में इजराइल व यहूदी विरोधी युवकों पर निशेष निगरानी रखी जाती है और गुप्त लिस्ट तैयार की जाती है। टिप्पणीकारों को मजबूरी के साथ लिखना पड़ रहा है: अमेरिका गोपनीय पुलिस राज्य बन चुका है। इसके साथ साथ ऐसी टिप्पणियां भी सामने आ रही हैं कि गोपनीय पुलिस राज्य के बावजूद विश्वविद्यालय और दूसरी संस्थाएं अपना प्रतिरोध जारी रखें, ट्रम्प शासन के सामने आत्मसमपर्पण मत करें। यह भी सही है कि उन्हें अपने प्रतिरोध का मूल्य चुकाना पड़ेगा। इसके लिए वे तैयार हो जाएँ और प्रतिरोध के लिए दूसरों को भी तैयार करें। न्यूयॉर्क टाइम्स के सम्पादकीय विभाग का मत है कि ट्रम्प इस ग़लतफ़हमी में हैं कि संस्थान शक्तिहीन हैं। उन्हें दबाया जा सकता है। इसलिए ट्रम्प को सैद्धांतिक ज़वाब देना होगा। अमेरिका के वर्तमान माहौल को देखते हुए बीती सदी के पांचवें दशक का ‘मैकार्थीवाद’ का याद हो आना स्वाभाविक लगता है। उस दौरान चुन चुन कर बुद्धिजीवियों को आतंकित किया गया, गिफ्तारियाँ हुईं और अमेरिका छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा था। 


पर, जब भारत में जवाहरलाल नेहरू, दिल्ली विश्वविद्यालय, अशोक यूनिवर्सिटी और अन्य संस्थानों पर नज़र जाती है तब निराशा होती है। किस तरह से डॉ. प्रतापभानु मेहता जैसे बुद्धिजीवियों का हाशियाकरण किया गया है, यह एक दुखद गाथा है। ताज़ा उदाहरण यह भी है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद को अमेरिका में व्याख्यान देने से रोका जा रहा है। भारत के प्रतिष्ठित व प्रमुख संस्थानों से अपेक्षा थी कि वे मोदी+शाह सत्ता प्रतिष्ठान के सामने झुकेंगे नहीं। ताज़्ज़ुब है, परिसरों में रीढ़विहीनता ही चमक रही है। विद्यार्थियों को ग़ज़ा, वक़्फ़ कानून जैसे मुद्दों पर चर्चा करने से रोका जा रहा है। 1975 की घोषित इमरजेंसी की तुलना में मोदी+शाह की अघोषित इमरजेंसी अधिक बदतर साबित हो रही है। दोनों देशों में चरम लम्पट दक्षिणपंथ की लूऐं चल रही हैं।

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अमेरिका में सबसे अधिक शोर व चिंता है चीन के साथ टैरिफ़ जंग की। अमेरिका-चीन टैरिफ़ जंग में निर्णायक रूप से कौन जीतेगा, यह एक मिलियन डॉलर का सवाल है। अमेरिकी मीडिया और लोग विश्वास के साथ यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि इस जंग में चीन राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सामने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प लम्बे समय तक टिक सकेंगे, अमेरिका की अंतिम विजय होगी। इसका मुख्य कारण यह है कि अमेरिका को भय है कि कहीं चीन अपने दुर्लभ खनिज पदार्थों की सप्लाई बंद न कर दे! अमेरिकी रक्षा व परमाणु क्षेत्र के लिए बेहद संवेदनशील खनिज पदार्थ हैं। अमेरिका की इस कमज़ोर नस को चीन जानता है। इसके साथ ही चीन के पास अमेरिका के 761 बिलियन डॉलर के सरकारी बॉण्ड भी हैं। वह इसकी सौदेबाज़ी कर सकता है। ट्रम्प शासन के सामने समस्या खड़ी हो सकती है। विश्व बाजार में डॉलर कमज़ोर हो सकता है। लेकिन, प्रमुख आशंका यह है कि ट्रम्प द्वारा प्रायोजित जंग का सामना करने के लिए चीन अपनी जनता से अपनी सुख-सुविधा त्याग करने के लिए कह सकता है। चीन की कम्युनिस्ट सरकार अपनी जनता के सामने अमेरिका के साथ टैरिफ की लड़ाई को एक ‘ राष्ट्रीय युद्ध’ के रूप में चित्रित सकती है। चीन आज भी एक अनुशासित राष्ट्र है। विचारधारा को पुनर्जीवित कर चीनी नेतृत्व अपनी जनता से सभी प्रकार का त्याग करने का आह्वान कर सकता है। अमेरिका एक चरम उपभोगवादी राष्ट्र है। जनता सभी प्रकार की सुख-सुविधा की आदि हो चुकी है। उसके सामने चीन की विचारधारा- प्रायोजित चुनौती का सामना करने की क्षमता होगी, इसमें संदेह है। चीनी जनता को अनुकूलित करने में राष्ट्रपति शी सिद्धहस्त हैं। यह हुनर ट्रम्प मंडली के पास नहीं है। वैसे भी ट्रम्प की विवादास्पद छवि है और उनमें चीन के साथ लम्बे संघर्ष का सामर्थ्य व रणनीति है, ऐसा माननेवाले कम हैं। अलबत्ता, अमेरिका की कोशिश ‘एक ध्रुवीय शक्ति तंत्र’ को अक्षुण रखने की रहेगी। वह इसके लिए किसी भी हद तक जा सकता है, ट्रम्प में ऐसी आस्था रखनेवालों की भी कमी नहीं है।