बिहार में एनडीए की 202 सीटों वाली भारी जीत ने भाजपा के आत्मविश्वास को बढ़ा दिया है। संसद से लेकर तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और असम के आगामी चुनावों पर इसका असर पड़ेगा। लेकिन एनडीए ने बिहार में जो वादे किए हैं, वो भी कसौटी पर होंगे।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की बिहार में भारी जीत का असर दूसरे राज्यों के चुनाव में बहुत आगे तक जाएगा। इसकी तुलना 2010 की जीत से की जा रही है। बिहार की एनडीए जीत ने एक बार फिर कैश ट्रांसफर और महिला-केंद्रित योजनाओं की प्रासंगिकता और महत्व को बताया है।
इसने कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के दलों में सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या कांग्रेस नेतृत्व करने और जीतने में सक्षम है। वोट चोरी के आरोप अब हल्के पड़ जाएंगे। महाराष्ट्र, हरियाणा और मध्य प्रदेश के नतीजों के बाद यह जीत भाजपा और एनडीए की उस क्षमता को दर्शाती है कि वे भारी असंतोष के बावजूद चुनाव जीत सकते हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि इसका असर संसद के कामकाज पर पड़ेगा और राज्यसभा में एनडीए और मज़बूत होगा। जब कोई गठबंधन 243 सदस्यीय विधानसभा में 200 से ज्यादा सीटें जीतता है (एनडीए ने वास्तव में 202 सीटें जीतीं), तो इसका मतलब है कि उसके लिए सब कुछ सही रहा, जबकि विपक्ष के लिए सब कुछ गलत हो गया। तमाम आरोप इस जीत को लेकर लग रहे हैं, लेकिन जीत घोषित होने और सत्ता संभालने के बाद उनका कोई महत्व नहीं रह जाएगा। सारी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक हैं। जनता कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रही है और न दिखा रही है।
बिहार चुनावों का पहला असर संसद के शीतकालीन सत्र में दिखेगा, जो 1 दिसंबर से शुरू हो रहा है। भाजपा को उम्मीद है कि वह विधायी कामकाज में ज्यादा आत्मविश्वास दिखाएगी। जबकि विपक्ष और बंटा हुआ नजर आएगा। मंगलवार को भाजपा सांसदों की बैठकें, जो 2024 चुनावों के बाद कम हो गई थीं और अब एनडीए की हो रही हैं, शायद फिर से पुराने प्रारूप में लौटेंगी, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सहयोगियों को खुलकर सलाह देते हैं।
भाजपा नेताओें ने कहना शुरू कर दिया है- “बिहार की बड़ी उपलब्धि महाराष्ट्र, हरियाणा और मध्य प्रदेश के जनादेश से भी बड़ी है। यह पूरी तरह हमारी अपनी जीत है; बिहार में आरएसएस की कोई मौजूदगी नहीं है।” वो कह रहे हैं कि इससे हर भाजपा कार्यकर्ता का आत्मविश्वास बढ़ा है और कांग्रेस कार्यकर्ता निराश महसूस कर रहा है। तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे दल कांग्रेस की लाइन के बजाय स्वतंत्र रास्ता अपना सकते हैं।
एक कांग्रेस पदाधिकारी ने कहा- “अगले कुछ चुनाव हमारे लिए करो या मरो वाले हैं। इस हार की जिम्मेदार लोगों की पहचान और कार्रवाई होना चाहिए। वरना गठबंधन ढह जाएगा।” बिहार में खराब प्रदर्शन का मतलब है कि कांग्रेस को अगले साल तमिलनाडु चुनाव में सहयोगी डीएमके की शर्तें माननी पड़ सकती हैं। पश्चिम बंगाल में 2021 के दोहराव के लिए तैयार रहना होगा यानी टीएमसी से कोई गठबंधन नहीं और असम अभियान में कमजोर स्थिति का सामना करना पड़ेगा।
कैश ट्रांसफर करो, चुनाव जीतोः आगामी चुनावों में कैश ट्रांसफर योजनाओं का जोर बढ़ेगा। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में सत्ताधारी दलों को लेकर भारी असंतोष था, लेकिन उन्होंने महिलाओं को कैश ट्रांसफर की घोषणा कर इस असंतोष से पार पा लिया। अब साफ है कि जीतने के लिए कैश लाभ का वादा जरूरी है। इस चुनाव ने एक आसान रास्ता दिखा दिया है।
चुनाव मैनेजरों के लिए बिहार मॉडल की नकल करने का मतलब अपनी चुनावी मुहिम में एक स्मार्ट कैश ट्रांसफर योजना को शामिल करना होगा। कर्नाटक का उदाहरण देखिए, जहां 2023 में विपक्ष ने मुश्किल जीत हासिल की थी। कांग्रेस ने महिलाओं को प्रति माह ₹2000 और मुफ्त बस यात्रा से भाजपा को हराया। पिछले साल झारखंड में हेमंत सोरेन सरकार ने महिलाओं को ₹1,000 मासिक ट्रांसफर का वादा कर सत्ता बरकरार रखी।
बीजेपी की रणनीति को शायद सबसे अच्छी तरह बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समझती हैं। तृणमूल कांग्रेस की संस्थापक 2026 में चौथी बार सत्ता के लिए तैयारी कर रही हैं और पिछले कुछ महीनों से बिहार में भाजपा और चुनाव आयोग की हरकतों का सक्रिय जवाब दे रही हैं। बिहार के विपक्ष के उलट, बनर्जी 2021 की जीत के बाद से 2026 चुनाव की तैयारी कर रही हैं। चुनावी सलाह देने वाला आई-पैक लगातार सरकार को सलाह दे रहा है।