तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने शुक्रवार को साफ़ कर दिया कि राज्यपालों द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने के लिए संविधान में समय-सीमा तय होने तक वे चैन से नहीं बैठेंगे। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गुरुवार को प्रेसिडेंशिलय रेफ़रेंस पर दी गई सलाह के एक दिन बाद स्टालिन ने कहा, 'राज्यों के अधिकारों और सच्चे संघवाद की लड़ाई जारी रहेगी।'

स्टालिन ने सोशल मीडिया पर जारी लंबे बयान में कहा कि सुप्रीम कोर्ट का कल का मत 8 अप्रैल 2025 के उस ऐतिहासिक फ़ैसले पर कोई असर नहीं डालेगा, जो तमिलनाडु सरकार बनाम तमिलनाडु राज्यपाल मामले में आया था। उन्होंने दावा किया कि सुप्रीम कोर्ट ने फिर से दोहराया है कि-
  • राज्य में दो कार्यपालिका सत्ता केंद्र नहीं हो सकते और चुनी हुई सरकार ही ड्राइवर की सीट पर रहेगी।
  • राज्यपाल के पास विधेयक को ख़त्म करने या पॉकेट वीटो करने का कोई चौथा विकल्प नहीं है।
  • राज्यपाल विधेयक को अनिश्चित काल तक लटकाकर नहीं रख सकते।
स्टालिन ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, 'अगर राज्यपाल लंबे समय तक बिना वजह बिल पर कार्रवाई नहीं करते, तो राज्य सरकारें संवैधानिक अदालतों में जा सकती हैं और राज्यपालों को उनकी जानबूझकर की गई निष्क्रियता के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है।' उन्होंने कहा कि राज्यपाल अब आर्टिकल 361 (राष्ट्रपति-राज्यपाल को मिली व्यक्तिगत छूट) के पीछे छिपकर विधेयकों को 'दफन” नहीं कर सकते।

'पॉकेट वीटो थ्योरी खारिज'

स्टालिन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु राज्यपाल आर.एन. रवि की दो थ्योरियों को पूरी तरह खारिज कर दिया है-
  • विधेयकों को चुपचाप मार देने यानी पॉकेट वीटो का अधिकार।
  • राजभवन में विधेयकों को हमेशा के लिए दबाकर रखने का दावा।
मुख्यमंत्री ने 1974 के अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज मामले (9-जज बेंच) का हवाला देते हुए याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट का सलाहकारी विचार 'कानून अधिकारियों की राय से ज्यादा प्रभाव नहीं रखता।' उन्होंने कहा, 'तमिलनाडु की कानूनी लड़ाई ने पूरे देश में उन राज्यपालों को मजबूर कर दिया है जो चुनी हुई सरकारों से टकराव की राह पर हैं। अब वे विधेयकों को लटकाकर जनता की इच्छा का अपमान नहीं कर सकते।'
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'कोई संवैधानिक पद संविधान से ऊपर नहीं'

स्टालिन ने कड़ा संदेश दिया, 'कोई भी संवैधानिक पदधारी यह दावा नहीं कर सकता कि वह संविधान से ऊपर है। जब कोई ऊंचा संवैधानिक पदधारी भी संविधान का उल्लंघन करे तो संवैधानिक अदालतें ही एकमात्र रास्ता हैं। अदालत के दरवाजे बंद करना लोकतंत्र में कानून के शासन को कमजोर करना होगा और राजनीतिक मंशा से काम करने वाले राज्यपालों को खुली छूट देगा।'

उन्होंने कहा, 'तमिलनाडु की जनता द्वारा चुनी गई विधानसभा के विधेयकों को तब तक पूरी तरह लागू करवाएँगे, जब तक संविधान में संशोधन कर राज्यपालों के लिए विधेयकों पर कार्रवाई की सख्त समय-सीमा तय नहीं कर दी जाती।'
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तमिलनाडु ने खोली थी नई राह

8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा था कि-
  • राज्यपाल विधेयक को न तो अनिश्चित काल तक रोक सकते हैं और न ही बिना राष्ट्रपति को भेजे ख़त्म कर सकते हैं।
  • अगर राज्यपाल विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो भी उसे 'डीम्ड असेंट' (स्वतः मंजूर) मानकर लागू करना होगा अगर राष्ट्रपति भी लंबे समय तक चुप रहते हैं। 
  • राज्यपालों की इस तरह की निष्क्रियता को अदालतें जांच सकती हैं।
इस फैसले के बाद तमिलनाडु के राज्यपाल ने 10 पुराने विधेयकों को एक साथ राष्ट्रपति को भेज दिया था, जिनमें से कई पर राष्ट्रपति ने भी महीनों तक कोई कार्रवाई नहीं की। तमिलनाडु ने फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसके बाद राष्ट्रपति ने भी कई विधेयकों को मंजूरी दे दी।
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अब आगे क्या?

स्टालिन ने साफ कर दिया है कि उनकी लड़ाई अब सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं रहेगी। वे संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में संशोधन की मांग रहे हैं, जिसमें राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर फैसला करने की अधिकतम 30-60 दिन की समय-सीमा तय की जाए। डीएमके संसद में और बाहर इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाने वाली है। पश्चिम बंगाल, केरल, पंजाब और झारखंड जैसे गैर-बीजेपी शासित राज्यों में भी राज्यपालों और सरकारों के बीच टकराव चरम पर है।

तमिलनाडु की इस लड़ाई ने पूरे देश में संघीय ढांचे को बचाने का नया आंदोलन शुरू कर दिया है। स्टालिन का संकल्प है कि 'जनता की चुनी हुई विधानसभाओं की आवाज को राजभवन दबा नहीं सकता। यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक संविधान में साफ़ समय-सीमा नहीं लिख दी जाती।'