उत्तर प्रदेश सरकार ने आधार कार्ड को जन्म प्रमाणपत्र या जन्म तिथि के प्रमाण के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया है। योजना विभाग के विशेष सचिव अमित बंसल ने सभी विभागों को निर्देश जारी कर कहा है कि आधार कार्ड के साथ कोई जन्म प्रमाणपत्र संलग्न नहीं होता, इसलिए इसे जन्म प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता। यह फैसला राज्य की करोड़ों जनता, खासकर गरीब और वंचित वर्गों के लिए एक बड़ा झटका साबित हो सकता है, जहां आधार ही एकमात्र पहचान दस्तावेज है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह नीतिगत उलटफेर सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और केंद्र सरकार की पिछली राय से मेल खाता है? आधार जो कभी सरकारी योजनाओं की 'शर्त' था, अब  'बाधा' बन गया है। उसके महत्व को अदालत से लेकर सरकार तक ने घटा दिया है।

एसआईआर के दौरान यह फैसला यूपी ने क्यों लिया

यूपी सरकार के आधार वाले फैसले पर इसलिए ध्यान गया है क्योंकि राज्य में एसआईआर प्रक्रिया जारी है। अगले चरण में जिन लोगों के नाम मतदाता सूची से हटेंगे, उनसे प्रमाण मांगा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट बिहार एआईआर के दौरान चुनाव आयोग से कह चुका है कि वो आधार को 12वें प्रमाणपत्र दस्तावेज के रूप में स्वीकार करे। लेकिन यहां अब तकनीकी सवाल आ गया है। एसआईआर में जन्म तिथि सबसे महत्वपूर्ण नुक्ता है। इसका मतलब ये हुआ कि यूपी में एसआईआर के अगले चरण में जो जन्मतिथि के प्रमाण के तौरा पर आधार जमा कराएगा, वो फॉर्म माना ही जाएगा, क्योंकि यूपी में आधार अब जन्म तिथि का प्रमाण नहीं रहा। यह महत्वपूर्ण तकनीकी सवाल है, जिसकी आंच यूपी में अगले चरण के एसआईआर में महसूस की जाएगी।

किस वर्ग पर ज्यादा असर पड़ेगा

उत्तर प्रदेश में आधार कार्ड धारकों की संख्या करीब 24.05 करोड़ है जो कुल आबादी का 93.58 प्रतिशत है। इनमें से अधिकांश गरीब, मजदूर, ग्रामीण और प्रवासी हैं, जिनके पास जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट या शैक्षिक प्रमाणपत्र जैसे वैकल्पिक दस्तावेज नहीं हैं। योजना विभाग के इस आदेश से अब सरकारी योजनाओं, स्कूल प्रवेश, नौकरी, पेंशन और यहां तक कि विवाह पंजीकरण जैसी प्रक्रियाओं में जन्म तिथि साबित करने के लिए आधार अमान्य हो जाएगा। विशेषज्ञों का मानना है कि यह गरीबों को और हाशिए पर धकेल देगा। उदाहरण के तौर पर, ग्रामीण इलाकों में जन्म पंजीकरण की दर पहले से ही न्यूनतम है। 

ताज़ा ख़बरें
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में राज्य के जन्म प्रमाणपत्र सिस्टम को 'एक बड़ी अव्यवस्था' करार दिया था, जहां एक ही व्यक्ति के लिए दो अलग-अलग जन्म तिथियों वाले प्रमाणपत्र जारी हो चुके हैं। ऐसे में, आधार पर निर्भर करोड़ों लोग अब अतिरिक्त कागजी कार्रवाई और भ्रष्टाचार का शिकार होंगे। 'डिजिटल इंडिया' का सपना देखने में आधार की बड़ी भूमिका थी। सरकार को बेसिक डेटा और सूचनाएं आधार के ज़रिए ही मिली थीं।

सुप्रीम कोर्ट का आधार पर रुख

सितंबर 2025 में बिहार में विशेष गहन संशोधन (SIR) के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि आधार को पहचान प्रमाण के रूप में 12वें दस्तावेज के तौर पर स्वीकार किया जाए। वहीं 26 नवंबर 2025 की सुनवाई में कोर्ट ने जोर दिया कि आधार नागरिकता का 'प्रमाण' नहीं है और किसी 'घुसपैठिए' को आधार के आधार पर वोट डालने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। भारत के चीफ जस्टिस सूर्य कांत ने सवाल उठाया, "क्या आधार वाले विदेशी या घुसपैठिए को वोटर बनाना चाहिए?" यह टिप्पणी चुनाव आयोग की उस राय से मेल खाती है, जहां आयोग ने स्पष्ट किया कि आधार केवल पहचान सत्यापन के लिए है। लेकिन उत्तर प्रदेश का यह नया आदेश सुप्रीम कोर्ट की बिहार वाली उदारता को नकारता नजर आता है। जहां आधार को सीमित स्वीकृति मिली, वहीं UP में इसे पूरी तरह खारिज कर दिया गया।

यूपी में राजनीतिक रणनीति

चुनाव आयोग ने हमेशा आधार को नागरिकता का प्रमाण मानने से इनकार किया है। 2025 में बिहार SIR के दौरान आयोग ने कहा कि आधार का इस्तेमाल केवल पहचान के लिए हो, वोटिंग राइट्स के लिए नहीं, क्योंकि इससे 'घुसपैठिए' वोट चुरा सकते हैं। लेकिन विडंबना देखिए, पहले आधार को सरकारी योजनाओं (जैसे PDS, MNREGA) की अनिवार्य शर्त बनाया गया, जिसके बिना गरीबों को भोजन तक न मिलता था। अब, जब सुप्रीम कोर्ट और आयोग इसे सीमित कर रहे हैं, तो BJP सरकार (केंद्र और UP दोनों) का रुख बदल गया लगता है। क्या यह राजनीतिक रणनीति है? बिहार चुनावों से पहले आधार को '12वां प्रमाण' बनाने का दबाव, और अब UP में इसे अमान्य ठहराना क्या है। आलोचक सोशल मीडिया पर पूछ रहे हैं: जब आधार को 'राष्ट्रीय पहचान' का दर्जा दिया गया, तो अब क्यों पीछे हट रही मोदी सरकार? क्या यह डेटा गोपनीयता चिंताओं (पुट्टास्वामी फैसले) का परिणाम है या वोट बैंक की राजनीति?

गरीबों के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात 

यूपी में अभी भी 35-40% लोगों के पास जन्म प्रमाणपत्र नहीं है (NFHS-5 और CRS डेटा)। इन्हीं लोगों ने 2014-2019 के बीच “आधार नहीं तो राशन नहीं, गैस नहीं, पेंशन नहीं” के डर से आधार बनवाए। अब वही आधार “केवल पहचान” बनकर रह गया- न जन्म तिथि प्रमाण, न जन्म स्थान प्रमाण। नतीजा? स्कूल में दाखिला बंद, सरकारी नौकरी से वंचित, विवाह पंजीकरण रुक, पेंशन अटक जाएगी। यानी जिस दस्तावेज को “गरीब का अधिकार” बताया गया, वही अब गरीब की “सजा” बन गया।

महाराष्ट्र का आदेश यूपी से भी सख्त

महाराष्ट्र में भी जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के लिए आधार कार्ड को दस्तावेज़ नहीं माना जाएगा और अगस्त 2023 के अधिनियम संशोधन के बाद केवल आधार कार्ड के ज़रिए बने सभी जन्म प्रमाण पत्र रद्द कर दिए जाएँगे। सरकार ने यह फ़ैसला अवैध उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किए जा रहे फ़र्ज़ी जन्म प्रमाण पत्र और मृत्यु प्रमाण पत्र को रोकने के लिए लिया है। 

राजस्व मंत्री चंद्रशेखर बावनकुले ने आधार कार्ड का इस्तेमाल करके जारी किए गए सभी संदिग्ध प्रमाण पत्र रद्द करने के आदेश दिए हैं। साथ ही, अब तक ये प्रमाण पत्र जारी करने वाले अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के निर्देश भी दिए गए हैं। राजस्व विभाग ने सभी तहसीलदारों, उप-विभागीय अधिकारियों, ज़िला आयुक्तों और संभागीय आयुक्तों को 16-सूत्रीय सत्यापन दिशानिर्देश जारी किए हैं।

1.3 लाख करोड़ खर्च हुए थे आधार सिस्टम खड़ा करने पर

आधार जारी करने वाली अथॉरिटी UIDAI बार-बार दावा करती है कि देश में 99.9% वयस्कों के पास आधार है। लेकिन उसी UIDAI ने कभी यह नहीं बताया कि इनमें से कितनों के पास पहचान का दूसरा कोई दस्तावेज है। अब जब चुनाव आयोग और यूपी की बीजेपी सरकार आधार को खारिज कर रहे हैं, तब UIDAI खामोश है। सवाल यह है कि 1.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करके बनाया गया सिस्टम क्या यूं ही ठप कर दिया जाएगा। आधार सिस्टम को खड़ा करने में जनता का पैसा लगा है। क्या आधार बिना सोचे समझे लाया गया था। आखिर आधार को सरकार और प्राइवे कंपनियों ने इतना अनिवार्य बना दिया कि इससे डेटा तक चोरी हुए। हर ऐरी-गैरी जगह आधार मांगा जाता है। अब अचानक पता चल रहा है कि इसकी कोई वैल्यू नहीं है।

सरकार का यह फैसला उन लोगों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनेगा जिनका जन्म घर पर हुआ था और जिनका कभी जन्म पंजीकरण नहीं हुआ। लेकिन आधार बन गया। अब उन्हें नया जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के लिए तहसील, पंचायत और नगर निकाय दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ेंगे। इस प्रक्रिया में रिश्वतखोरी और लंबी कागजी कार्यवाही की संभावना बढ़ जाती है, जिससे गरीब व्यक्ति का समय और पैसा दोनों बर्बाद होगा। 
देश से और खबरें
सवाल ये है कि अगर आधार कार्ड देश के लगभग हर नागरिक की अद्वितीय बायोमेट्रिक पहचान है, और इसे केंद्र सरकार ने दशकों तक अनिवार्य बनाया, तो क्या राज्य सरकारें इसे अचानक अमान्य कर दें? आखिर आधार का वास्तविक उद्देश्य क्या था? यदि यह पहचान का सबसे मज़बूत प्रमाण नहीं है, तो कल्याणकारी योजनाओं में इसे अनिवार्य क्यों किया गया था? और यदि यह पहचान का आधार है, तो नागरिकों को जन्मतिथि के लिए अन्य दस्तावेज़ जुटाने की दोहरी मार क्यों झेलनी पड़ेगी?