हत्याएं बनी सुर्खियाँ

इन हत्याकांडों में ज़िलावार और भी हत्याएं हुई हों और वे 'राष्ट्रीय' अख़बारों के 'स्थानीय'  पन्नों तक अटक कर रह गयी हो तो हमारी गिनती को ग़लत न ठहराया जाय। हमें इस महीने होने वाले सच्चे-झूंठे एनकाउंटरों को न गिनने का दोषी भी न माना जाय, क्योंकि हमने सुप्रीम कोर्ट की  जाँच के चलते ऐसे मामलों को ह्त्या में गिनने की कोई कोशिश नहीं की है, जो प्रथम दृष्टया भी कहीं से  'मुठभेड़' नहीं दिखते। 

हम बेख़ौफ़ यह ज़रूर कह सकते हैं कि प्रदेश में जून से लेकर जनवरी 2020 तक हत्याओं और अपहरणों के महावार मामलों में कोई ज़्यादा अंतर नहीं है। जनवरी का रिकार्ड आप भूल गए हों,  लेकिन हम नहीं भूले हैं कि इस महीने एक ही दिन में 'प्रदेश' के 7 अलग-अलग ज़िलों में कुल 13 हत्याएं की गयी थीं। 


भयमुक्त प्रदेश?

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने 'हिज मास्टर्स वॉयस' पर फिर भी 'भय मुक्त प्रदेश' का अपना रेकॉर्ड बजाते रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें देश का सर्वोत्तम मुख्यमंत्री का सर्टिफिकेट नवाज़ते रहे हैं और अख़बार (खासतौर से मातृभाषी अख़बार) उनकी किंकर्तव्यमूढ़ता को लेकर अपने पाठकों के सामने गाँधी की 'तीन मूर्तियां' बने का 'माइम' (मूकाभ्यास) करते रहें हैं।

इन 7 महीनों में यदि प्रदेश के सभी प्रमुख 3 हिंदी अख़बार और एक दर्जन मध्यम श्रेणी के हिंदी अख़बारों पर नज़र डाली जाय तो हत्या, अपहरण और लूट-पाट की ये खबरें उनके स्थानीय संस्करणों के अपराध के पन्नों पर कहीं टेढ़े-मेढ़े 'ले आउट' में चिपकी भले ही मिल जाएं, एक बड़े राजनीतिक सवाल के रूप में कहीं नहीं दिखेंगी, पिछली सरकार के कार्यकाल में जिसे इस रूप में छापने की उन्हें 'आदत' पड़ चुकी थी। मार्च विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बुलंदशहर में हुई माँ-बेटी के साथ बलात्कार की घटना पर मीडिया में तूफ़ान उठ खड़ा होने (जो कि बिलकुल ठीक था और मीडिया की दरअसल भूमिका यही होनी चाहिए) की घटना लोगों के दिमाग से अभी विस्मृत नहीं हुई है। 


आज जब प्रदेश में 12 बलात्कार प्रति दिन का आँकड़ा औसत बन चुका है, मीडिया अपनी उस पुरानी भूमिका को कैसे भूल गया है, लोगों को यह पूछने का अधिकार कहीं 'देशद्रोह' की परिभाषा में तो शुमार नहीं कर लिया जायेगा?

'ठोक दो'!

2017 के चुनाव से पहले ही बीजेपी ने अखिलेश के 'गुंडा राज' से निजात दिलवाना अपना मुख्य नारा बनाया था। सत्ता में आने के बाद योगी जी ने स्वयं को 'अपराध मुक्तिदाता' के रूप में पेश किया था। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने अपराधियों को 'ठोक दो' की अपील की। 

यह अपील केवल पुलिस अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को उकसाने की नीयत से नहीं की गई थी, आम नागरिकों को यह समझाने की ख़ातिर भी थी कि अपराधियों का मुक़ाबला कोर्ट-कचहरियों से नहीं, बल्कि सीधे-सीधे 'एनकाउंटर' में मार गिराए जाने से ही हो सकता है।

नया नैरेटिव

यह एक ख़तरनाक तजवीज़ थी- लोकतान्त्रिक समाज में आमजन की जनतांत्रिक आस्थाओं को खिसकाने की। यह दरअसल आम जनता के हाथों लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डलवाने का भयानक खेल रचने जैसा था। 'एनकाउंटर' ही अपराध और अपराधी का एकमात्र इलाज है' इस 'नेरेटिव' को आम समाज में स्थापित करने की एक लहर चलायी गयी।

इस ‘लहर’ को चलाने में सबसे ज़्यादा मददगार साबित हुआ मीडिया और अख़बार (विशेषकर मातृभाषी अख़बार)। विगत विधान सभा चुनाव से पहले के 2 सालों के यूपी और दिल्ली के हिंदी के सभी प्रमुख अखबारों का मुख पृष्ठ यूपी के 'गुंडा राज' से जुडी ख़बरों से रचा रहता था। सत्ता के बदलाव का समय आते-आते इन अख़बारों ने अपने बहुसंख्य पाठकों की मानसिकता में यह बीज बो दिया कि समाज की सभी समस्याओं की जड़ में 'अपराध' ही हैं और इससे तत्काल निजात पाना ज़रूरी है।

फर्ज़ी मुठभेड़

मार्च 2017 में, मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होते ही फ़र्जी एनकाउंटरों की जैसी बाढ़ आयी, वह पहले ही साल में हज़ारों की संख्या में पहुँच गयी। 2018 की शुरुआत में यूपी पुलिस ने बड़े गर्व से बताया कि उसने बीते 9 महीनों में हज़ार से ज़्यादा 'एनकाउंटर' में 38 'ख़ूंखार अपराधियों' को मार गिराया है।

पीयूसीएल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया है कि योगी सरकार ने बीते साढ़े तीन साल के अपने शासन काल में लगभग 140 व्यक्तियों को फ़र्जी मुठभेड़ में मार गिराया है। इसके बावजूद अपराधों में कमी न होना यह दर्शाता है कि 'एनकाउंटर' अपराध से निबटने का इलाज नहीं।   


जिस तेजी से यूपी में अपराधों का ग्राफ़ बढ़ता जा रहा है, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के 'अपराधमुक्त प्रदेश' के यूएसपी का ग्राफ़ उतनी ही तेज़ी से गिरता जा रहा है। 'राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो' पहले ही अपने अध्ययन में बता चुका है कि योगी के सत्तासीन होने के बाद से यूपी अपराध के ज़्यादातर मामलों में देश में ‘टॉप’ पर है।

राजनैतिक बेईमानी और बेशर्मी का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि सरकार अभी भी गाल बजाने का मोह संवरण नहीं कर पा रही है। क्या प्रदेश की जनता को अपराधों के इस 'रामराज्य' से मुक्ति मिलेगी?