सीजेआई गवई और भारत का संविधान।
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि ‘भारत में लोकतंत्र केवल एक ऊपरी परत (top-dressing) है, जबकि इस देश की ज़मीन मूल रूप से गैर-लोकतांत्रिक है।’ आंबेडकर कहना चाह रहे थे कि भारत में लोकतंत्र ऊपर-ऊपर से दिखता है, लेकिन समाज की जड़ें असमानता और भेदभाव में गहराई तक धंसी हैं। आंबेडकर के अनुसार, जाति-प्रथा ही भारतीय जीवन के इस गैर-लोकतांत्रिक स्वभाव का मुख्य कारण है, क्योंकि यह मनुष्य को जन्म के आधार पर ऊँच-नीच में बाँट देती है, जिससे बराबरी और स्वतंत्रता की भावना पनप नहीं पाती। आंबेडकर कहना चाहते थे कि जब तक समाज में जाति-भेद रहेगा, तब तक भारत का लोकतंत्र सिर्फ ऊपर से दिखने वाला नकली आवरण ही रहेगा, असली लोकतंत्र नहीं बन पाएगा।
बीते 75 सालों में काफ़ी कुछ बदल गया, भारत ग़ुलाम से आज़ाद हो गया; अंग्रेजी कानून और सत्ता को समाप्त कर भारत की अपनी कानून व्यवस्था और संविधान लागू कर दिया गया; यहाँ के नागरिक अपने प्रतिनिधियों को ख़ुद चुनकर विधायिकाओं में भेजने लगे; नागरिकों की सुरक्षा और सहूलियत के लिए कानून बनाये जाने लगे; उच्च शिक्षा और शोध आदि के संस्थान बनाये गए जिससे भारत एक प्रगतिशील देश बन सके। लेकिन इस देश में जिस बात ने बदलने से इनकार कर दिया वो थी गहरे धंसी हुई जातीय भेदभाव, ऊंच नीच के भेदभाव की मानसिकता। पिछले 75 सालों में कई बार ऐसा लगा जैसे जातीय शोषण कम होने वाला है और शायद यह एक दिन ख़त्म भी हो जायेगा। लेकिन अचानक कुछ ऐसी घटनाएँ घटने लगीं और इतनी संख्या में घटने लगीं कि संविधान निर्माण के 75 सालों का जश्न अब फीका पड़ गया है।
आरक्षण का असर कितना?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15 और 16 के तहत सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाकर शैक्षणिक संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया जिससे ‘अवसर की समानता’ को सुनिश्चित किया जा सके। इन प्रयासों ने कुछ काम किया भी और अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग से आने वाले भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ने लगा। देश के प्रीमियम संस्थानों से लेकर सरकारी नौकरियों तक, सभी में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ने लगा। लेकिन कुछ कट्टर समूहों को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। इन कट्टर समूहों ने कुछ छद्म बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर यह नरेटिव चलना शुरू कर दिया कि आरक्षण का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
यह देखा जाना चाहिए कि जब जिन लोगों को एक बार आरक्षण मिल गया है उनके बच्चों को आरक्षण ना दिया जाए। तमाम लोग इस तर्क के झाँसे में आ गए कि अगर कोई व्यक्ति एक बार आईएएस अधिकारी बन गया है तो अब उसके परिवार को सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। कई बार तो ख़ुद सुप्रीम कोर्ट भी इस झाँसे में आता दिखा जब उसने यह कह डाला कि “संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 16(4A) के तहत नियुक्तियों या पदोन्नति में आरक्षण का कोई मौलिक अधिकार नहीं है।”
देश में धीरे धीरे ऐसा माहौल बनाया गया जिससे आरक्षण को कम या ख़त्म किया जा सके। इसी बीच भारत में ऐतिहासिक रूप से एक शर्मनाक घटना घटी। जब भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई पर भरी कोर्ट में एक 71 साल के वकील द्वारा जूता फेंका गया। जस्टिस गवई भारत के दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश हैं। जूता फेंकने का कारण उस वकील ने यह बताया कि उसे भगवान विष्णु ने सपने में कहा था कि जस्टिस गवई द्वारा उनका अपमान किया गया है और अब उसे इसका बदला लेना चाहिए।
यहाँ किसी आम दलित व्यक्ति की बात नहीं हो रही है। उस आम दलित के बारे में तो सोचा ही नहीं जा रहा है जो आज भी मैला ढोने और सीवर को अपने हाथों से साफ़ करने को मजबूर है। यहाँ बात हो रही है एक ऐसे दलित की जो भारत का मुख्य न्यायधीश है।
आज़ादी के 75 साल बाद भी जातीय पूर्वग्रह बरकरार?
यानी वह उस कुर्सी पर बैठा है जहाँ से संविधान का संरक्षण किया जाता है। वही संविधान जो पूरे देश में अस्पृश्यता और समानता का अधिकार जैसे क्रांतिकारी विचारों की लिखित घोषणा कर चुका है। ऐसे व्यक्ति पर जूता मारे जाने का अर्थ यही है कि यह देश तमाम संवैधानिक प्रावधानों और 75 सालों की लोकतांत्रिक यात्रा के बावजूद आज भी इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि अपने जातीय पूर्वग्रहों को रोक सके। इसके अतिरिक्त यह बात भी है जब एक दलित मुख्य न्यायाधीश को जूता फेंककर अपमानित किया जा सकता है तो आम दलित के साथ दैनिक जीवन में क्या घटित होता होगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
इस देश में असहमति की संवैधानिक स्थापना की गई है, इसलिए किसी भी व्यक्ति/पद या संस्था के साथ असहमति होना कोई अपराध नहीं माना जाता लेकिन असहमति के बाद किसी की प्रतिक्रिया क्या होगी यह उसका व्यक्तिगत चुनाव होता है जोकि उसकी गहराई में बैठी मानसिकता का प्रतिबिंब होता है। एक दलित के साथ असहमति के बाद उसे जूता फेंककर मारना, इस वकील की मानसिकता का प्रतिबिंब है जिसका नाम भी लेना मैं उचित नहीं समझती क्योंकि 71 साल का यह व्यक्ति उस विचारधारा का वाहक मात्र है जिसे ना देश की आज़ादी से मतलब था, ना देश के तिरंगे और आज़ादी दिलाने वाले महापुरुषों से और ना ही आज़ादी के बाद बनी संस्थाओं पर कोई आस्था। यह आदमी तो सिर्फ़ एक वाहक मच्छर है जो एक खतरनाक पैरासाइट-विचारधारा को लेकर उड़ते-उड़ते भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास पहुँच गया। यह वकील जिस विचारधारा का वाहक है उसकी एक मात्र काबिलियत है धर्म और जाति के आधार पर देश का विभाजन करने की उसकी जिद्दी क्षमता!
आईपीएस अफसर की आत्महत्या
इसकी गंभीरता समझने के लिए एक और मामला देखा जाना जरूरी है। 2001 बैच के हरियाणा कैडर के आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार ने ख़ुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली है। अपने लंबे चौड़े सुसाइड नोट में इस दलित आईपीएस अधिकारी ने सालों से उनके साथ किए गए किए गए जातिगत अपमान और मानसिक उत्पीड़न के बारे में लिखा है। इस नोट में उन्होंने बताया है कि कैसे सालों तक उन्हें पदोन्नति से रोका गया, उन्हें छुट्टियाँ तक नहीं दी जाती थीं। जाति आधारित इस मानसिक और प्रशासकीय प्रताड़ना में हरियाणा के डीजीपी मतलब प्रदेश के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं। इन सभी के नाम पर स्व. पूरन कुमार की पत्नी जो हरियाणा में ही आईएएस अधिकारी हैं, ने नामजद FIR दर्ज करवाई है। सोचने पर महसूस होता है कि यह कितना भयावह है कि दलित चाहे देश की न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर ही क्यों ना पहुँच जाएँ, वह सबसे कठिन मानी जाने वाली यूपीएससी जैसी परीक्षा भी क्यों ना पास कर ले, वह ADGP जैसी उच्च रैंक तक भी क्यों न पहुँच गए हों, दलित जाति से उसका पीछा नहीं छूटता, जातिगत अपमान, शोषण और प्रताड़ना से उसका पीछा नहीं छूटता।
और ऐसे माहौल में एक राज्य का मुख्यमंत्री कहता है कि जातिगत रैलियां नहीं होने दी जाएंगी!
भारत में लोगों का दिमाग़ी पतन इस स्तर पर आ पहुँचा है कि कुछ लोग जूता फेंकने वाले वकील की डिग्री और जस्टिस गवई की डिग्रियों की तुलना करने में लगे हैं और वकील को CJI से श्रेष्ठ बता रहे हैं। जातिगत घमंड और मेरिट की खोखली श्रेष्ठता का यह गुमान उनकी मति भ्रष्ट कर चुका है।
वो यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जस्टिस गवई पर जूता फेंका जाना सिर्फ़ एक जज और जाति का अपमान नहीं है, असल में यह उससे कहीं बड़ी बात है। यह बात है भारत की एकता और इसकी अखंडता की। देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो भारत की एकता को इतनी मजबूती से बाँधती हो जितना कि न्यायपालिका, विशेष रूप से, सर्वोच्च न्यायालय! भारत में हमेशा भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजन की प्रवृत्तियाँ रही हैं। इन्हें रोकने और असंख्य पीड़ितों को भारतीय न्याय और कानून व्यवस्था में भरोसा बनाये रखने के लिए न्यायपालिका ने आज़ादी के बाद से लगातार बहुत मेहनत की है। इसी का परिणाम है कि आज देश में न के बराबर अलगाववादी प्रवृत्तियाँ बची हैं। अदालतें एकमात्र आधार है जिसने भारत को बाँधे रखा है, सिर्फ़ राजनैतिक दलों के भरोसे देश को नहीं छोड़ा जा सकता है। भारत विविधता से भरा एक मोनोलिथ इसीलिए बना हुआ है, इसीलिए उसे खंड-खंड नहीं किया जा सका है क्योंकि भारत में एक सशक्त न्यायपालिका का इतिहास रहा है। वर्ना ना जाने कब भारत के भीतर असंख्य भौगोलिक विभाजन जन्म ले लेते। कहीं ब्राह्मणस्थान होता तो कहीं सिन्धिस्थान होता, कहीं सिर्फ़ तमिल रहते तो कहीं सिर्फ़ दलितस्थान होता। औरतें अनवरत शोषण का शिकार रहतीं और भारत में शोषण की प्रवृत्ति खभी ख़त्म नहीं होती।
संविधान पहले, धार्मिक व जातीए आस्थाएँ बाद में
भारत को मनुस्मृति की ग़ैर-बराबरी से संविधान द्वारा प्रदत्त बराबरी के माहौल में लाने की यात्रा ने इसे अक्षुण्ण, अखंड और एक बनाये रखा है। इसे किसी भी भगवान, किसी देवता धर्म या खोखले जातीय गौरव के लिए दाँव पर नहीं लगाया जा सकता है। भारत पहले है, इसकी संस्थाएं, इसकी एकता और इसका संविधान पहले है इसके बाद किसी का धर्म, उस धर्म से संबंधित भगवान, उनके खेलकूद, उनकी लीलाएँ, उनकी आयतें और उनके अनुशासन आते हैं। बार बार सुनना चाहिए और पढ़कर याद रख लेना चाहिए कि भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है जिसका नेतृत्व वह संविधान करता है जिसे उन लोगों ने बनाया है जिन्होंने इस देश को आज़ाद करने के लिए साल दर साल अंग्रेज़ों के जुल्म सहे। भारत का संविधान एक पवित्र दस्तावेज है जो बहस, तर्क, असहमति को पर्याप्त स्थान देता है लेकिन इसके लचीलेपन को इसकी कमजोरी नहीं समझना चाहिए।
युवा पीढ़ी को यह बात आत्मसात करनी ही होगी कि आज का भारत हिंदू या किसी अन्य धर्म विशेष पर नहीं टिका हुआ है, आज के भारत को जो सम्मान प्राप्त है वो किसी भगवान या देवी देवता की वजह से नहीं बल्कि इस बात से है कि भारत लगातार 75 वर्षों से एक संवैधानिक लोकतंत्र बना हुआ है। जहाँ धार्मिक, जातीय और लैंगिक उत्पीड़न और भेदभाव के ख़िलाफ़ शक्तिशाली घोषणाओं को संविधान में लिखित आश्वासन के रूप में रखा गया है। भारतीय संविधान निर्माताओं की प्रतिबद्धता को समझिये, उन्होंने अस्पृश्यता जैसे हजारों साल पुरानी संक्रामक भारतीय बीमारी को एक झटके में समाप्त कर दिया। तमाम विरोधों के बावजूद विधवा विवाह लागू किया गया, सती प्रथा बंद की गई, जातीय उत्पीड़न से लड़ने के लिए कठोर कानून बनाया गया। लेकिन जो विचारधारा इन सबसे नाखुश रही और लगातार इसे बदलने के क़वायद में लगी रही वो आज मज़बूत है और सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्थाओं को जातीय और धार्मिक आधार पर अपमानित करने की कोशिश कर रही है। यह विचारधारा देश को कमजोर करने में लगी है। इस पर समय रहते एक सैद्धांतिक, लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रतिक्रिया देना आवश्यक हो गया है। इस प्रतिक्रिया के अभाव में यह गांधी, आंबेडकर और नेहरू के भारत से बदलकर मनु के भारत में बदल सकता है। जोकि भारत के लिए अनंत अंधकार के दरवाज़े खोल देगा, इससे बचना चाहिए।