संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है। पीएम मोदी चाहते थे कि वंदे मातरम पर चर्चा हो। चर्चा हो गई। इसी बहाने बीजेपी को सदन में नेहरू पर कीचड़ उछालने का मौक़ा मिला। मोदी जी समेत तमाम अन्य नेताओं ने झूठे आरोपों (अपुष्ट तथ्यों) के आधार पर नेहरू जी की राष्ट्र निष्ठा और उनके विकासशील कार्यों पर प्रश्न करना जारी रखा। इससे और स्पष्ट हो गया कि नेहरू-विरोध ही पीएम मोदी की राजनीति का सबसे बड़ा आधार है और कोई नेता क्यों चाहेगा कि उसका आधार खिसके!

वंदे मातरम की चर्चा के बाद यही समझ में आया कि बीजेपी और संघ के पास नेहरू के ख़िलाफ़ झूठे तथ्यों के आलावा और कुछ नहीं है। जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत की शुरुआत हैं, आधुनिक भारत ने उन्हीं की अगुआई में साँस लेना शुरू किया। नेहरू ने हमेशा चुनौतियों का सामना किया, उन्हें जो जीर्ण-शीर्ण और बीमार-खोखला भारत मिला था उन्होंने उसके लिए किसी से शिकायत नहीं की। बस जम के काम किया, भारत निर्माण के इंजन को ना सिर्फ़ शुरू किया बल्कि इस दुनिया से जाते जाते नेहरू भारत को सर उठाकर चलने लायक बना चुके थे। लेकिन आज की मोदी सरकार के पास नेहरू का नाम अपनी ज़िम्मेदारियों से भागने, नाकामियों को छिपाने का तरीक़ा बन चुका है।
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नेहरू पर हमला क्यों?

1947 में नेहरू को जो भारत मिला उसमें जीवन प्रत्याशा की स्थिति बहुत ख़राब थी। एक औसत भारतीय का जीवन मात्र 32 साल था। इसका कारण ख़राब स्वास्थ्य सुविधाएं थीं, अन्न की कमी और जीवन को गुणवत्ता प्रदान करने वाली अन्य सुविधाओं की भारी कमी भी। लेकिन नेहरू ने हार नहीं मानी, ऐसी नीतियाँ बनाई गईं कि 2022-23 आते-आते भारत में जीवन प्रत्याशा 72-73 वर्ष तक पहुँच गई। न स्वतंत्रता संघर्ष को भगवान भरोसे लड़ा गया और न ही आधुनिक भारत के निर्माण का कार्य भगवान भरोसे रखा गया लेकिन आज पीएम मोदी के नेतृत्व वाला भारत पूरी तरह भगवान भरोसे ही चल रहा है। साल दर साल भारत के शहर वायु प्रदूषण के काले घेरे में आते जा रहे हैं।

प्रदूषण अब सामान्य नहीं, बल्कि अपनी प्रचंड अवस्था में पहुँच गया है। इस प्रदूषण की वजह से जीवन प्रत्याशा फिर से घटने लगी है। वायु प्रदूषण को जीवन प्रत्याशा से जोड़ने वाले एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स (AQLI) जिसे शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टिट्यूट द्वारा जारी किया जाता है, के अनुसार 46% भारतीय ऐसी जगह पर रह रहे हैं जहाँ की वायु गुणवत्ता इतनी अधिक ख़राब है कि उसकी वजह से उनकी उम्र घटती जा रही है, यानी उनकी जीवन प्रत्याशा कम हो रही है। 

राजधानी दिल्ली के हालात ये हैं कि यहाँ के उच्च PM2.5 स्तर की वजह से आम दिल्लीवासी की उम्र लगभग 8 साल तक कम हो गई है। अब मामला सिर्फ़ दिल्ली तक ही सीमित नहीं है, पूरे उत्तर भारत में हालात ख़राब हैं और यहाँ जीवन प्रत्याशा 7 वर्ष तक कम हो गई है।

सरकार की उदासीनता

आधुनिक भारत के निर्माताओं ने जो कुछ भी बड़ी मेहनत से बनाया उसे अब तार-तार किया जा रहा है। वायु प्रदूषण हो या जलवायु परिवर्तन, यह सही है कि यह 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है लेकिन परेशानी यह है कि सरकार वायु प्रदूषण के मुद्दे को लेकर बहुत उदासीन है। बजाय इस समस्या से लड़ने के सरकार बहाने खोज रही है, लापरवाही कर रही है जिसकी वजह से करोड़ों भारतीयों- मुख्य तौर पर बच्चों और बुजर्गों- का जीवन खतरे में है।

लेकिन सरकार को कोई फ़र्क नहीं पड़ता उसने अपने कान में रूई और कार्यालयों में एयर प्यूरीफायर लगा लिए हैं। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर, के अनुसार 2025 में निगरानी किए गए 256 शहरों में से 150 में PM2.5 का स्तर राष्ट्रीय औसत से अधिक पहुँच चुका है। वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट के अनुसार 2024 में दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 13 शहर भारत के थे।

जहरीली हवा पर सरकार का रवैया

लेकिन सरकार ने अपना सोचने और पॉलिसी बनाने का रवैया बदला नहीं, जब जब बढ़ते प्रदूषण पर सरकार से सवाल किए गए, बढ़ते PM2.5 और PM10 के स्तर पर सवाल किए गए, साथ ही यह भी पूछा गया कि भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के हिसाब से इतनी बुरी हालत में क्यों है तो सरकार का रवैया नकारात्मक था। राज्यसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सांसद वी. शिवदासन के ऐसे ही एक सवाल के जवाब में पर्यावरण मंत्री कीर्ति वर्धन सिंह ने कहा कि देश अपनी वायु गुणवत्ता के मानक भौगोलिक स्थिति, पर्यावरणीय कारकों, पृष्ठभूमि स्तर (background levels), सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और राष्ट्रीय हालात को ध्यान में रखकर तय करते हैं। वैसे तो यह जवाब हर नजरिये से घटिया है लेकिन फिर भी यह समझना जरूरी है कि सरकार असल में कर क्या रही है।

दिल्ली के उदाहरण से समझते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के हिसाब से ख़तरनाक PM2.5 का स्तर 15 µg/m³ होना चाहिए लेकिन भारत सरकार ने अपना मानक 60 µg/m³ प्रति 24 घंटे रखा है। मतलब भारत में जब ये खतरनाक PM2.5 वैश्विक स्तर से 4 गुना अधिक होगा तब उसे नार्मल समझा जाएगा लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि दिल्ली में PM2.5 का स्तर लगभग 130 µg/m³ रहा यानी भारत के मानकों से भी दो गुना अधिक अर्थात् वैश्विक मानकों से 8 गुना से ज्यादा प्रदूषण। कई बार यह स्तर 200 को भी पार कर जाता है।
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पीएम 2.5 स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक़!

एक घटिया तर्क के सहारे सरकार अपनी नाकामी छिपा रही है। PM2.5 कण साँसों के माध्यम से फेफड़ों तक पहुँचते हैं और फेफड़ों से रक्त की धारा में पहुँचकर हृदय समेत शरीर के विभिन्न अंगों में ख़तरनाक़ प्रभाव डालते हैं। मेरा सवाल है कि क्या PM2.5 की यूरोपीय या अमेरिकी नागरिकों से कोई दुश्मनी है कि वहाँ ये कम प्रभाव डालते हैं और भारतीय नागरिकों से मोहब्बत है जो वे ‘गले लगने’ वाली मित्रता निभाएंगे और यहाँ इनका प्रभाव कम होगा? केंद्र सरकार ने संसद में यह बोला कि देश में ऐसा कोई निर्णायक डेटा उपलब्ध नहीं है, जिससे यह स्थापित किया जा सके कि मौत या बीमारी का सीधा कारण केवल वायु प्रदूषण है।

मेरा सवाल है कि अगर देश में ऐसा आँकड़ा उपलब्ध नहीं है तो सरकार ने ऐसे आँकड़े क्यों नहीं जुटाए? अगर लैंसेट ऐसे आँकड़े जुटा सकता है तो सरकार क्यों नहीं? आँकड़ों की कमी का नाम देकर इस बात से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता कि बढ़ते वायु प्रदूषण से मौतों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। UNICEF के सहयोग से निकलने वाली ‘स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर रिपोर्ट 2025 के अनुसार, 2023 में देश भर में लगभग 20 लाख मौतों के लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार था। 

2000 की तुलना में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या में 43% की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। क्या सरकार दावे के साथ यह कह सकती है कि यह तथ्य झूठा है?

प्रदूषण से जुड़ी बीमारियाँ बढ़ रहीं

शर्मनाक रूप से मानकों को WHO की सीमा से 8 गुना तक बढ़ा रही सरकार देश के लोगों को वैज्ञानिक तथ्यों से दूर रखना चाहती है। अगली बार जब PM2.5 का स्तर देखिये तो इन वैज्ञानिक तथ्यों को जरूर पढ़ लीजिये जिससे आपको ये पता चल जाये कि आपकी सरकार आपके साथ क्या कर रही है। हर बार जब PM2.5 का स्तर 10µg/m³ बढ़ता है तब वार्षिक मौतों की संख्या में 8% की बढ़ोत्तरी हो जाती है, आकस्मिक रूप से बालरोग विशेषज्ञ के पास जाने की दर 40% तक बढ़ जाती है और डीमेंशिया का खतरा 49% तक बढ़ जाता है। इसलिए अपने मन के आनंद के लिए मानक कमजोर बना देने से काम नहीं चलेगा, इसका भुगतान देश के नागरिकों को करना पड़ रहा है।

केंद्र सरकार ने गुरुवार को संसद में बताया कि वायु गुणवत्ता को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय किए गए मानक— जिनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की गाइडलाइंस भी शामिल हैं— कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं हैं। सरकार के अनुसार, ये मानक केवल देशों के लिए दिशानिर्देश का काम करते हैं, न कि बाध्यकारी नियम के रूप में। ऐसी बातें बोलते हुए सरकार को लज्जा नहीं आई। WHO क्यों कोई बाध्यकारी दिशानिर्देश बनायेगा? अगर सरकार को अपने नागरिकों की फ़िक्र नहीं है तो दुनिया क्यों फ़िक्र करेगी? सवाल यह है कि सरकार उच्च गुणवत्ता वाली वायु को कानूनी रूप से बाध्य क्यों नहीं बनाती? जीवन के अधिकार से जुड़ी इस बात पर मोदी सरकार हमेशा की तरह मौन है। लोग मर रहे हैं और मोदी सरकार के पास बहाना यह है कि वायु गुणवत्ता को बनाये रखना क़ानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है! अगर सरकार को यह बात समझ नहीं आती तो मैं बता दूँ कि यह अशिक्षित तर्क देश के लोगों के साथ ख़ासकर उन लोगों के साथ जो महंगे महंगे एयर प्यूरीफायर नहीं ख़रीद सकते, अन्याय है, अपराध है।
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सरकार ने 2009 में लागू किए गए राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों (NAAQS) को अपडेट नहीं किया है। साथ ही राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) में मौलिक और व्यापक संशोधन भी किए जाने की जरूरत है। सरकार इसपर काम नहीं करती बल्कि बहाने खोजने में लगी है। कभी वन्दे मातरम, कभी जन गण मन पर कभी गाँधी कभी 1857 पर, कभी राम, कभी सनातन धर्म कभी कुछ तो कभी सोनिया गाँधी की नागरिकता, कभी राहुल गाँधी पर प्रहार, कभी किसी अन्य अनावश्यक मुद्दे में उलझना और उलझाना सरकार की निर्लज्जता देखते बनती है। 

बाक़ी सब चाहिए अंतरराष्ट्रीय स्तर का!

जरा सोचिए भारत के प्रधानमंत्री का आवास ‘अंतरराष्ट्रीय मानकों’ पर आधारित होना चाहिए, मन कर गया तो अरबों खर्च करके नई संसद बनवा डाली, प्रधानमंत्री का प्लेन अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित होना चाहिए, मीटिंग रूम, रैलियाँ, घड़ियाँ, चश्मा सब अंतरराष्ट्रीय स्तर का होना चाहिए लेकिन जब बात आम लोगों के स्वास्थ्य की आती है, साफ़ हवा और पानी की आती है, निर्मल नदियों की आती है तब इसमें मोदी सरकार को ‘अपने हिसाब’ से और यहाँ की ‘भौगोलिक’ अवस्था के हिसाब से मानक चाहिए। यह दोहरा मानदंड भारत और भारतीयता दोनों के लिए खतरा है। भारत के नागरिकों को दूसरे दर्जे का व्यक्ति समझना, कमतर समझना, यहाँ के लोगों की जान को कमतर आँकना यह देश के साथ अश्लीलता और बेईमानी है। 

यदि भारत का नागरिक अपनी सरकार और संस्थाओं पर भरोसा कर रहा है, यदि उसे आज भी लग रहा है कि यह लोक कल्याणकारी राज्य है (मात्र लोक कल्याणकारी आवास भर नहीं) तो उसके भरोसे को तोड़ा नहीं जाना चाहिए। इंडिगो संकट और उसके बाद पीएम मोदी और उड्डयन मंत्री की ग़ैर-जवाबदेही ने बता दिया है कि इन नेताओं को सिर्फ़ कुर्सी से प्यार है आम लोगों की जिंदगी और जीवन स्तर से इन्हें कोई लेना देना नहीं। यदि यह बदलना है तो नेतृत्व बदला जाना चाहिए।