नरेंद्र मोदी जिस तरह पिछले 11 सालों से इस देश को चला रहे हैं उससे उनके ‘भक्तों’ में ऊर्जा और उमंग देखने को मिल रही है लेकिन दुर्भाग्य से यह उमंग भारत की लोकतांत्रिक चेतना को खाती जा रही है। जैसा कि आंबेडकर ने संविधान सभा में ही चेताया था “… धर्म में भक्ति, आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है। लेकिन राजनीति में भक्ति, निश्चित रूप से पतन और अंततः तानाशाही की राह है।”

पिछले 11 सालों से भारतीय लोकतंत्र धीरे-धीरे अवसान पर है। हर दिन कोई न कोई नई घटना घटती है जिससे यह पता चलता है कि आज फिर भारतीय लोकतंत्र की मजबूत दीवार से कोई बहुत महत्वपूर्ण पत्थर धीरे से हटा दिया गया। अब सवाल यह है कि ऐसे कितने दिनों तक चलेगा? क्या यह प्रक्रिया तब तक की जानी है जबतक पूरे भारतीय लोकतंत्र को एक ग़ैर-लोकतांत्रिक ढेर में न तब्दील कर दिया जाये?

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दो दिन की यात्रा पर भारत आए थे। उनके सम्मान में राजकीय भोज भी आयोजित किया गया लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने विपक्ष को भोज में आमंत्रित नहीं किया। परंपरा के अनुसार, विपक्ष के नेताओं के साथ महत्वपूर्ण विदेशी मेहमानों की बातचीत आयोजित करने का काम भारत सरकार का होता है लेकिन मोदी सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही के नेता प्रतिपक्ष के लिए न ही किसी बातचीत का आयोजन किया और न ही भोज में आमंत्रित किया। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने इस पर आपत्ति भी जताई लेकिन मोदी सरकार का लोकतांत्रिक गंभीरता गुणांक ‘ज़ीरो’ पर ही टिका रहा।
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भारतीय मीडिया दरबारी कवि?

मोदी सरकार ने भारतीय मीडिया को दरबारी कवि की तरह इस्तेमाल किया है। कभी खुद की तारीफ़ के लिए तो कभी विपक्ष की छवि ख़राब करने के लिए, कभी विपक्ष पर झूठे आरोप लगाने के लिए तो कभी जनसामान्य के मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए। इसी मीडिया के ज़रिये सरकार यह तय करती है कि ज़हरीला वायु प्रदूषण कोई गंभीर मुद्दा न बनने पाये, विदेश नीति की लगातार असफलता कोई गंभीर मुद्दा न बनने पाये, चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ कोई गंभीर मुद्दा न बनने पाये, पीएमओ के अधिकारियों का भ्रष्टाचार कोई गंभीर मुद्दा न बनने पाये, 1000 से अधिक हवाई यात्राएँ रद्द हो गईं, हजारों लोग बेदम हो गए लेकिन यह गंभीर मुद्दा न बनने पाये।

मोदी सरकार की विदेश नीति

60 करोड़ से अधिक दर्शकों तक पहुँच बनाने वाला मीडिया अब दरबारी हो गया है और यह दरबारी मीडिया ही तय करता है कि कौन सा मसला गंभीरता से लिया जाये और कौन से व्यक्ति को बड़ा नेता बनाकर दिखाया जाये, दरबारी मीडिया ही तय करता है कि गंभीर मुद्दा सिर्फ़ यह बने कि मोदी और पुतिन ने कितनी गर्म-जोशी से गले-मिलन कार्यक्रम किया और यह भी कि मोदी की तरह पुतिन ‘थकते क्यों नहीं’। दरबारी मीडिया उत्साहित होकर यह बताता है कि कैसे पुतिन के साथ गले मिलना भारत का क़द बढ़ा रहा है और ट्रम्प द्वारा लगातार भारत और भारतीयों को ज़लील करने की घटना से भारत के क़द को कोई नुकसान नहीं पहुँचता। दरबारी मीडिया यह छिपाने में राष्ट्रभक्ति समझता है कि कैसे मोदी सरकार 2022 में पाकिस्तान को FATF की ग्रे लिस्ट से बाहर निकलने पर रोक नहीं पाती है, कैसे मोदी सरकार, पाकिस्तान को मिलने वाली विश्व बैंक की फंडिंग को रोकने में नाकाम रहती है। 

पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आतंक-निरोधी समिति का उपाध्यक्ष बन जाता है और मोदी सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद इसे रोक नहीं पाती लेकिन दरबारी मीडिया के लिए यह सब मुद्दा दिखाने वाला नहीं बल्कि छिपाने वाला है।

असल में मामला चाहे संयुक्त राज्य अमेरिका का हो या दक्षिणी गोलार्ध के देशों का या फिर भारत के अपने पड़ोसी देशों-चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और भूटान का, नरेंद्र मोदी सरकार भारत की लकवाग्रस्त विदेश नीति की पहचान बन चुकी है। लेकिन दरबारी मीडिया के लिए पुतिन के साथ गले मिलना ही भारतीय विदेश नीति की जीत है।

भारत का मीडिया, जिसे भारत के संविधान से शक्ति प्राप्त होती है, उसी संविधान को कमजोर करने में लीडर की भूमिका में है। मीडिया के लिए भारत के हित से पहले नरेंद्र मोदी और बीजेपी का हित है। अगर ऐसा नहीं है तो विदेश नीति की असफलता पर बात क्यों नहीं करते? योजना दर योजना असफलताओं की कहानी बन चुकी मोदी सरकार की आलोचना क्यों नहीं की जाती? संसद चलाने में नाकाम मोदी सरकार की आलोचना क्यों नहीं की जाती? वायु प्रदूषण से मौत के मुँह में जा रहे पूरे उत्तर भारत के लिए मोदी सरकार की आलोचना क्यों नहीं की जाती? और सबसे मुख्य बात कि जब देश के विपक्ष को दरकिनार किया जाता है, तब यह दरबारी टीवी मीडिया मोदी सरकार की आलोचना क्यों नहीं करता? क्या मीडिया इतना अनपढ़ है कि उसे यह तक नहीं पता कि विपक्ष की इस लगातार अनदेखी से एक दिन लोकतंत्र भारत में इतिहास की सामग्री बन जाएगा। क्या मीडिया को यह भी नहीं पता कि लोकतंत्र कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि यह ओजोन परत के जैसा है जिसके हट जाने के बाद भारत भी नहीं बचेगा, सिर्फ़ मुट्ठी भर लोग बचेंगे जो हर दिन इस धरती को, यहाँ के संसाधनों को लूटेंगे।

मोदी सबसे कमजोर पीएम?

नरेंद्र मोदी इस देश के अबतक के सबसे असफल और कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। ‘मिनिमम गवर्मेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का खोखला नारा देने वाले प्रधानमंत्री इतिहास में अपनी ‘भयावह चुप्पी’ के लिए याद किए जाएँगे। एक ऐसे प्रधानमंत्री जो चुनावी रैलियों में तो कान फोड़ भाषण देता हो, लेकिन जब लोगों को ज़रूरत पड़ती हो, जब लोग आहत और परेशान हों, जब लोगों को देश के प्रधानमंत्री की सबसे ज़्यादा ज़रूरत हो तब पीएम चुप्पी साध लेता हो। जब संसद में खड़े होकर नेहरू की आलोचना करना हो तब लोगों को पीएम मोदी का चेहरा और उनका हावभाव देखना चाहिए, मानो उन्हें जीवन का सबसे बड़ा सुख मिल रहा हो। लेकिन जब दो सालों से अधिक समय तक मणिपुर जलता रहा पीएम मोदी ऐसे गायब रहे जैसे देश में पीएम की कुर्सी ही ख़ाली हो गयी हो। आज जब इंडिगो ने दो दिनों में 1000 से अधिक हवाई यात्राएँ रद्द कर दी हैं, लोग एयरपोर्ट्स पर हैरान-परेशान-बीमार घूम रहे हैं, कोई अपनी बेटी के लिए पैड्स के लिए परेशान है, कोई अपने साथ गए बुजुर्ग को अस्पताल ले जाने के लिए परेशान है तब पीएम मोदी फिर से गायब हो गए हैं। इस समय पीएम के नाम पर देश के पास है एक बड़ी और भयावह चुप्पी!

पीएम मोदी ने 7 रेसकोर्स का नाम ‘लोक कल्याण मार्ग’ रख दिया, राजभवनों को ‘लोक’ भवन नाम दे दिया गया, राजपथ को ‘कर्त्तव्य’ पथ बना दिया लेकिन जब सच में इस देश के ‘लोक’ को पीएम मोदी की जरूरत हुई तो वो गायब हैं, सरकार गायब है, उड्डयन अमला गायब है। हवाई यात्रा को लेकर इतनी बड़ी घटना घट गई लेकिन पीएम मोदी कोई जिमेदारी नहीं लेते हैं और न ही उनका मंत्री। पीएम मोदी की लोकतंत्र की परिभाषा में ‘जवाबदेही’ शब्द आता ही नहीं है।

जब से नरेंद्र मोदी इस देश के प्रधानमंत्री बने हैं तब से लगातार देख रही हूँ कि भारत के शासन और व्यवस्था से ज़्यादा मोदी का ध्यान इस बात पर है कि कैसे देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू और उनकी विरासत को छोटा करके दिखाया जाये।

कभी कभी तो लगता है जैसे शिशु मंदिर को प्रधानमंत्री कार्यालय के संचालन का काम दे दिया गया हो। आरक्षण की बात हो, या अनुच्छेद-370 की बात हो या सिंधु नदी समझौते की बात हो, पीएम मोदी ने नेहरू को हमेशा ग़लत तरीके से पेश किया जिससे वे अपनी व्यक्तिगत असफलताओं से बच सकें। एक बार तो संसद में बोलते हुए पीएम मोदी ने आज़ादी के बाद के भारत में ग़रीबी के ख़िलाफ़ लड़ाई को एक जुमला बता डाला था। सच्चाई निश्चित रूप से उन्हें पता होगी क्योंकि अब तो वो देश के प्रधानमंत्री हैं। उन्हें ज़रूर पता होगा कि आज़ादी के समय भारत में लगभग 80% आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही थी लेकिन जब 2014 में डॉ. मनमोहन सिंह ने मोदी को सत्ता सौंपी तो ग़रीबी 21% रह गई थी। करोड़ों लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालना जुमला नहीं हो सकता, यह कर्मठता और बेहतरीन नीतियों का परिणाम था और सबसे बड़ी बात, ग़रीबी हटाने का यह सारा काम 7 रेसकोर्स से किया गया था, 7 लोककल्याण मार्ग से नहीं! नाम बदलने से लोगों के भविष्य नहीं बदलते, नाम बदलने से लोगों का कल्याण नहीं होता, कल्याण के लिए काम करना होता है। 18 घंटे काम करने वाली कहानियाँ प्लांट करने से अच्छा था 10 घंटे ईमानदारी से काम कर लेते, नेहरू को अपमानित करने से अच्छा था अपना काम बेहतर तरीके से करते।

नेहरू की आलोचना क्यों?

नेहरू की झूठी आलोचना के पथ पर अब मोदी जी को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के रूप में एक नया प्रतिभागी और मिल गया है। मंत्री जी मोदी को भी पार कर लेना चाहते हैं, कह रहे हैं कि नेहरू जी सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनाना चाहते थे लेकिन पटेल ने रोक दिया। जबकि यह तथ्य ही झूठा है। नेहरू के जीते जी कभी भी बाबरी मस्जिद का मुद्दा इतना बना ही नहीं कि यह नौबत आती। यह कहानी ही 80 के दशक में शुरू हुई जबकि नेहरू जी का निधन 1964 में हो गया था। सोच कर देखिए कितना भयावह है कि देश का रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री दोनों ही झूठ के सहारे सरकार चलाना चाहते हैं।

लोकतांत्रिक साख का संकट

विपक्ष के नेता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को रूसी राष्ट्रपति से ना मिलवाकर, भोज में न आमंत्रित करके पीएम मोदी ने न सिर्फ़ अपने छोटे क़द को और छोटा किया है बल्कि भारत के प्रधानमंत्री के पद और भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं को भी अपमानित किया है। रूसी राष्ट्रपति पुतिन भी समझ गए होंगे कि वर्तमान भारत का प्रधानमंत्री कितना कमजोर है कि वो अपने विपक्ष के नेता को मुझसे नहीं मिलने दे रहा है। पुतिन ख़ुद अलोकतांत्रिक परंपराओं के अनुपालन के लिए जाने जाते हैं लेकिन अब से उन्हें यह भी आभास हो गया होगा कि नेहरू और गांधी का लोकतांत्रिक भारत, जिसके साथ दोस्ती करके रूस की साख बढ़ती थी वो अब ख़ुद अपनी लोकतांत्रिक साख के संकट से जूझ रहा है।

लोकतांत्रिक परंपराओं के अलावा संविधान में लिखी हुई और 75 सालों के सुप्रीम कोर्ट के निर्वाचनों से सिद्ध हो चुके सिद्धांतों को सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से ही कुचला जा रहा है। अनुच्छेद-21 अर्थात ‘जीवन के अधिकार’ जो स्पष्ट रूप से कहता है कि किसी को उसके जीवन के अधिकार और स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। इस अनुच्छेद की खास बात यह है कि यह भारत के नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों सभी के लिए है। यह अनुच्छेद कभी भी ज़ीरो घोषित नहीं किया जा सकता है। इसके बावजूद जब रीता मनचंदा नाम की याचिकाकर्ता ने बंदी-प्रत्यक्षीकरण के तहत सुप्रीम कोर्ट जाकर 5 अवैध रोहिंग्या आप्रवासियों को कोर्ट के सामने पेश करने के लिए याचिका लगाई तो सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिका ख़ारिज कर दी। याचिकाकर्ता का कहना है कि इन 5 रोहिंग्या आप्रवासियों की कोई जानकारी नहीं मिल रही है।
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CJI जस्टिस सूर्यकांत ने भारत की ग़रीबी का हवाला देते हुए अनुच्छेद-21 के तहत मिलने वाले जीवन के अधिकार को तवज्जो नहीं देने का फ़ैसला किया। यह कैसी न्यायपालिका है? यदि वो आप्रवासी हैं तो उन्हें बाहर उनके देश भेजिए, लेकिन क्या सरकार को उन्हें गायब कर दिए जाने का लाइसेंस प्राप्त है? और यदि गायब नहीं किए गए हैं तो गिरफ्तारी के बाद उनका क्या हुआ इस बात का सामने आना भारत की आवश्यकता है। उन आप्रवासी रोहिंग्याओं के बारे में जानकारी दिए जाने से इनकार करना और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसमें सरकार का सहयोग करना भारत के संविधान के साथ-साथ सार्वभौमिक मौलिक अधिकारों की घोषणा के प्रति भारत की प्रतिबद्धता के साथ भी धोखा है।

सोचने वाली बात है कि क्या अब सच्चाई यह है कि पिछले 11 सालों में इस देश की लोकतांत्रिक चेतना को हर स्तर पर ख़त्म किया जा रहा है? जिससे भारत में लोकतंत्र अप्रासंगिक हो जाये और मानवाधिकारों को रेडिकल विचारधारा वाली सरकार की नज़र से देखा जाये, लोगों के मूल अधिकारों को ऐसी सरकार की अनुशंसा से ही मान्यता मिले और संविधान सिर्फ़ कागज का टुकड़ा बनकर रह जाये? क्या मोदी सरकार सिर्फ़ कांग्रेस मुक्त भारत का सपना नहीं देख रही है बल्कि संस्थाओं का भयानक दुरुपयोग और दरबारी मीडिया के सहयोग से विपक्ष-मुक्त, विरोध-मुक्त और संविधान-मुक्त भारत बनाने की ओर अग्रसर है? सोचिये और इसे लोकतांत्रिक तरीके से रोकने के प्रयास में लगिए।