वंदे मातरम् गीत के 150 साल पूरे होने की ख़ुशी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में एक कार्यक्रम का उद्घाटन किया। इस दौरान एक विशेष डाक टिकट जारी किया गया और इस ऐतिहासिक पल को पूरे साल भर मनाने का फ़ैसला भी लिया गया। लेकिन हमेशा की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महान और दुर्लभ अवसर का भी अभद्र राजनीतिकरण कर डाला। 11 साल से दिल्ली की गद्दी पर बैठकर अपने किए गए कामों और उसके परिणामों पर बात करने का जोख़िम न उठाने वाले, और कांग्रेस को दिन रात कोसने में महारत हासिल कर चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि- 'आजादी की लड़ाई में वंदे मातरम् की भावना ने पूरे राष्ट्र को प्रकाशित किया था, लेकिन दुर्भाग्य से 1937 में वंदे मातरम के महत्वपूर्ण पदों को, उसकी आत्मा के एक हिस्से को अलग कर दिया गया था। वंदे मातरम् के टुकड़े किए गए थे। इस विभाजन ने देश के विभाजन के बीज भी बो दिए थे।'
वन्दे मातरम् का मुद्दा क्यों छेड़ा? बीते 11 साल के सवालों के जवाब क्यों नहीं देते?
- विमर्श
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- 9 Nov, 2025


पीएम नरेंद्र मोदी असम में
वंदे मातरम् पर नई बहस के बीच सवाल उठ रहे हैं कि सरकार यह मुद्दा अब क्यों उठा रही है। क्या यह पुराने सवालों से ध्यान भटकाने की कोशिश है? बीते 11 सालों में बेरोज़गारी, महंगाई और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर उठे सवालों के जवाब अभी तक क्यों नहीं मिले?
एक तो मुझे भरोसा है कि प्रधानमन्त्री मोदी इस बात से वाकिफ़ हैं कि भारत विभाजन का बीज किसने बोया था लेकिन फिर भी अगर उन्हें नहीं पता या वो अनजान बनने का स्वाँग रच रहे हैं तो मैं उन्हें याद दिला रही हूँ कि 1937 में वंदे मातरम् में जो कुछ भी किया गया वो राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए ही किया गया था लेकिन 1937 में कुछ ऐसा जरूर घटित हुआ था जिसने भारत के दो टुकड़े करने, पाकिस्तान के विचार को समर्थन देने और भविष्य में होने वाले बड़े नरसंहार की पृष्ठभूमि ज़रूर रच डाली थी।
हुआ यूँ था कि 1935 के भारत शासन अधिनियम के तहत जनवरी-फ़रवरी, 1937 में प्रांतीय चुनाव करवाये गए। ये चुनाव मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लिए आपदा ही साबित हुए। इन दोनों ही विभाजनकारी दलों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया था। 11 में से 7 प्रांतों में काँग्रेस को बहुमत मिला था। लीग को कहीं भी जीत नहीं मिली और हिंदू महासभा तो चुनाव में अस्तित्व विहीन ही थी। उस समय लीग का नेतृत्व जिन्ना कर रहे थे और महासभा का नेतृत्व वीडी सावरकर के पास था। हार से बौखलाए सावरकर ने 1937 के अंत में, हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में जो भाषण दिया उसने भारत को हमेशा के लिए दो हिस्सों में बाँट दिया। हिंदू महासभा ने अहमदाबाद के 1937 के अधिवेशन में सावरकर की अध्यक्षता में द्विराष्ट्र का सिद्धांत स्वीकार किया। इसका मतलब था कि हिंदुओं के लिए अलग मुल्क और मुसलमानों के लिए अलग। सच तो यह था कि हिंदू महासभा और सावरकर के लिए यह कोई सिद्धांत नहीं था बल्कि एक चरम हताशा और चरम अपमान का बिंदु था जहाँ उन्हें लगने लगा था कि भारत के ज्यादातर हिस्से के दिल में महासभा के लिए कोई जगह ही नहीं है और देश के लोगों की एकमात्र प्रतिनिधि कांग्रेस ही है। इसी हताशा और अपमान ने जिन्ना को भी धर्म निरपेक्ष, उदारवादी बैरिस्टर से एक कट्टर मुसलमान में तब्दील कर दिया। 1940 के लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने भी द्विराष्ट्र के सिद्धांत को मान लिया। लेकिन देश को विभाजित करने की शुरुआत सावरकर के नेतृत्व में 1937 में पहले हुई जिन्ना तो फिर भी थोड़ा लेट लतीफ़ हो गए।






















