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क्या ऐसी तकनीक होनी चाहिए जो राज्य के लिए निजता का अतिक्रमण करे?

अपने बारे में जानकारियों को लेकर इतना संकोच क्यों? और क्या हम यह भी नहीं कहते रहे हैं कि हमें पारदर्शी होना चाहिए? वही अच्छा है जो बाहर और भीतर एक हो? हम ऐसा कुछ करें ही क्यों जिसे लेकर पर्दादारी करनी पड़े? निजता को लेकर दार्शनिक और क़ानूनी बहस होती रही है। मुझे मेरे व्यक्तित्व का अधिकार है, वह अनुल्लंघनीय है। लेकिन मैं एक समाज से घिरा हूँ, नैतिकता, व्यक्तिगत आचरण की जिसकी अपनी नैतिकता है।
अपूर्वानंद

पेगासस तकनीक के सहारे जासूसी की अंतरराष्ट्रीय ख़बर के बाद इस पर बहस छिड़ गई है कि क्या ऐसी तकनीक की इज़ाज़त किसी रूप में देनी चाहिए जो राज्य के लिए हमारी निजता का पूरी तरह से अतिक्रमण करना इतना आसान बना दे? आलोचकों का कहना है कि प्रश्न निजता की रक्षा और उसके सम्मान का है। 

दूसरी तरफ एक तबका है जो इससे बेपरवाह है। वह पूछता है, क्या निजता को लेकर इतना परेशान होने की ज़रूरत है? और वह भी इस ज़माने में जब फ़ेसबुक, ट्विटर, गूगल के चलते हमारी बहुत सारी सूचनाएँ पहले ही जगजाहिर हैं?

फिर अपने बारे में जानकारियों को लेकर इतना संकोच क्यों? और क्या हम यह भी नहीं कहते रहे हैं कि हमें पारदर्शी होना चाहिए? वही अच्छा है जो बाहर और भीतर एक हो? हम ऐसा कुछ करें ही क्यों जिसे लेकर पर्दादारी करनी पड़े? 

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गोपनीयता पाखंड है?

संपूर्ण पारदर्शिता के इस सवाल पर आज से 21 वर्ष पहले प्रकाशित अपनी किताब 'द अनवांटेड गेज़' में जेफ्री रोज़न ने लिखा कि हमें इस तरह सोचने का अभ्यास करा दिया गया है कि किसी भी तरह की गोपनीयता पाखंड है।

लेकिन पारदर्शिता की संस्कृति में बहुत कुछ के खो जाने का ख़तरा है। हमारी विलक्षणता, रचनात्मकता जो आत्म के विकास के लिए, मित्रता और आपसी समझदारी के लिए, यहाँ तक कि प्रेम के भी लिए भी अनिवार्य है,  वह नतांत निजी क्षणों के बिना संभव नहीं।

वे कहते हैं कि निजता का अर्थ ही है कि व्यक्ति खुद को परिभाषित कर सकते हैं और उन्हें इस बात की इज़ाज़त है कि विभिन्न परिस्थितियों में वे अपने वजूद का कितना हिस्सा उजागर करें और कितना नहीं। 

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घर की दीवार क्यों?

जैसा रोज़ेन की किताब के शीर्षक से ही जाहिर है, हम अपने ऊपर अनचाही निगाह नहीं चाहते। यह अनचाही निगाह मेरे अस्तित्व के किसी हिस्से को संदर्भ से पूरी तरह काटकर  सार्वजनिक कर सकती है और उसके बिलकुल ग़लत मायने निकाले जा सकते हैं। 

लेकिन हम जानते हैं कि हम सब घरों में रहते हैं। बेदरो दीवार के घर की काव्यात्मक कल्पना तो कर सकते हैं, लेकिन घर बनाने के लिए दीवारें तो अनिवार्य हैं।

दीवार और दरवाजे के मायने ही हैं कि मैं आपके सामने बेपर्द नहीं रहना नहीं चाहता। अगर आपको ऐसा लगता रहे कि आँख है, जो लगातार आपको देख रही है तो आपके लिए सहज रहना संभव न होगा। निजी और सार्वजनिक के बीच एक फर्क है।

निजता और गोपनीयता

निजता और गोपनीयता का एक संबंध है। मैं अपने जीवन का कुछ गोपन रखना चाहता हूँ। हो सकता यही वह मेरे ही वजूद का एक हिस्सा है जिससे मैं जूझ रहा हूँ। लेकिन मैं इस संघर्ष में और किसी को भागीदार नहीं बनाना चाहता। एक कलाकार अपने कारखाने में सबको प्रवेश नहीं देना चाहता। लेखक बहुत कुछ लिखता है, लेकिन सब कुछ प्रकाशित नहीं करता। 

निजता को लेकर एक मत चेक और फ्रेंच लेखक मिलान कुंदेरा का है। वे कहते हैं कि अपने निजी क्षणों में हम काफी सावधान नहीं होते, कई बार ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जो बाहर नहीं करेंगे, कुछ लोगों के बारे में हम अपनी राय भी बतलाते हैं जो जाहिर नहीं करेंगे। 

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कुछ लोग इसे दोमुंहापन कह सकते हैं। लेकिन यह मेरा विवेक है कि मैं सार्वजनिक जीवन को विचलित नहीं करना चाहता, न सामाजिकता को छिन्न-भिन्न करना चाहता हूँ।

मैं भाषा के सामाजिक व्यवहार को भी सम्मानजनक दायरे में रखना चाहता हूँ। अगर मैं किसी व्यक्ति या समुदाय के बारे में अपने पूर्वग्रह का प्रकाश नहीं करता तो क्या यह बेईमानी है? यह अलग बात है कि मेरे भीतर वे पूर्वग्रह होने ही नहीं चाहिए। लेकिन वह अलग प्रश्न है। निजता को लेकर दार्शनिक और क़ानूनी बहस होती रही है। मुझे मेरे व्यक्तित्व का अधिकार है, वह अनुल्लंघनीय है। लेकिन मैं एक समाज से घिरा हूँ, नैतिकता, व्यक्तिगत आचरण की जिसकी अपनी नैतिकता है।

नैतिकता तो बदलती रही है। एक समय और समाज की इस समझ से मेरा, एक व्यक्ति का सहमत होना आवश्यक नहीं। फिर मैं क्या करूँ अगर जीवन, वैयक्तिकता आदि के बारे में मेरी समझ मेरे समाज से टकराती है?

एक सुझाव यह हो सकता है कि आप जो भी सोचते हैं, वैसे ही आचरण कीजिए। इसके नतीजे घातक हो सकते हैं। और आवश्यक नहीं कि मैं यह आत्मघाती वीरता की मूर्खता करना चाहूँ। फिर भी मैं अपने ढंग से अपनी एक जगह बनाकर रखना चाहता हूँ जहाँ तक समाज की निगाह न जाए। यह मेरा निजी स्थान है। 

'रीडिंग लोलिता इन तेहरान'

'रीडिंग लोलिता इन तेहरान' में लड़कियाँ और औरतें बुर्का पहनती हैं। लेकिन जब वे उपन्यास की गोपनीय कक्षा में अपनी अध्यापिका के घर पहुँचकर अपने बुर्के उतारती हैं तो जैसे रंग कमरे में बिखर जाते हैं।

लिपस्टिक, नेलपॉलिश, कपड़ों के रंग! यह उनकी निजता है जैसे राज्य की नज़र से छिपकर  उपन्यास पढ़ना  भी उनकी निजता है। यह सब कुछ गोपनीय है। क्या ये औरतें कायर हैं? और क्या इस निजता का कोई अर्थ नहीं है?

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'फर्स्ट दे किल्ड माई फ़ादर'

इस लेख के लिखे जाने के बीच ही एक फिल्म देखी: 'फर्स्ट दे किल्ड माई फ़ादर'।  यह कम्पूचिया में ख्मेर रूज़ क्रांति और उसके बाद उसके शासन के आरम्भिक दिनों की कहानी है, जो एक लड़की की आँखों से देखी जाती है। 

ख्मेर रूज़ के हावी होते ही ऐलान किया जाता है कि अब न सिर्फ न सिर्फ किसी निजी वस्तु की कोई जगह है, बल्कि किसी भी प्रकार की निजता की कोई वैधता नहीं है। अपनी मर्जी के कपड़े, जूते ही नहीं बल्कि कोई निजी रंग भी नहीं। सबके कपड़े एक रंग में, मटमैले रंग में रंग दिए जाते हैं। 

स्वाद की निजता भी नहीं। और वह लड़की और उसकी बहन एक छींटदार कुर्ता छिपाकर रख लेती हैं। रात में सोने के पहले वह उसे सूँघती है, फिर उसे नींद आती है। यह गंध की निजता या निजता की गंध का मार्मिक चित्रण था। 

वे लड़कियाँ ख्मेर रूज़ के सैनिकों को खुली चुनौती नहीं देतीं लेकिन जिस तरह वे उनकी क्रूरता के बीच अपनी निजता के भाव को सीने से लगाए रखती हैं। 

जो खुद को खुली या आज़ाद दुनिया कहती है, उसकी सत्ताएँ अलग-अलग समय में राज्य की सुरक्षा के नाम पर लोगों की निजता का अपहरण करना चाहती हैं। कभी क़ानूनी तरीके से, कभी छिपे तरीके से।

राज्य क़बूल नहीं करता!

साम्यवादी देशों की भर्त्सना करनेवाले अमरीका को यह करने में  कोई हिचक नहीं रही है। लेकिन प्रायः ये 'आज़ाद' मुल्क इसे स्वीकार नहीं करते। 

जैसे अब तक किसी राज्य में क़बूल नहीं किया कि वह पेगासस का इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन इसपर हम बहुत कम सोचते हैं कि राज्य खुद को गोपनीय रख सकता है, कई जायज़ सवालों के जवाब राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर वह नहीं देता और उसका हम बुरा नहीं मानते। 

2001 के बाद हर किसी पर नज़र रखने का अधिकार पूरी तरह से जायज़ मान लिया गया। आतंकवादी अपनी तैयारी गोपनीय तरीके से करते हैं इसलिए उनकी साजिश को नाकाम करने के लिए उनकी जासूसी करना आवश्यक है। 

पेगासस तकनीक विकसित करनेवाली कंपनी एनएसओ ने कहा कि  किसी को यह गंदा काम करना पड़ता है ताकि हम चैन से सो सकें या सड़कों पर इत्मीनान से चल सकें।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

इत्मीनान का अर्थ अचानक हिंसा के भय से मुक्ति। आतंकवादी हिंसा से बचाव। लेकिन भारत में सरकारी आँकड़े ही यह बताते हैं कि हिंसा की घटनाओं में जातिगत और साम्प्रदायिक हिंसा का हिस्सा ज़्यादा है। 'आतंकवादी हिंसा' का इनके मुक़ाबले बहुत कम। मौतें भी इन दो तरह की हिंसाओं में अधिक हुई हैं। इस हिंसा को रोकने के लिए किस तकनीक की ज़रूरत है। उसका प्रचार करनेवाले और उसे अंजाम देनेवाले खुलेआम अपना काम करते हैं और सरकारों में भी हैं। इनपर तो नज़र रखने के लिए किसी खुफिया तकनीक की भी ज़रूरत नहीं। फिर भी इनपर काबू क्यों नहीं पाया गया? 

इसी से जाहिर हो जाता है कि मक़सद हिंसा को रोकना नहीं है। वैसे ही पेगासस के संभावित निशानों की सूची में पूँजीपति, सरकार के मंत्री, विपक्ष के नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार और विशेषज्ञ शामिल हैं। इनपर निगाह रखी जा रही है किसी और मक़सद से। राष्ट्रीय सुरक्षा तो वह उद्देश्य क़तई नहीं है।

ऐसी निगरानी को छूट राज्य को देना अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार लेना है। क्योंकि यह अनचाही आँख हमारे आपके हरेक के घरों में हमेशा हमें घूरती रहेगी और हमारे अनजाने हमारा सारा कुछ कहीं और भेजती भी रहेगी।

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