लेडी श्रीराम कॉलेज में पिछले दिनों आयोजित एक कार्यक्रम को लेकर कॉलेज की छात्राओं में आक्रोश है। पूर्व छात्राएँ भी क्षुब्ध हैं।कॉलेज के राजनीति शास्त्र विभाग के कार्यक्रम में एक पूर्व राजनयिक दीपक वोहरा के स्त्री विरोधी,जातिवादी और घोर सांप्रदायिक वक्तव्य के कारण उनमें क्रोध है। उसका ब्योरा पढ़कर किसी का सर शर्म से झुक जाएगा। ख़ुद को भारत के शीर्ष शिक्षा संस्थाओं में एक होने का दावा करनेवाले श्रीराम कॉलेज में कोई मंच पर आकर ख़ुद को ‘मोदी का चमचा,महा चमचा’ कहे ,मुसलमानों के ख़िलाफ़ भद्दी टिप्पणी करे, औरतों के लिए फूहड़ शब्दों का इस्तेमाल करे और कॉलेज की प्राचार्या साथ में ताली बजाएँ और नाचें,इससे अधिक लज्जास्पद क्या हो सकता है?
महिला कॉलेज में स्त्री विरोधी टिप्पणी पतन नहीं, आघात है
उससे भी अधिक शर्मनाक था इस वक्तव्य पर श्रोता छात्राओं का हँसना, ताली बजाना और बाद में दीपक वोहरा के साथ तस्वीर खिंचवाने और उनका ‘ऑटोग्राफ़’ लेने के लिए धक्का मुक्की करना। यह हमें मालूम है कि आजकल दिल्ली विश्वविद्यालय या अन्य संस्थानों में आधिकारिक तौर पर जातिवादी, सांप्रदायिक और घृणा के प्रचारकों को ही वक्ताओं के तौर पर आमंत्रित किया जाता है। हमें अपने अधिकारियों और महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे अध्यापकों के पतन पर कोई आश्चर्य नहीं है। दुख ज़रूर है। लेकिन नई दिल दिमागवाली नौजवान पीढ़ी के पतन से कहीं अधिक आघात लगता है। यह कैसे हो सकता है कि महिलाओं के एक कॉलेज में कोई स्त्री विरोधी शब्दों का इस्तेमाल करे और उसपर छात्राएँ ताली बजाएँ?
दीपक मोहम्मद के बहाने दीपक वोहरा की सोच सामने आई
सुना है, इस कार्यक्रम के बाद कॉलेज के भीतर से ही आलोचना, भर्त्सना और विरोध के स्वर उठ रहे है। छात्राओं के निजी व्हाट्सैप समूहों में क्षोभ ज़ाहिर किया जा रहा है। पूर्व छात्राएँ इसके ख़िलाफ़ बयान जारी कर रही हैं। उनका कहना है कि यह संभव नहीं है कि छात्राएँ ऐसे गंदे और विषैले भाषण की तारीफ़ करें।लेकिन यह तथ्य है कि दीपक वोहरा ने जब कहा कि मेरा नाम दीपक मोहम्मद हो तो मैं 4 शादियाँ कर सकता हूँ और प्राचार्या उन चार में एक हो सकती हैं तो हॉल में तालियाँ बजीं। किसी छात्रा ने उठकर विरोध नहीं किया। किसी अध्यापिका ने भी नहीं।
किसी ने ध्यान दिलाया कि कुछ समय पहले इसी कॉलेज की पूर्व छात्रा और अध्यापिका प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन को प्रशासन ने परिसर में घुसने नहीं दिया था। यह कहकर कि कॉलेज एक अराजनीतिक जगह है। फिर दीपक वोहरा का कार्यक्रम राजनीतिक था या नहीं? या यह कहा जाएगा कि वह सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भाषण था, राजनीतिक नहीं?
कॉलेज क्या राष्ट्रवाद का प्रचार करने का मंच हैं
परिसरों में इस तरह के फूहड़पन और अश्लीलता का प्रदर्शन अब आम बात हो गई है। कहीं कहीं यह बर्दाश्त की हद पार कर जाता है जैसे इस कार्यक्रम में लेकिन बाक़ी जगहों पर भी,जहाँ वक्ता राष्ट्रवाद का प्रचार करते हैं, वह उतना ही चिंतनीय है। लेडी श्रीराम कॉलेज की इस खबर के साथ मिरांडा हाउस में ‘दैनिक जागरण’ के एक कार्यक्रम की खबर भी पढ़ी। उस कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और प्रवक्ताओं को मंच दिया गया था। दूसरे किसी राजनीतिक विचार के व्यक्ति का नाम नहीं दीखा। यह सवाल भी किया जा सकता है कि क्या कॉलेज को ‘दैनिक जागरण’ के साथ कोई कार्यक्रम करना ही चाहिए था? यह अख़बार न सिर्फ़ भाजपा समर्थक है बल्कि यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ सक्रिय घृणा प्रचार करता रहा है। क्या ऐसे किसी संस्थान के साथ मिलकर किसी शिक्षा संस्थान को कार्यक्रम करना चाहिए जो उसकी छात्राओं के ही एक हिस्से को ख़तरे में डालता रहा हो?
कॉलेज के मंच जनतंत्र विरोधी होते जा रहे हैं
परिसरों के प्रशासकों की ज़िम्मेदारी है कि वे उन्हें हर तरह के विद्यार्थी, अध्यापक और शेष कर्मचारियों के लिए सुरक्षित बनाएँ। इसी वजह से उन्हें अपने लिए कुछ सीमा तय करनी पड़ती है।समाज के किसी तबके के ख़िलाफ़ हिंसा और घृणा के प्रचार की इजाज़त किसी भी तरह नहीं दी जा सकती। ऐसे व्यक्ति को भी आमंत्रित नहीं किया जा सकता जो द्वेष, घृणा और हिंसा के प्रचारक के रूप में जाना जाता हो। कुछ लोग इसे जनतांत्रिक अधिकार के नाम पर जायज़ ठहरा सकते हैं।लेकिन समाज के किसी भी तबके के ख़िलाफ़ जब खुले मंच से घृणा का प्रचार होता है और उसका कोई विरोध नहीं होता तो वहाँ मौजूद उस तबके के लोग और भी ख़ामोश हो जाते हैं। यानी वे सार्वजनिक स्थल में अदृश्य हो जाते हैं। यह जनतांत्रिक भागीदारी को संकुचित करता है इसलिए जनतंत्र विरोधी भी है। प्रशासन का पहला काम है परिसर को हर किसी के लिए सुरक्षित बनाना। उससे आगे बढ़कर उनके लिए उसे इत्मीनान की जगह बनाना।
हमें परिसर में हर तरह की आवाज़ और हर तरह का विचार ज़रूर सुनना चाहिए।लेकिन अगर आधिकारिक तौर पर उसे स्वीकृति दे जाती है और अगर वहाँ उसे चुनौती नहीं दी जा सकती तो वह जनतांत्रिक विचार विमर्श की जगह को विस्तृत नहीं करता। वह संवाद को कुंठित करता है।
क्या किसी धर्म की खिल्ली उड़ाने का अधिकार है
कॉलेज या विश्वविद्यालय सभ्यता का प्रशिक्षण भी देते हैं। यानी सभ्य भाषा और सभ्य आचरण की शिक्षा भी वहाँ दी जाती है। जो सड़कछाप भाषा है, वह कक्षा में या किसी भी औपचारिक मंच पर किसी तरह स्वीकार नहीं की जा सकती। हम सीखते हैं कि हम किसी की शारीरिक बनावट, उसकी भाषा, उसके धर्म या विश्वास के कारण उसकी खिल्ली नहीं उड़ा सकते। हम औरत, दलित, काले, छोटी आँखवाले, मुसलमान या ईसाई के लिए अपमानसूचक शब्दों के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं दे सकते। यह सभ्य व्यवहार के लिए न्यूनतम है।
इस दृष्टि से अगर पिछले 11 सालों में परिसरों में सार्वजनिक कार्यक्रमों की जाँच करें तो मालूम होगा उनमें से ज़्यादातर राष्ट्रवाद के बहाने संकीर्णता, उग्रता और आक्रामकता को बढ़ावा दे रहे हैं। परिसरों में अब सद्भाव की बात नहीं की जा सकती। वहाँ अब ऐसे चेहरे प्रायः देखते हैं जिन्हें क़ायदे से सभ्य समाज से बहिष्कृत होना चाहिए था।
नई उम्र के छात्रों की सोच पर अफसोस होता है
प्रशासकों पर सभ्यता की ज़िम्मेदारी है। लेकिन उन्होंने तय कर लिया है कि वे असभ्यता के प्रचार और प्रसार में आगे आगे चलेंगे। उससे अधिक अफ़सोस की बात है नई उम्र के विद्यार्थियों का इसमें शामिल हो जाना। फिर देश और समाज के लिए आशा नहीं बचती। हमने 11 सालों में विद्यार्थियों को आर एस एस में शामिल होते देखा है। उनमें वे भी हैं जो समझदार थे। इसका कारण व्यावहारिक बतलाया जाता है।किसी को शोध कार्यक्रम में दाख़िला चाहिए, किसी को नौकरी। वह आर एस एस के रास्ते ही मिल सकती है। अध्यापकों को आगे और पद चाहिए। वे अध्यापक मात्र रहकर संतुष्ट नहीं। वे कहते हैं कि वे निजी तौर पर सांप्रदायिक नहीं लेकिन अभी उनके लिए यह बाध्यता थी और इसे न समझना उनके प्रति अन्याय है।
ऐसे लोगों के प्रति कैसे सहानुभूति रखी जाए जो यह नहीं समझते कि आर एस एस को समर्थन देकर वे एक ऐसे संगठन को वैधता दे रहे हैं जो भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा का प्रचार करता है? वे ख़ुद अपने मुसलमान मित्र को नहीं मारेंगे लेकिन वे जिस विचार को पुष्ट कर रहे हैं उससे प्रेरित लोग उनके मित्रों की हत्या कर सकते हैं। जिस मुसलमान के घर से वे गोश्त खाकर निकले हैं, उस पर उनके संगठन के गुंडे यह कहकर हमला कर सकते हैं कि उसके यहाँ गाय का माँस पकाया गया है। क्या वे यहकर बच सकते हैं कि वह हमला उन्होंने नहीं किया? क्या अपने मित्र के हत्या में उनका कोई हाथ नहीं?
वक़्त-बेवक़्त से और खबरें
लेडी श्रीराम कॉलेज या मिरांडा हाउस की प्राचार्यों और हमारे कुलपतियों को मालूम होना चाहिए कि जब वे घृणा और हिंसा के विचार को प्रसारित करते है तो अपने अध्यापकों और विद्यार्थियों के ख़िलाफ़ इस वजह से होनेवाली हिंसा में भागीदार बनते हैं। और वे संभावित हत्यारों को भी प्रशिक्षित करते हैं।चुनाव उनका है।