जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय(जे एन यू) छात्र संघ का चुनाव टल गया है। चुनाव कराने वाले आयोग का आरोप है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद(ए बी वी पी) ने नामांकन के दौरान हिंसा करके बाधा पहुँचाई है। उधर ए बी वी पी का इल्ज़ाम है कि इस बार वाम छात्र संगठनों में फूट के कारण उसकी जीत की संभावना बढ़ गई है। इससे घबराकर आयोग ने, जो वाम संगठनों से जुड़ा है, चुनाव टाल दिया है। दोनों में कौन ठीक बोल रहा है, निश्चित रूप से बतलाना किसी भी बाहरी व्यक्ति के लिए मुश्किल है। लेकिन चुनाव टालने से इसकी गुंजाइश बढ़ गई है कि प्रशासन इसमें दख़लंदाज़ी करे। वह तर्क दे सकता है कि विद्यार्थी इस प्रक्रिया का संचालन प्रभावी और निष्पक्ष तरीक़े से नहीं कर पा रहे। इस आशंका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।

इससे जुड़ी एक दूसरी खबर पर विचार करना इस टिप्पणी का मक़सद है। वह है वाम छात्र संगठनों में मतभेद की खबर। अख़बार के मुताबिक़ यह मतभेद इस बात को लेकर है कि भारत में फ़ासिज़्म है या नहीं। स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया, जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र शाखा है, नहीं मानती कि भारत में फ़ासिज़्म आ गया है। उधर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी( मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के छात्र संगठन, आल इंडिया स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन और आल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन का कहना है कि भारत में फ़ासिज़्म है। कहा जा रहा है कि उनके लिए यह इतना बुनियादी मतभेद है कि वे जे एन यू में साथ चुनाव नहीं लड़ सकते।  

ये सभी छात्र संगठन अपने पितृ या मातृ राजनीतिक दलों की समझ दुहरा रहे हैं। परिसर के बाहर के राजनीतिक दलों के वैचारिक मतभेद को परिसर के भीतर ज्यों का त्यों लागू करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है, यह कोई भी बाहरी व्यक्ति पूछ सकता है। या जे एन यू के विद्यार्थी भी प्रश्न कर सकते हैं कि अगर ये संगठन अपने मातृ-पितृ राजनीतिक दलों की बात ही दुहराते हैं तो फिर उनके स्वतंत्रचेता होने पर ही संदेह क्यों न किया जाए। वे क्या उनसे स्वतंत्र अपनी कोई राय नहीं बना सकते? 

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भारत में फ़ासिज़्म है या नहीं या क्या क्लासिकल फ़ासिज़्म के सारे लक्षणों के दीखने की सूरत में ही फ़ासिज़्म का आना माना जाएगा, यह एक बहस है। लेकिन हम इस पर विचार नहीं कर रहे। हम यह पूछ रहे हैं कि जे एन यू के लिए क्या भारतीय राज्य के चरित्र की यह बहस इतनी बुनियादी है कि इसपर चुनावी गठबंधन बने या टूट जाए। 

जे एन यू या किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय के लिए दूसरे सवाल ज़्यादा अहम हैं: वे हैं परिसर की स्वायत्तता, अकादमिक स्वतंत्रता, शैक्षणिक गुणवत्ता, शिक्षा का लगातार महँगा होते जाना, उच्च शिक्षा के बजट में कटौती, छात्र राजनीति की स्वतंत्रता, इत्यादि। इसके साथ परिसर में राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा, भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का प्रशासन के द्वारा प्रचार, परिसरों को एक तरह से आर एस एस की शाखा में तब्दील करने के सवाल भी महत्त्वपूर्ण हैं।

विश्वविद्यालय अपनी स्वायत्तता को धीरे धीरे सरकार के हवाले कर रहे हैं। पाठ्यक्रम का निर्णय अब परिसर के भीतर नहीं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में होता है। विभिन्न पाठ्यक्रमों में दाख़िले के मामले में भी विश्वविद्यालयों ने अब अपना अधिकार एक केंद्रीय एजेंसी को सुपुर्द कर दिया है।अध्यापकों की नियुक्ति में योग्यता शैक्षणिक नहीं, आर एस एस के साथ प्रतिबद्धता है। इस तरह के आरोप पहली बार सुनाई पड़े हैं कि नियुक्ति में बड़े पैमाने पर आर्थिक भ्रष्टाचार हुआ है। पिछले 10 साल में हुई नियुक्तियों को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। ख़ुद विद्यार्थी यह प्रश्न उठा रहे हैं।

स्वतंत्रचेता अध्यापकों को प्रताड़ित करने के मामले बढ़ते जा रहे हैं। मेरठ यूनिवर्सिटी की अध्यापिका पर हमेशा के लिए प्रश्न पत्र बनाने पर पाबंदी, सेमिनार आयोजित करने के लिए या नाटक मंचित करने के लिए अध्यापकों का निलंबन या उन्हें दंडित किया जाना, पुस्तकालय में ‘राष्ट्रवादियों’ के लिए आपत्तिजनक किताब के चलते प्राचार्य और अध्यापक का निलंबन: इस तरह की खबरें रोज़ाना आ रही हैं। जे एन यू जैसे परिसर में सेमिनार करने को कमरे नहीं मिल पाते या मेस में बैठकों पर पाबंदी है। परिसर अब पहले के मुक़ाबले अधिक असुरक्षित हो गए हैं। प्रशासन या सरकार की आलोचना करने के लिए विद्यार्थियों की प्रताड़ना अब हर विश्वविद्यालय में आम बात होती जा रही है। 

ये सारे सवाल छात्र संघ के चुनाव के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हैं या यह बहस कि भारत में असली फ़ासिज़्म है या नहीं? क्या वैसे छात्र संगठनों को एक साथ नहीं आना चाहिए जो परिसर से जुड़े इन सवालों पर लगभग एक राय रखते हैं? या फ़ासिज़्म पर बहस एक बहाना है और अलग अलग होने का कारण कुछ और है ? लेकिन यह अनुमान का विषय है और उधर हमें नहीं जाना चाहिए।

क्या इसपर कोई बहस हो सकती है कि आज के वक्त इन सवालों पर संवैधानिक मूल्यों में यक़ीन रखनेवाले संगठनों को साथ आना चाहिए? असली चुनौती तो अब विश्वविद्यालय के स्वरूप को ही बनाए रखने की है। वे स्वतंत्र विचार के परिसर बने रह पाएँगे या नहीं? 

असली बात विचार की स्वतंत्रता है। लेकिन उस बात में दम तभी होगा जब इसकी बात करने वाले छात्र संगठन भी स्वतंत्र हों। अगर वे परिसर के बाहर के राजनीतिक दलों के विद्यार्थी संस्करण ही बन जाएँगे तो मत-स्वतंत्रता के उनके दावे पर कौन विश्वास करेगा? 

यह संभव है कि वे इन राजनीतिक दलों से प्रेरित हों लेकिन अगर हर सवाल पर वे सिर्फ़ उनकी बात को ही दुहराएँगे तो इसे मानना कठिन होगा कि यह उनका अपना आज़ाद खयाल है। उन्हें यह विचार और निष्कर्ष कहीं और से दिया जा रहा है। क्या किसी भी सवाल पर वे अपने राजनीतिक दल से अलग तरीक़े से सोच नहीं सकते? 

अगर वे अपनी स्वतंत्र सत्ता रखें तो हो सकता है वे राजनीतिक दलों को भी कुछ विषयों पर अपना विचार बदलने को प्रेरित कर सकें। युवाओं के सोचने के तरीक़े में ताजगी होना स्वाभाविक है। वह राजनीतिक दलों की विचारधारात्मक रूढ़ियों को तोड़ सकती है। लेकिन ऐसा हमारे परिसर में कोई छात्र संगठन करने का साहस नहीं करता।

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यही बात शिक्षक संगठनों पर भी लागू होती है। राजनीतिक दलों के विद्यार्थी संस्करण होने के कारण परिसर में छात्र राजनीति में विश्वसनीयता की कमी होती जा रही है।वे बाहर की राजनीति में ताज़ा खून नहीं भरते। इसपर सारे ही संगठनों को, विशेषकर, धर्मनिरपेक्षता और जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखनेवाले छात्र संगठनों को विचार करने की ज़रूरत है। यह संभव है कि राजनीतिक दल अनेक हों लेकिन छात्र संगठन एक हो। क्या यह असंभव है?