महाराष्ट्र में इतना हो हल्ला क्यों है? जिन्हें पत्रकार और विश्लेषक प्यार और भीतिपूर्ण आदर से आज के दौर का ‘चाणक्य’ कहने लगे हैं, उन्होंने कहा था, हमारा तरीक़ा है, साम दाम दंड भेद। मुझे पाँच साल पहले 2014 के अंत की याद आई। एक फ़िल्म की। नाम था, हैपी न्यू ईयर। यह 2015 के स्वागत में बनी फ़िल्म थी। 2014 के अंत में यह फ़िल्म बनी थी। हम 2019 के आख़िरी दिनों में हैं। क्या बदला है?
भारतीय जनता पार्टी ने अपना मक़सद बहुत पहले साफ़ कर दिया था। किसी भी तरह सत्ता हासिल करना। जैसे राम के लिए उसके मित्र ने जीत हासिल की, वैसे ही हिंदुओं के लिए भाजपा सत्ता हासिल कर रही है।
‘हैपी न्यू ईयर’ फ़िल्म का राजनीतिक संदेश था- घटियापन और जीत का अटूट रिश्ता। और उसमें राष्ट्रवाद की भूमिका।
“आपकी पसंद और नापसंद पहले से तय है। उसका किसी फ़िल्म के बेहतर होने से कोई संबंध नहीं है। इस एक कारण से हैप्पी न्यू ईयर वाक़ई में साल 2014 की फ़िल्म है। फ़िल्म शुरुआत में ही उन तमाम कारणों पर पानी डाल देती है जिनके सहारे में हम किसी मसले की जटिलता को समझते हैं। यह फ़िल्म अमीर-ग़रीब, सच-झूठ टाइप के तमाम खाँचों को खारिज करते हुए एलान कर देती है कि दुनिया में दो ही टाइप के लोग होते हैं। एक विनर और दूसरा लूज़र यानी एक विजेता और दूसरा पराजित। फ़िल्म समाज का ऐसा ख़तरनाक और सीमित वर्गीकरण करती है जिससे शायद ही कोई संन्यासी सहमत हो या शायद ही कोई माता-पिता। साल 2014 की राजनीति भी तो सबको दो खाँचे में बाँट देती है। एक विजेता की और दूसरा खाँचा पराजित। इसके बीच की सारी बहसें, नैतिकताएँ सब मिट्टी में मिला दी जाती हैं। क्या यह अनायास हुआ होगा कि फ़िल्म के एक सीन में नरेंद्र मोदी का पुतला या कहिये तो डमी टीवी में प्रवेश करता है और कहता है कि अच्छे दिन आने वाले हैं। मोदी भक्त जब इस फ़िल्म को समझेंगे तो पता नहीं उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी।
आप पाठकों और दर्शकों में कई रोज़ाना टेलिविज़न पर तरह-तरह के रियलिटी शो देखते हैं। डांस इंडिया डांस, कौन बनेगा करोड़पति, बिग बॉस, इंडिया का सिंगर। इन सब रियलिटी शो में ग़रीबी और संघर्ष की ऐसी दास्ताँ होती है कि उनके बयाँ करते वक़्त घर में बैठा दर्शक भी रोता है और रियलिटी सेट पर बैठा दर्शक और जज भी। आंसुओं की धार बहती है और माहौल भावुक होते देख कैमरा भी चेहरे को और टाइट फ़्रेम में ले आता है। अगर यह मसाला न हो तो विजेता की जीत बड़ी नहीं मानी जाएगी। ऐसा नहीं है कि इससे पहले भारतीय राजनीति में किसी ने अपनी ग़रीबी और संघर्ष को राजनीतिक पहचान का हिस्सा नहीं बनाया हो। ऐसा भी नहीं कि टीवी या हिन्दी सिनेमा में यह क़िस्सा पहले कभी नहीं आया लेकिन जब हैप्पी न्यू ईयर के तमाम पात्र एक रियलिटी सेट पर जमा होते हैं तो शाहरुख बना चार्ली सबकी स्टोरी तलाशता है। किसी की माँ बीमार है तो किसी को स्कल खोल कर इज़्ज़तदार ज़िंदगी जीने का सपना है तो किसी को अपने बाप का बदला लेना है। चार्ली की टीम ऐसे अनगिनत रियलिटी टीवी के पात्रों की टीम है जिनके दर्द भरी दास्ताँ के वक़्त सब कुछ स्लो मोशन में चलने लगता है।
हो सकता है फराह ख़ान ने आज की फ़िल्म बनाने के लिहाज़ से मौज-मस्ती में मोदी का वह दस सेकेंड का सीन डाल दिया हो लेकिन सिनेमा में सबकुछ यूँ ही नहीं हो जाता।
इसीलिए जब चार्ली की टीम टीवी पर आती है और ऐसी कहानियाँ बयान करती है तो सबके हाथ में नोकिया का मोबाइल फ़ोन उठ जाता है। सब चार्ली की टीम के लिए वोट करने लगते हैं। सब भूल जाते हैं कि ऐसा करते वक़्त उन्होंने देखा ही नहीं कि किसी और भी टीम ने बेहतर प्रदर्शन किया है। हैप्पी न्यू ईयर की कहानी को हैकर, फ़ेसबुक की दोस्ती और फ़र्ज़ी एसएमएस के ज़रिये प्रतियोगिता जीतने की छवियों के बिना नहीं समझ सकते हैं। हैकर ही तो है जो बहुत सारे लाइक्स जुटा लेता है, अनैतिक तरीक़े से चार्ली की टीम को दुबई में होने वाली प्रतियोगिता में जीतने लायक बना देता है। जनता का बड़ा हिस्सा ठगा-सा रह जाता है। वह स्तब्ध है कि जिस टीम ने बेहतर प्रदर्शन किये वह हार गई। जिसे जीतना चाहिए था वह हार गई मगर जिसने सबसे ख़राब प्रदर्शन किये वह टीम तो जीत गई। कहानी के इस फ़्रेम को समझना होगा। आज टीवी की पत्रकारिता, सीरियल के क़िस्सों में प्रतिभा और असली कंटेंट यानी क़िस्से को ढूंढने वाले दर्शक कैसे दरकिनार कर दिये जाते हैं। कोई अदृश्य हैकर है जो सारे कंटेंट को एक सा नीरस बनाकर भी लोकप्रिय करा देता है। हैप्पी न्यू ईयर का मक़सद तो यह नहीं है मगर मुझे इसकी कहानी में यह कहानी दिखने लगी। इसीलिए आज राजनीति में टीवी के ज़रिये लोकप्रियता गढ़ने के खेल को आप स्वाभाविक नहीं मान सकते।चार्ली की टीम लोकप्रिय होने लगती है। फ़िल्म के एक सीन में किसी दफ्तर के कर्मचारी शाहरुख ख़ान का मुखौटा लगाए हुए हैं। आज कल की लोकप्रियता का असर ही कुछ ऐसा है या फिर लोकप्रियता गढ़ी ही इस तरह से जाती है कि सब उसका मुखौटा पहन लें। इस फ़िल्म के शॉट में बार-बार अटलांटिस हाउसिंग सोसायटी का शॉट आता है। हाउसिंग सोसायटी का गेट ही सेट बन गया है। जिसके बाहर हज़ारों की भीड़ है जो कृत्रिम रूप से नारे लगा रही है। ऐसी भीड़ अब आपको हर तरह की रैलियों में दिखने लगी है। यह वह भीड़ है जिसे कोई भी बना सकता है। चार्ली का बाप चोर है। इस इल्ज़ाम का बदला लेने के लिए वह कई लोगों को जुटाता है। हीरा चोरी करने की योजना बनाता है। इसके लिए टीवी के एक पोपुलर शो को हैक कर यानी फ़र्ज़ी तरीक़े से दर्शकों का समर्थन प्राप्त करके दुबई पहुँच जाता है जहाँ हीरा रखा है। आज न कल भारतीय राजनीति का इतिहास लिखते समय रियलिटी टीवी का इतिहास भी लिखा जाएगा। बदला लेने के नाम पर चोरों की मंडली जमा होती है और टीवी के रियलिटी शो को अपना हथियार बनाती है। टीवी का सहारा लेकर चोरी के प्लान को राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया जाता है और जनता समर्थन में आ जाती है। आपकी नैतिकता जो भी हो लेकिन आप जनमत का अनादर नहीं कर सकते। चार्ली की टीम जीतती है तो टीवी का एंकर कहता है ये क्या इंडिया। तुमने किसको चुना।”
“पूरी फ़िल्म समाज और राजनीति में नैतिकता को नकारते हुए आगे बढ़ती है। और एक ऐसे मोड़ पर पहुँचती है जहाँ अनैतिकता राष्ट्रवाद और धर्म में घुलने लगती है।हीरा चोरी कर चार्ली की टीम भागने की योजना के मुताबिक़ एक नाव में जमा होती है। तभी टीम की नायिका को ख़्याल आता है कि जिस डांस प्रतियोगिता में वे हिस्सा लेने आए थे वहाँ नहीं गए तो इंडिया की इज़्ज़त उतर जाएगी। वे मंच पर लौटते हैं और यहाँ रौशनी के ख़िलाफ़ छाया बनकर शाहरुख का बोला संवाद अद्भुत है। शाहरुख ख़ान कहते हैं कि भारत में ठीक है कि दंगा है। अख़बार स्कैम से भरे पड़े हैं लेकिन भारत हमारे लिए भारत है। ... डाकुओं के हाथ में तिरंगा आ जाता है और गाना बजता है राधे राधे बोलो जय कन्हैया लाल की। अचानक चार्ली की टीम की अनैतिकता पर नैतिकता का चादर चढ़ जाता है और जनता इन्हें भारत समझ कर इनके लिए हो हल्ला करने लगती है। दृश्य भावुक बन जाता है। देखने वालों के दिलों दिमाग में इंडिया जाग उठता है। दर्शक एक बार फिर इंडिया की ख़ातिर नैतिकताओं को दरकिनार कर देता है। चार्ली जानता है। इस पब्लिक को अब सिर्फ़ हार और जीत से मतलब है। क्यों हार रहा है और क्यों जीत रहा है उससे मतलब नहीं।”