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जेएनयू कैंपस

विश्वविद्यालय परिसर को विचार मुक्त करने पर आमादा है ! 

बीते शुक्रवार लखनऊ से नासिरूद्दीन हैदर ख़ान ने एक वीडियो के साथ एक वाक्य की खबर भेजी: ये लोग थाने में हैं। मैंने वीडियो खोला। जगह पहचान गया। हमारे दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी  गेट के ठीक बाहर की जगह थी। दुबले पतले ज़्याँ ड्रेज़ को पहचानना मुश्किल न था। वे ख़ामोश खड़े थे। एक महिला बोल रही थीं। बाद में पहचाना, ऋचा सिंह थीं। समझ गया कि ये सब राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून में हेराफेरी  के ख़िलाफ़ जंतर मंतर पर लंबे वक्त से चल रहे धरने में हिस्सा लेने आए होंगे और इस मसले के बारे में गाँव के बाहर रहने वालों को जागरूक करने के ख़याल से दिल्ली विश्वविद्यालय पहुँचे होंगे। 
ज़्याँ अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री हैं। लेकिन ऐसे अवसरों पर वे किसी भी ग्रामीणया आदिवासी से ज़्यादा की हैसियत की माँग नहीं करते। 
कुछ लोग खड़े, बैठे थे। बमुश्किल 15-20 लोग रहे होंगे। मैं आशंका के साथ वीडियो देखता रहा। ऋचा बोलती रहीं। कैमरा घूमते हुए क़रीब खड़े पुलिसवालों को देखने लगा। उस सभा में शामिल लोगों से ज़्यादा उनकी तादाद थी। लेकिन वे ख़ामोश सुन रहे थे। पुरुष और महिला पुलिसकर्मी। इतने ध्यान से कि लगा कि  वो भी सभा मेंशामिल हैं। ऋचा बिना माइक के बोल रही थीं। छात्र मार्ग पर लगातार चलने वाली चिल्ल पों में उनकी आवाज़ कहाँ तक जाती होगी! ख़ैर! कुछ मिनट गुजर जाने के बाद अचानक कैमरे के फ़्रेम में एक पुलिसवाले का प्रवेश होता है। ‘बंद करो यह एन आर ई जी ‘, ‘ यह क्या चल रहा है?’ एक युवक को उसकी तरफ़ बढ़ते देखता हूँ। पुलिसकर्मी उसे पकड़ कर कहता है, ‘बैठाओ इसे बस में। बंद करो।’युवक प्रतिरोध कर रहा है। समझ पाता हूँ कि  कह रहा  कि यूनिवर्सिटी  में बात नहीं करेंगे तो कहाँ करेंगे। कैमरा उत्तेजना में हिल डुल रहा है। वीडियो रुक जाता है।
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मैं जब यह देख रहा हूँ, पकड़े गए सारे लोग थाने से छोड़े जा चुके हैं। ज़्याँ समेत। पुलिस को इससे क्या लेना देना कि  वे सम्मानित अर्थशास्त्री हैं। वे इसके बारे में कुछ बोलते भी तो नहीं। जो औक़ात एक साधारण भारतीय की है, उतने भर  का दावा उनका है। जो उसकी नियति है, वही उनकी भी है। मालूम हुआ, साथ में कोई विदेशी युवक भी था। उससे कई घंटे पूछताछ की गई। ‘कहीं उसे वापस उसके देश न भेज दिया जाए!’,कविता श्रीवास्तव फ़िक्र ज़ाहिर करती हैं। उस पर इल्ज़ाम लगाया जा सकता है कि वह वीज़ा की शर्तों का उल्लंघन कर रहा था।
मैं इस प्रसंग पर सोच रहा था कि एक दूसरा वीडियो किसी ने भेजा। यह फ़ैकल्टी परिसर के भीतर का था। यहाँ पुलिसकर्मी नहीं दिख रहे थे। ये विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मी थे। छात्रों को घसीट रहे थे। एक एक छात्र पर 5-10 सुरक्षाकर्मी। मालूम हुआ कि वे छात्र विश्वविद्यालय के उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना विरोध ज़ाहिर करने इकट्ठा हुए थे जिसके तहत कुछ छात्रों को परिसर और उसके क़रीब बी बी सी की डॉक्यूमेंट्री दिखलाने के कारण दंडित किया गया था। छात्र-छात्राओं को खींचा जा रहा था। मैं सुरक्षाकर्मियों की परेशानी का अनुमान कर रहा था। वे कह सकते हैं, क्या करें! छात्र कहने पर जाने को तैयार न थे।
आर्ट्स फ़ैकल्टी गेट के बाहर दिल्ली पुलिस का अधिकार क्षेत्र शुरू हो जाता है। भीतर विश्वविद्यालय अधिकारियों का। छात्रों या अध्यापकों की जगह सिर्फ़ कक्षाएँ रह गई हैं। परिसर के सभागार का इस्तेमाल अब विश्वविद्यालयअधिकारियों के प्रसाद पर निर्भर है। आम तौर पर  जगहें  मात्र ‘राष्ट्रवादी’ विषयों पर कार्यक्रम के लिए दी जाती हैं। कुछ लोग, संगठन पहले से राष्ट्रवाद के प्रति अपनी शंका के लिए चिह्नित हैं, उन्हें जगह मिलने  का सवाल  नहीं। फिर भी छात्र कुछ न कुछ, किसी न किसी तरह कर ही गुजरते हैं। उन्हें सज़ा देनी पड़ती है ताकि बाक़ी छात्रों को सबक़मिले।
विश्वविद्यालय का तर्क यह था कि  बी बी सी की फ़िल्म दिखलाने से शांति भंग होने का ख़तरा था। समझ के बाहर है कि फ़िल्म कैसे शांति भंग कर सकती थी! जो अधिकारी नहीं कह रहे,वह यह कि फ़िल्म से सरकार की दिमागी शांति भंग हो रही थी। दूसरे यह कि उन्हें मालूम है कि एक राष्ट्रवादी छात्र संगठन ऐसा है जो किसी भी आज़ाद ख़याल गतिविधि पर हमला करता है। पिछले सालों अनेक ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिनमें इस छात्र संगठन ने छात्रों और अध्यापकों पर शारीरिक हमला किया है। लेकिन कभी भी प्रशासन ने उनके ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की। तो क्या उनकी हिंसा ऐसी है जिसे राष्ट्रहित में स्वीकार किया जाना चाहिए?
दिल्ली विश्वविद्यालय में ही मुझे ऐसे छात्र मिले हैं जिन्होंने बतलाया है कि औपचारिक रूप से भी उनके साथ मिलकर चर्चा करने  के कारण उन्हें धमकी दी गई है। लेकिन क्या इसकी शिकायत भी कर सकते हैं? 

यह लिखते समय याद आता है कि इस बार भगत सिंह शहादत दिन के मौक़े पर टाटा सामाजिक अध्ययन संस्थान ने छात्रों को हर्ष मंदर  के व्याख्यान की अनुमति नहीं दी। उसके पहले लखनऊ के विधि विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी उनका व्याख्यान रद्द कर दिया। क्या हर्ष की मौजूदगी से भी शांति भंग का ख़तरा था?


विश्वविद्यालयों के प्रशासकों में इतना नैतिक साहस होना चाहिए कि वे यह स्पष्ट रूप से कह दें कि मसला शांति भंग का नहीं बल्कि राष्ट्रवादी एकमत के शांत जल में एक विमत के कंकड़ से हिलोर उठने का ख़तरा है। उन्हें मालूम है कि इस ऊपरी सहमति को भंग करने के  विवेक का एक स्वर काफ़ी है। मुझे ख़ुद इसका अहसास हुआ जब कुछ दिन पहले आर्ट्स फ़ैकल्टी के गेट पर ‘ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ के एक कार्यक्रम में खड़े संस्कृत के शोध छात्र ने ख़ुद ही पास आकर कहा कि मैं तो पहले इस सरकार का, नरेंद्र मोदी का समर्थक था लेकिन अब तो मुझे इन लोगों की बात  ठीक लगती है। यह अगर एक के साथ हुआ है तो अनेक के साथ भी हो सकता है। 
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सरकार इसीलिए नहीं चाहती कि कोई भिन्न स्वर कहीं सुनाई दे। छात्र सोचने वाले दिमाग़ भी हैं। इन दिमाग़ों में, जिन्हें सरकार राष्ट्रवाद से अनुकूलित करना चाहती है, इन भिन्न स्वरों से ख़लल पैदा हो सकता है। नागरिकता  के नए क़ानून  कोले कर भी जो राष्ट्रीय सहमति थी, उसे परिसरों में ही चुनौती मिली थी। 
सरकार यह ख़लल नहीं चाहती। विश्वविद्यालयों के प्रशासक आज की सरकार के प्रतिनिधि के रूप  काम कर रहे हैं। इसलिए वे हर लाज लिहाज़ छोड़कर विश्वविद्यालय परिसर को विचार मुक्त करने पर आमादा हैं। लेकिन कब तक?
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अपूर्वानंद
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