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जो समाज अपराध को अपराध न कहे, उसका पतन निश्चित है!

अमेरिका हो या यूरोप, हिंसा से कोई देश मुक्त नहीं, घृणा से भी नहीं। वह घृणा धर्म आधारित भी होती है, नस्ली भी और दूसरी क़िस्म की। कई बार हमें हिंसा का कारण भी नहीं मालूम होता। लेकिन उन देशों में हिंसा की हर ऐसी घटना के बाद जिनसे ये कारण जुड़े हुए हैं, देश के नेता, शासक देश को संबोधित करते हैं, उस हिंसा को राजकीय तौर पर अस्वीकार करते हैं।
वे यह नहीं कहते कि चूँकि हिंसा में राज्य की कोई संस्था शामिल नहीं, उनकी ज़िम्मेवारी नहीं है कि वे उस पर बोलें। यह तर्क नहीं देते कि ये इक्का-दुक्का घटनाएँ हैं और अगर इन पर सरकार या राज्य के प्रमुख ध्यान देते रहे तो फिर वे काम ही नहीं कर पाएँगे। 
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इतना ही नहीं, वे हिंसा के प्रकार को भी चिह्नित करते हैं। उसकी वजह छिपाते नहीं। कनाडा में जब एक श्वेत व्यक्ति ने एक पाकिस्तानी मूल के परिवार को कुचल दिया तो कनाडा के प्रधानमंत्री चुप नहीं रहे। उन्होंने इस सामूहिक हत्याकांड की निंदा की, उसपर तकलीफ़ ज़ाहिर की। यह नहीं कहा कि यह एक सिरफिरे आदमी का काम है। साफ़ कहा कि यह कनाडा में पल रही घृणा के कारण हुई हिंसा है। उन्होंने कहा कि यह घृणा एक लंबी प्रक्रिया से शारीरिक हिंसा में बदलती है। 
हमारे घरों में अश्वेत, मुसलमान या प्रवासियों पर जिन चुटकुलों पर हम हँसते हैं, जो फब्तियाँ कसते हैं या उनके लिए जिस नफ़रत भरी ज़ुबान का इस्तेमाल करते हैं, वह धीरे धीरे घृणा को गहरा करती है और फिर वह शारीरिक हिंसा में जगह जगह प्रकट होती है। जैसा कनाडा के प्रधानमंत्री ने किया, वैसा ही न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री ने किया जब एक मस्जिद पर हमला हुआ। वे ख़ुद उस मस्जिद तक गईं।वहाँ सामूहिक नमाज़ में हिस्सा लिया और मुसलमानों के साथ एकजुटता ज़ाहिर करने के लिए सर को ढँका भी।
अमेरिका में अक्सर राष्ट्रपति या उनके प्रतिनिधि हिंसा की हर वारदात के बाद देश को संबोधित करते हैं। थकते नहीं, ऊबते नहीं।
इन सारे देशों के ज़िम्मेदार राजनेता अपने समाज में व्याप्त घृणा या हिंसा से मुँह नहीं चुराते। वे बार बार यह बतलाते हैं कि घृणा और हिंसा की आधुनिक जनतंत्र में कोई जगह नहीं।वे समाज को भी सभ्य आचरण की याद दिलाते हैं।  
कहते हम भले यह हों कि जिस पथ महाजन जाते हैं शेष जन भी वही राह चुनते हैं लेकिन आज के भारत में जनता के एक हिस्से के साथ हिंसा से शासक विचलित नहीं होता। वह एकाग्रचित्त शासन में लगा रहता है।हिंसा बड़ी हो या छोटी, शासक को जनकल्याण के पथ पर चलते रहने से पल भर भी रोक नहीं सकती।हिंसा चाहे मणिपुर  की हो जो 4 महीने से चल रही है।लेकिन प्रधानमंत्री, सरकार के दूसरे मंत्रियों को देखकर आप अन्दाज़ नहीं कर सकते कि देश के एक हिस्से में लाखों भारतवासी महीनों से अपनी नींद चैन गँवा चुके हैं।

ऐसी सरकार से यह उम्मीद करना मूर्खता है कि वह उत्तर प्रदेश के एक गाँव में एक मुसलमान बच्चे के साथ की गई हिंसा पर कुछ बोलेगी। फिर भी यह माँग की ही जानी चाहिए। यह उम्मीद सरकार से बनी रहनी चाहिए अगर हम जनतांत्रिक समाज और राज्य की कल्पना में अभी भी विश्वास करते हैं। हमें इसका भी अहसास बना होना चाहिए कि वह क्या चीज़ है जो अब राजकीय स्वभाव से ग़ायब हो चुकी है और किसे बहाल किया जाना है।


यह अपेक्षा और माँग वह समाज कर सकता है जो ख़ुद घृणा और हिंसा को अस्वीकार करे। मुज़फ़्फ़रनगर में एक निजी स्कूल की अध्यापिका तृप्ता त्यागी ने एक मुसलमान बच्चे को क्लास के दूसरे बच्चों से पिटवाया। इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर उठे रोष के ज्वार के कारण राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग सक्रिय होने को बाध्य हुआ। उसी के कारण उत्तर प्रदेश की पुलिस ने घटना के इतने दिन बाद मामला दर्ज किया। लेकिन धाराएँ हल्की लगाई गईं। उत्तर प्रदेश सरकार अब तक ख़ामोश है। संघीय सरकार के बाल अधिकार मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, प्रधानमंत्री: हर तरफ़ सिर्फ़ खामोशी है।अध्यापिका को इसका यक़ीन है कि उसे कोई सज़ा नहीं होगी क्योंकि उसने कुछ ग़लत नहीं किया है।
तृप्ता त्यागी के  इस इत्मीनान की वजह क्या है? इस घटना की ख़बर मिलते ही भारतीय जनता पार्टी के नेता बच्चे के साथ हिंसा करनेवाली तृप्ता त्यागी के साथ सहानुभूति जतलाने गाँव पहुँच गए। साथ ही त्यागी समाज के लोग भी। उनके अलावा नरेश टिकैत जैसे लोग भी पहुँचे जिन्हें उनके अपने समुदाय का नेता माना जाता है। ये सब मिलकर तृप्ता त्यागी के अपराध पर लीपापोती करने में जुट गए हैं।बड़े मीडिया ने भी तृप्ता त्यागी को बेचारी औरत के रूप में चित्रित करना शुरू कर दिया है।टिकैत ने साफ़ साफ़ कहा कि उनका इतना ज़ोर तो है ही कि वे त्यागी के ख़िलाफ़ एफ़आईआर रद्द करवा दें।
उस परिवार को भी कहा जा रहा है कि क्या वह इतनी छोटी सी बात पर गाँव का सद्भाव बिगाड़ देगा।मानो कोई सद्भाव बचा हुआ है! लेकिन वह परिवार इस सलाह में छिपी धमकी को वह समझता है।उसे आगे जीना है। वह इखलाक़ के परिवार का हश्र देख चुका है, हाथरस में बलात्कार के बाद मार डाली गई दलित औरत के परिवार की हालत देख रहा है।उसे मालूम है कि अपने बच्चे के लिए इंसाफ़ की लड़ाई में वह अकेला रहेगा और हिंदू समाज उसका दुश्मन हो जाएगा। 
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इसलिए हम निश्चिंत हो सकते हैं कि यह मामला रफ़ा दफ़ा हो जाएगा। लेकिन वह समाज कितना बीमार और कमज़ोर है जो अपराध को अपराध कहने से इनकार करता है और जिसमें न्याय का न तो बोध बचा है, न उसकी इच्छा। जो अपराधियों को गले लगाकर इंसाफ़ माँगनेवालों पर हमला कर सकता है। दादरी में इखलाक़ के हत्यारों के पक्ष में जन समर्थन या कठुआ में छोटी बच्ची के हत्यारों के पक्ष में जन प्रदर्शन, हाथरस में बलात्कारियों के पक्ष में  गोलबंदी के अलावा बीसियों ऐसे मौक़े हैं जब हिंदू समाज के कुछ लोग अपने बीच के अपराधियों के पक्ष में उठ खड़े हुए हैं।
जो समाज अपराध को अपराध न कहे और इंसाफ़ के रास्ते में रुकावट बनकर खड़ा हो जाए, उसके पतन को कोई रोक नहीं सकता। उसे अपनी संख्या के कारण बल का भ्रम बना रहेगा लेकिन वह नैतिक रूप से खोखला ज़िंदा लाश ही रहेगा। भारत के एक तबके को तय करना है कि क्या वे न्यायबोध विहीन समाज के रूप में दया और हिक़ारत के पात्र बनना चाहते हैं या ख़ुद को बचाने में उनकी कोई रुचि है?
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अपूर्वानंद
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