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मेरे घर आके तो देखो 

‘मेरे घर आके तो देखो’, शबनम हाशमी ने कुछ रोज़ पहले एक अभियान का प्रस्ताव दिया। क्या एक दूसरे को अपने घर आने की दावत देना एक अभियान बनाया जा सकता है? हम सब अपने रिश्तेदारों, अपने दोस्तों के घर तो आते जाते ही रहते हैं! फिर इसे एक मुहिम क्यों बनाना? क्या अपने से अजनबी लोगों को अपने घर आने का न्योता दिया जा सकता है? 
क्या यह इस समाज में एक दूसरे से बढ़ते जा रहे अपरिचय को दूर करने का तरीक़ा हो सकता है? इसमें कुछ अटपटापन ज़रूर है, लेकिन क्या यह आज की सबसे बड़ी ज़रूरत नहीं कि इस देश के लोग एक दूसरे को जानें? और घर से ज़्यादा बेहतर जगह और क्या हो सकती है जहाँ आप किसी को भी उसके सबसे स्वाभाविक रूप में देख सकते हैं। हालाँकि किसी और के घर आने पर हम अपने घर को, बैठक को थोड़ा सँवारते हैं। कुछ तकल्लुफ़ तो आ ही जाती है। जब कोई घर आता है तो हम ख़ुद को अपने सर्वोत्तम रूप में पेश करना चाहते हैं। यह किसी से  कुछ छुपाना नहीं है।जब हम ख़ुद को, अपने घर को किसी के लिए सजाते-सँवारते हैं तो दरअसल उसका सम्मान कर रहे होते हैं। 
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अपने घर हम हर किसी को नहीं बुलाते। घर के हर हिस्से में भी हर किसी का स्वागत नहीं होता। कौन आपकी बैठक तक ही रह सकता है और कौन आपकी रसोई में आपके साथ पूरियाँ तलने में हाथ बँटा सकता है? यह सफ़र भी धीरे धीरे होता है।

हम एक दूसरे को आहिस्ता-आहिस्ता जानते हैं। उसके लिए ज़रूरी है दूसरे को जानने की इच्छा। अजनबी को अपना बनाने की इच्छा ही आदमी में आदमीयत पैदा करती है।


अजनबीयत स्वाभाविक है। हम सबको नहीं जान सकते। लेकिन जानना चाहते हैं। अजनबीयत उत्सुकता भी पैदा कर सकती है और आशंका भी। एक भाव सद्भाव पैदा कर सकता है, दूसरा दूरी, घृणा और हिंसा। किसी समाज को इस बात से पहचाना जा सकता है कि वह अजनबीयत से जुड़े किस भाव को अपनाता और गहरा करता है। उत्सुकता को या आशंका को? 
‘मेरे घर आके तो देखो!’ इस बुलावे में अजनबी के प्रति उत्सुकता के भाव को जगाने की कोशिश है। तुम्हारा मेरे बारे में क्या ख़याल है? क्या तुम मुझे जानते भी हो? जब मैं तुम्हें अपने घर बुलाता हूँ तो तुम्हें ख़ुद में शामिल करना चाहता हूँ। ख़ुद को, थोड़ा ही सही, तुम्हारे सामने खोलना चाहता हूँ। जब मैं तुम्हें अपने घर बुलाती हूँ तो तुम पर भरोसा करती हूँ। इस न्योते में ही यह यक़ीन भी है कि इस दावत को क़बूल किया जाएगा।
जानना जासूस की तरह नहीं, दोस्त की तरह। जो ज़िद नहीं करता कि उसके सामने आपके वजूद का हर हिस्सा फ़ौरन रोशन कर दिया जाए। जो इंतज़ार कर सकता है। 
कौन किसको बुलाता है? कौन किसके घर जाना चाहती है? मकान को मकानियत कैसे मिलती है और एक मकान में घरूपन कब आता है? उसके लोगों से। जब मैं आपको अपने घर बुलाता हूँ तो अपने पास बुलाता हूँ। घर को देखो यानी मुझे देखो।  

किसी को अपना मेहमान करना इतना आसान नहीं। वैसे ही हर कोई मेजबान भी नहीं हो सकता। दोनों में किसी से जुड़ने की इच्छा होनी चाहिए।


कोई भी घर सिर्फ़ उस घर के लोगों से ही पूरा नहीं होता। वह घर, जिसमें कभी कोई मेहमान न आए, कमतर माना जाता है।आख़िर वह कैसा घर जिसमें कभी घरवालों के अलावा कोई और नहीं आता जाता? इसलिए जब हम गृह प्रवेश करते हैं तो सिर्फ़ घरवालों से वह पूरा नहीं होता। हम जिस पड़ोस में जाते हैं, वहाँ रहनेवालों को अपने साथ बुलाते हैं। इस तरह अजनबियों के बीच जान पहचान बनाने का सिलसिला शुरू होता है।
देश को एक बड़े घर के तौर पर अक्सर पेश किया जाता है। लेकिन शायद वह एक बड़ा पड़ोस है। यह कभी भी पूरी तरह आख़िरी तौर पर बस जाए, ऐसा नहीं।अजनबी आते रहते हैं और पड़ोसियों में बदलते जाते हैं। पड़ोस की शक्ल भी बदलती जाती है।  

देश या देस या वतन में घर या पड़ोस की कैफ़ियत होनी चाहिए। उसमें खुलापन होना चाहिए जैसे वह हर किसी गुजरने वाले को दावत दे रहा हो।


76 साल की आज़ादी के बाद आज अगर इस मुल्क में अजनबीयत बढ़ती जा रही है, अगर हर घर आशंका का एक द्वीप मालूम पड़ रहा है, अगर बंद दरवाज़ों को देखकर यह लगने लगा है कि उनके पीछे राह चलनेवालों के ख़िलाफ़ साज़िश रची जा रही है तो बेहतर है कि दरवाज़े खोल दिए जाएँ। राह चलनेवालों को  भीतर आने की दावत दी जाए।
‘मेरे घर आके तो देखो’: मैं तुमसे अलग हूँ, लेकिन कुछ तुम्हारी तरह की भी हूँ। मेरे घर में तुम्हें वह दिखेगा जो शायद तुम्हारे घर में न हो। मेरे घर की गंध भी अलग होगी और उसमें रंग भी कुछ अलहदा होंगे। हो सकता है, कुछ हो जो आपको अटपटा लगे लेकिन वह सिर्फ़ मेरे आपसे अलग होने का सबूत है। आप उसके आदी नहीं इस वजह से आपको वह अटपटा जान पड़ता है। कुछ घरों की दीवारें बिलकुल सादा होंगी और कुछ तस्वीरों से अटी हुई। किसी बैठक में पौधे ही पौधे होंगे और किसी के दरवाज़े पर कोई मूरत, कोई चिड़िया, कोई निशान, किसी रंग का टीका, कोई घंटी!
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पहली बार किसी से मिलना, किसी के घर जाना आसान नहीं। तुरंत एक दूसरे पर खुल जाना भी मुश्किल है। लेकिन कभी तो बात शुरू करना होती है, कभी पहली बार ही किसी के घर जाना होता है। पहली बार के बाद ही दूसरी और तीसरी बार का मौक़ा है। तकल्लुफ़ बुरी चीज़ नहीं। तकल्लुफ़ भरी हिचकिचाहट से इत्मीनान का सफ़र शुरू करने का मतलब है मुल्क तामीर करना। 
तो हम किसी को मेहमान करें, किसी के मेहमान हों।  
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अपूर्वानंद
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