द ग्रेट शम्सुद्दीन फैमिली फिल्म का पोस्टर। फिल्म का डायरेक्शन अनुषा रिज़वी का है।
एक मुसलमान परिवार की आशंकाओं, चिंताओं और उसकी उम्मीदों; परंपरा और आधुनिकता के बीच की उसकी कश्मकश, अपनी पहचान के साथ नए रिश्तों को बुनने की उसकी कामना: इन सबको अगर एक साथ आपको देखना हो तो अनूशा रिज़वी की फ़िल्म ‘द ग्रेट शम्सुद्दीन फ़ैमिली’ ज़रूर देखिए।यह फ़िल्म एक हिंदुस्तानी मुसलमान के अपने मुल्क से उसके रिश्ते की पेचीदगी की कहानी है।यह भी बतलाती है कि इस देश के साथ उसके लगाव के तार पर लगातार चोट पड़ रही है लेकिन वह उसे थामे हुए है।
फ़िल्म हिंदुस्तानी मुसलमानों की रोज़ाना ज़िंदगी में जो अनिश्चितता आ गई है उसे बहुत सूक्ष्मता से चित्रित करती है। वह अनिश्चितता उसकी ख़ुद की पैदा की हुई नहीं। इससे उनके भीतर ख़ास तरह की बेचैनी घर कर गई है जिसे समझना किसी ग़ैर मुसलमान, ख़ासकर हिंदुओं के लिए प्रायः कठिन होता है।मुसलमान इसके साथ अपनी ज़िंदगी जीने के आदी हो गए हैं।लेकिन यह भी सच है वह अनिश्चितता ज़िंदगी की उनकी ललक को ख़त्म नहीं कर पाई है।
आम ज़ुबान में अनूशा रिज़वी की इस फ़िल्म को कॉमेडी या इसे ‘फ़ैमिली ड्रामा’ कह दिया जा सकता है।ज़रूर यह एक परिवार की कहानी है जिससे प्रायः सारे मुसलमानों को जुड़ाव महसूस होगा। लेकिन इसे देखना ज़रूरी हिंदुओं के लिए है जिनमें से अधिकतर के लिए मुसलमान अफ़वाहों में ही हैं।
क़िस्सा अकेली रह रही एक ख़ासी शिक्षित मुसलमान औरत के घर के एक रोज़ का है। कैमरा प्रायः एक मकान के भीतर अलग-अलग कोनों में घूमता है। यह अकेली मुसलमान युवती बानी अमरीका में काम खोज रही है। उसके लिए वह प्रस्ताव तैयार करने को वह बैठी है जिसे भेजने को उसके पास कुछ ही घंटे हैं। लेकिन वह यह नहीं कर पाती क्योंकि उसके घर में एक एक करके अजीबोग़रीब तरीक़े से उसके दोस्त, उसकी बहनें और उसकी माँ और ख़ालाएँ आ धमकती हैं। एक बहन जिसका तलाक़ हो गया है और मेहर में मिली नक़दी जमा कराने में अपनी बहन बानी की मदद चाहती है। फिर माँ और उसकी बहन और फिर उनकी भाभी जो उमरे पर जाने की तैयारी कर रही हैं।एक ख़ब्तुलहवास दोस्त जो अपनी छात्रा के साथ अपने ज्ञान की धाक के सहारे इश्क़ लड़ा रहा है। और आख़ीर में उसका एक भाई अपनी हिंदू माशूक़ा के साथ। वे निकले थे शादी करने को लेकिन मैरेज-रजिस्ट्रार को दिल का दौरा पड़ जाने की वजह से शादी की रजिस्ट्री नहीं हो पाई और अब वे पनाह लेने को बानी के घर में हैं।आज के दिन यह कितना ख़तरनाक है, यह सबको मालूम है लेकिन मोहब्बत तो अख़िरकार मोहब्बत ही है।
इन उलझनों से निकाल सकते हैं सबसे बड़ी बहन के शौहर जो गुड़गाँव से दिल्ली के बीच जाम में फँसे हैं।उनका इंतज़ार करते हुए उनकी बीवी को गुड़गाँव-दिल्ली के रास्ते में एक गाड़ी में आग लगा दिए जाने की ख़बर मिलती है। इस ख़बर से एक आशंका और तनाव पैदा होता है जिसे मुसलमान ही बेहतर समझ सकते हैं।इस तनाव के बीच शम्सुद्दीन खानदान की बूढ़ियाँ शादी को तैयार हो जाती हैं।
सब बानी की शरण में आए हैं कि वह उन्हें उनके संकट से निकाल दे।लेकिन उसका भी एक संकट है। उसे कौन समझता है? वह अमरीका क्यों जाना चाहती है? यह सवाल हवा में तैरता रहता है। उसकी बेचैनी से बिल्कुल बेख़बर उसकी अम्माँ, ख़ालाएँ उमरे की तैयारी में हैं और फिर अपने घर के लड़के की हिंदू लड़की से शादी के गुनाह से परेशान।बानी के बाहर जाने की वजह का सवाल रह-रह कर फ़िल्म में उठता है।लेकिन बानी आख़िरकार अपना प्रस्ताव पूरा नहीं कर पाती है।
उसकी बहन हुमैरा बानी के अमरीका जाने के फैसले से कतई खुश नहीं। लेकिन अपने शौहर के आने के इंतज़ार में वह एक गाड़ी के जलाए जाने की ख़बर पढ़ती है तो वह और बानी किसी दुर्घटना की आशंका से ग्रस्त हो उठती हैं।उनकी इस आशंका को भी मुसलमान अच्छी तरह समझ सकते हैं। लेकिन क्या हिंदू भी इस आशंका को समझ सकेंगे? इस आशंका और तनाव के क्षण में हुमैरा बानी को कहती है वह अपनी अमरीका के लिए अपनी दरख्वास्त पूरी कर ले।
यह एक लम्हा है जब हमें लगा कि फ़िल्म ख़त्म हो सकती है। लेकिन फ़िल्म आगे बढ़ती है।शादी की तैयारी में गीत के बीच शौकत भाई आ जाते हैं।उस वक्त हुमैरा के चेहरे का भाव इस फ़िल्म के कुछ यादगार दृश्यों में एक है।
बूढ़ी औरतें अपने पूर्वग्रहों को बिना झिझक ज़ाहिर करती हैं।उनकी आपस की झड़प और नोकझोंक में हर मुसलमान को अपना घर नज़र आएगा।इन औरतों को अपनी बेटियों से मुहब्बत तो है लेकिन उनके तौर तरीकों को लेकर वे ख़ासी शंकालु हैं। अपनी बुजुर्ग औरतों से लड़ती,उनसे झुंझलाती, फिर उनके साथ रहने की जुगत निकालती नई पीढ़ी की मुसलमान लड़कियाँ सिर्फ़ मुसलमान नहीं हैं लेकिन मुसलमान वे हैं।
यह फ़िल्म अपनी पहचान और इस वतन पर दावेदारी के विश्वास के साथ अपने वजूद की अनिश्चितता से जूझते मुसलमानों की कहानी है।लेकिन बिना ख़ुद को बेचारा दिखलाए।
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फ़िल्म में हास्य का भरपूर इस्तेमाल है लेकिन वह कहीं हल्का नहीं होता। फ़िल्म इत्तफ़ाक़ों का सिलसिला है लेकिन सब विश्वसनीय। सबका अभिनय ठीक फ़िल्म की तरह सटीक है। हर चरित्र अपनी खासियत में उभरती है।
फ़िल्म देखने के बाद कुछ भी तुरंत कहना मुश्किल था। फ़िल्म क्या है: एक दिल है आशंका से काँपता और उम्मीद में धड़कता।