जेएनयू में छात्र आंदोलन का फाइल फोटो
मोहनदास करमचंद गांधी किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर न थे।न जवाहरलाल नेहरू। न ही भीमराव अंबेडकर। बालगंगाधर तिलक भी कहीं नहीं पढ़ाते थे।गोखले भी नहीं।पेरियार साहब भी अध्यापक न थे।लेकिन विश्वविद्यालयों, स्कूलों में गांधीवादी, अम्बेडकरवादी या पेरियार के अनुयायी अनेक थे।शिक्षक भी और छात्र भी। अगर भारत से बाहर निगाह ले जाएँ तो सिमोन द बुआ की ख्याति अध्यापिका होने के कारण नहीं थी।लेखक, दार्शनिक और नारीवादी चिंतक के रूप में ही उन्होंने समाज पर प्रभाव डाला। मार्क्स का जीवन पुस्तकालयों में ज़रूर बीता लेकिन अध्यापक वे न बन पाए।लेनिन कहीं पढ़ाते नहीं थे। हो ची मिन्ह भी नहीं और न मार्टिन लूथर किंग या नेल्सन मांडेला। चारु मजूमदार भी बंगाल के किसी कॉलेज में न थे।
फिर लाखों, करोड़ों की संख्या में उनके अनुयायी कैसे बन गए ? क्या आज़ादी के आंदोलन के दौरान जो लोग सड़क पर थे, वे कॉलेजों से निकलकर सड़क पर आ गए थे? भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद क्या अपने कॉलेज की पैदाइश थे? क्या राम मनोहर लोहिया के विचारों की शिक्षा स्कूलों और कॉलेजों की कक्षाओं में दी गई थी?
और भी नाम हैं। क्या जर्मनी के कॉलेजों ने फ़ासीवाद की शिक्षा दी थी? या अमरीका के शिक्षा संस्थाओं ने डॉनल्ड ट्रम्प की विचारधारा की शिक्षा दी? या क्या भारत में ही शिक्षा संस्थानों ने हिंदुत्ववाद या सावरकरवाद की शिक्षा दी कि आज हम प्रायः हिंदू घर में एक सावरकरवादी देखते हैं?
भारत में कोई 60 साल तक उस विचारधारा का शासन रहा जिसे आज तिरस्कारपूर्वक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा कहते हैं। माना जाना चाहिए कि अधिकतर अध्यापक इसी विचार के माननेवाले होंगे। फिर आज यह कैसे हुआ कि आज भारत में हिंदुओं की एक प्रभावशाली संख्या धर्मनिरपेक्षता की विरोधी हो गई?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को तो वामपंथी विचारधारा का गढ़ ही माना जाता रहा है। लेकिन स्थापना के बाद से दशकों तक ‘वामपंथी’ अध्यापकों की पीढ़ियों के कारण कितने वामपंथी कार्यकर्ता जे एन यू से निकले? अगर तुलना करें तो जे एन यू ने नौकरशाह और पुलिस अधिकारी अधिक पैदा किए।और उनकी विचारधारा जो भी हो, उनके सबसे सक्रिय जीवनकाल में शायद ही वह किसी रूप में प्रभावी रही होगी। हाँ! जे एन यू से पढ़कर निकले स्नातक पूरे देश और विदेश में भी अध्यापन ज़रूर कर रहे हैं।लेकिन उन्होंने भी जितने शोधपत्र और किताबें लिखी होंगी, उतने वामपंथी कार्यकर्ता न पैदा किए होंगे।
और आज भी जब पिछले 12 साल से देश में हिंदुत्ववादी विचारधारा का राज चल रहा है और दिल्ली विश्वविद्यालय या जे एन यू या जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इसका ध्यान रखा जा रहा है कि राष्ट्रवादी अध्यापकों की ही बहाली हो तब भी क्या निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है इस दरम्यान विद्यार्थियों की जो पीढ़ियाँ निकलेंगी, वे इनके प्रभाव से राष्ट्रवादी बन कर निकलेंगी?
1974 में हज़ारों हज़ार की संख्या में विद्यार्थी जे पी आंदोलन में शामिल हुए।कहना चाहिए, अपने अध्यापकों के बावजूद।कई बार अध्यापकों की चेतावनी के बावजूद।अध्यापकों में से भी कुछ इस आंदोलन में गए लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। पिछली सदी के सातवें दशक में ज़रूर कई शिक्षा संस्थानों के अत्यंत मेधावी छात्र पढ़ाई छोड़कर जंगलों में गए।
माओ को अपना चेयरमैन घोषित किया। लेकिन विद्यार्थियों की कुल संख्या के मुक़ाबले ऐसे सिरफिरे विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम थी। यह भी एक तथ्य है कि अपनी कक्षाओं के सबसे प्रतिभावान विद्यार्थी ही इस दिशा में मुड़े।
विश्वविद्यालयों और विचारों के बीच रिश्ता किस प्रकार का होता है? क्या विश्वविद्यालय विचार पैदा करते हैं जो समाज को अच्छे या बुरे तरीक़े से प्रभावित करते हैं? इस सवाल पर हम सतही तरीक़े से ही सोचने के आदी रहे हैं। प्रायः विश्वविद्यालयों के असर को बढ़ा चढ़ाकर देखने की आदत रही है। अध्यापक भी इस भ्रम को बनाए रखना चाहते हैं कि संभवतः वे विद्यार्थियों के सोचने के तरीक़े पर असर डालते हैं। सत्ताएँ भी एक डर में जीती रहती हैं कि ये संस्थान नौजवानों को सत्ता विरोधी बना रहे हैं।
विचार प्रायः बाहर से विश्वविद्यालयों में प्रवेश करते हैं। सबसे ताज़ा उदाहरण ‘सामाजिक न्याय’ के विचार का है।उसके पहले का उदाहरण नक्सलवाद का है। हिंदुत्ववाद ने भी विश्वविद्यालयों में बाहर से ही प्रवेश किया है। ये विचार इन संस्थानों और कक्षाओं पर दबाव डालते हैं।
क्या शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का प्रस्ताव भीतर से आया या बाहर से? अगर राजनीति और समाज का दबाव न होता तो शायद ही विश्वविद्यालय इसे लागू करते।हमें याद है कि भीतर इसे लेकर कितना प्रतिरोध था। वैसे ही अन्य विचारों या विचारधाराओं के बारे में कहा जा सकता है। अध्यापक तरह तरह के होते रहे हैं। 1947 के बाद से परिसरों में धर्मनिरपेक्ष, संप्रदायवादी, वामपंथी, उदारपंथी, नारीवादी और पितृसत्तावादी: हर प्रकार के अध्यापक रहे हैं। लेकिन इनका प्रभाव इनकी संख्या के अनुपात में कितना रहा है?
ऐसा नहीं कि विद्यार्थी अध्यापकों से प्रभावित नहीं होते।लेकिन वह जितना उनकी कक्षा के कारण नहीं, उतना उनके निजी व्यवहार के कारण होता है। विद्यार्थी यह तो देखते ही हैं कि अध्यापक अपनी कक्षा के प्रति कितने गंभीर हैं, वे उनके निजी जीवन को भी देखते रहते हैं। अध्यापकों की विद्वत्ता, अध्यापन शैली के साथ साथ विद्यार्थियों के साथ उनके व्यवहार का भी असर पड़ता है।
प्रायः कुछ अध्यापकों के इर्द गिर्द छात्र मंडराते पाए जाते हैं। इससे उन्हें भ्रम हो स्कता है कि छात्र उनके विचारों से प्रभावित हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि विद्यार्थी उनकी उपयोगिता के कारण उनके आस पास बने रहते हैं। वे पीएच डी में दाख़िले में कितने मददगार हो सकते हैं या आगे नौकरी में उनसे कितनी मदद मिल सकती है: ये प्रश्न कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं।
कई मर्तबा यह भी होता है कि ठीक इसी कारण विद्यार्थियों में न सिर्फ़ उनके प्रति बल्कि उनके विचारों के प्रति भी वितृष्णा पैदा हो जाती है। क्योंकि जो उनसे लाभान्वित हुए और जो नहीं हुए , वे यह तो देखते ही हैं कि वे अपनी स्थिति का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहे हैं। जिन्हें लाभ मिला है, उनकी निगाह में भी उनकी इज्जत घाट जाती है।
जब विद्यार्थियों को तात्कालिक कारणों से अपने विचार को दबाकर किसी और विचारधारा के प्रति वफ़ादारी दिखलानी होती है तो वह उस विचारधारा का मित्र नहीं बनता।जितने दिन तक वह सांसारिक उद्देश्यों में उपयोगी बनी रहती है, वे भी उसके साथ रहते हैं। जैसे ही वह उपयोगिता खोने लगती है, उनके जीवन में उसका स्थान समाप्त हो जाता है।
इतिहास की सीख यह है कि शिक्षा संस्थानों को किसी एक विचारधारा का प्रचार केंद्र बना देने से उस विचारधारा की दीर्घजीविता की गारंटी नहीं होती। सोवियत संघ 70 साल में ढह गया। अमरीका में मकार्थी इतिहास की ही चीज़ बनकर रह गया है।
इतिहास की सीख यही है कि उससे कोई सत्ता नहीं सीखती। कवि कह गया है कि बदलाव के लिए साहित्य पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा करना मूर्खता है।वैसे ही यह कहा जा सकता है कि समाज में बदलाव के लिए विश्वविद्यालयों पर भरोसा करना मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं।