पश्चिम बंगाल के इस बार के विधानसभा चुनाव में जंगल महल इलाके की भूमिका बेहद अहम होगी। इस इलाके में माओवाद को ख़त्म करने का श्रेय ममता बनर्जी को मिला था और इसी की बदौलत तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में यहां काफी कामयाबी मिली थी। लेकिन बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कामयाबी और इलाके के मजबूत नेता शुभेंदु अधिकारी के भगवा खेमे में शामिल होने की वजह से समीकरण बदल गए हैं।

शुभेंदु के जाने से झटका 

पश्चिम बंगाल में सत्ता का रास्ता जंगल महल से हो कर गुजरता है। जंगल महल में राज्य के बांकुड़ा, पुरुलिया, पश्चिम मेदिनीपुर और झाड़ग्राम जिले शामिल हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जंगल महल इलाके में शानदार प्रदर्शन किया था। अब मेदिनीपुर के बड़े नेता समझे जाने वाले शुभेंदु अधिकारी के बीजेपी में आने से टीएमसी को भारी झटका लगा है। 
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शुभेंदु की वजह से ही टीएमसी ने 2016 में पश्चिमी मेदिनीपुर जिले की सभी 16 विधानसभा सीटें जीत ली थीं। लेकिन 2021 में चुनावी समीकरण तेजी से बदले हैं। इस इलाके की छह में पांच लोकसभा सीटें बीजेपी के कब्जे में हैं। ममता के खाते में केवल एक सीट है।

2019 में रहा बीजेपी का दबदबा

इस इलाके में विधानसभा की 40 सीटें हैं। वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी को इस इलाके में 31 सीटें मिली थीं जबकि बीजेपी को महज एक सीट से ही संतोष करना पड़ा था। तब कांग्रेस और लेफ्ट को आठ सीटें मिली थीं। लेकिन तीन साल बाद वर्ष 2019 के चुनाव में टीएमसी को जहां महज दस सीटों पर ही बढ़त मिली थी वहीं बीजेपी को मिलने वाली बढ़त तीस सीटों तक पहुंच गई और कांग्रेस और लेफ्ट का तो सूपड़ा ही साफ हो गया।
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2011 में जीती थी टीएमसी 

वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में भी इस इलाके में टीएमसी को जबरदस्त कामयाबी मिली थी। सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी सरकार ने जहां इस इलाके में उग्रवाद के खात्मे की दिशा में ठोस पहल की, वहीं इलाके के विकास के लिए बड़े पैमाने पर योजनाएं शुरू की गईं। लेकिन आठ साल में ही  इलाके पर पार्टी की पकड़ ढीली होने लगी। पार्टी में आंतरिक कलह उभरने लगा और अब यह गुटबाजी इतनी तेज हो गई है कि शुभेंदु समेत कई नेता पार्टी से नाता तोड़ चुके हैं।
झारखंड से सटा पश्चिम बंगाल का जंगल महल इलाका किसी दौर में माओवादियों का गढ़ रहा है। खासकर लेफ्ट फ्रंट की सरकार के दौर में तो इलाके में किशनजी के नेतृत्व में इन माओवादियों की तूती बोलती थी और हत्या-अपहरण रोजमर्रा की घटना हो गई थी। 

चरम पर था माओवाद

इस इलाके के लालगढ़ में 2 नवंबर, 2008 को तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर बारूदी सुरंग के जरिए जानलेवा हमला भी हुआ था। तब केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान भी इलाके में एक फैक्ट्री के शिलान्यास के सिलसिले में वहां थे। वर्ष 2009 से 2011 के दौरान तो इलाके में माओवाद चरम पर पहुंच गया था। इस दौरान छह सौ से ज्यादा आम लोग और 50 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी माओवादियों के हाथों मारे गए थे। इसके अलावा सुरक्षा बलों ने भी 80 माओवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को मार गिराया था। 

वर्ष 2011 में टीएमसी के सत्ता में आने के कुछ दिनों बाद ही 24 नवंबर को इलाके के सबसे बड़े माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी की एक पुलिस मुठभेड़ में मौत के बाद माओवादियों की कमर टूट गई थी। उसके बाद कई नेताओं ने हथियार डाल दिए थे या फिर इलाके को छोड़ कर चले गए थे।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद इस इलाके के आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए थोक के भाव विकास योजनाएं शुरू की थीं और उनका असर भी नजर आने लगा था।

40 प्रतिशत एससी-एसटी वोटर

इस बार टीएमसी और बीजेपी की निगाहें जंगल महल इलाके में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के करीब 40 प्रतिशत वोटरों पर हैं। ममता वहां बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की रणनीति पर बढ़ रही हैं। ममता नए सिरे से जंगल महल में पांव जमाने की कवायद में जुटी हैं। उनकी ओर से बीते साल गठित दलित साहित्य अकादमी को भी इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। 
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बीजेपी के समर्थन में आदिवासी

अकेले बांकुड़ा जिले में विधानसभा की 12 सीटें हैं और जिले में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की आबादी 38.5 प्रतिशत है। किसी दौर में इस इलाके को वामपंथियों का वोट बैंक माना जाता था। ममता ने सत्ता में आने के बाद इलाके में शांति बहाल करने की कामयाबी को लेकर अपनी पैठ बनाई थी। लेकिन उसके बाद सरकारी योजनाओं से मोहभंग होने की वजह से इलाके के आदिवासी लगातार बीजेपी का समर्थन करते रहे हैं। 

चुनाव आयोग के आंकड़ों को ध्यान में रखें तो वर्ष 2014 में भले ही बीजेपी को टीएमसी से मुंह की खानी पड़ी हो लेकिन जंगल महल इलाके में उसे मिलने वाले वोट बढ़ कर 20 प्रतिशत तक पहुंच गए थे। उसके बाद वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव में बीजेपी को 27 प्रतिशत वोट मिले थे। खासकर झाड़ग्राम, पुरुलिया और बांकुड़ा जिलों में पार्टी को भारी कामयाबी मिली थी।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि टीएमसी के स्थानीय नेताओं की गुटबाजी और भ्रष्टाचार की वजह से ही तमाम सरकारी योजनाएं शुरू होने के बावजूद सत्तारुढ़ पार्टी से आदिवासियों का मोहभंग होता रहा है।

ममता के सामने बड़ी चुनौती 

वर्ष 2019 में बीजेपी ने इस इलाके में अपना पूरा चुनाव अभियान ही टीएमसी नेताओं के भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द केंद्रित किया था और उसे खासी कामयाबी मिली थी। ऐसे में ममता के लिए अपनी खोई जमीन हासिल करने की कड़ी चुनौती है। खासकर अपने सेनापति रहे शुभेंदु अधिकारी की बग़ावत के बाद उनकी राह और पथरीली हो गई है।