इज़रायल-फ़लस्तीन के बीच जारी ख़ून-ख़राबे को रोक पाने में नाकामी के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की आलोचना शुरू हो गई है। यह आलोचना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो हो ही रही है, उनकी अपनी पार्टी के सांसद तक कर रहे हैं। उन्हें ऐसा लग रहा है कि जो बाइडेन न केवल सुस्ती दिखा रहे हैं, बल्कि उनका रवैया भी वह नहीं है जो होना चाहिए। 

बाइडेन ने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान संकेत दिए थे कि वे इज़रायल के प्रति कड़ा रवैया अख़्तियार करेंगे, जिसका सीधा सा मतलब था कि वे ट्रम्प की इज़रायल की गुंडागर्दी को समर्थन देने वाली नीति नहीं चलने देंगे। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इज़रायल की उपेक्षा करके भी ये जताने की कोशिश की थी कि वे अपने रवैये पर क़ायम हैं। दुनिया भर के नेताओं से उन्होने बात की थी, मगर नेतान्याहू को एक फोन तक नही किया था। इससे इज़रायल में बेचैनी भी थी।  

मगर जब अपनी नीति के प्रदर्शन का मौक़ा आया तो बाइडेन पीछे हट गए या दुविधा में फँस गए। इज़रायल-हमास के हमलों के एक हफ़्ते होने और दो सौ से अधिक जानें चली जाने के बाद भी वह कोई सकारात्मक हस्तक्षेप कर पाने में नाकाम रहे हैं। उन्होंने इज़रायल से हमले रोकने के लिए भी नहीं कहा। 
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अमेरिकी बहाना


इसके विपरीत उन्होंने इज़रायल के आत्मरक्षा के अधिकार की वकालत करते हुए इज़रायली हमलों को सही ठहरा दिया है, जिसके लिए उनकी तीखी आलोचना की जा रही है। इसे एक तरह से ताक़त का बेजा इस्तेमाल करने और इलाक़े में तनाव पैदा करने वाले प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की हौसला अफ़ज़ाई की तरह देखा जा रहा है। 

अमेरिका के आत्मरक्षा के तर्क की चारों तरफ आलोचना हो रही है, क्योंकि यह एक उपनिवेशवादी अवधारणा है। 

तमाम औपनिवेशिक ताक़तें अपने ख़िलाफ़ होने वाले संघर्षों को कुचलने के लिए इसी तरह के तर्क देती आ रही हैं। इज़रायल भी एक औपनिवेशिक शक्ति की तरह व्यवहार करते हुए बर्बरता से पेश आ रहा है, इसलिए आत्मरक्षा का तर्क वह रक्षा कवच की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता।

संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव

संयुक्त राष्ट्र ने 1982 में बाकायदा एक प्रस्ताव पारित करके कहा था कि कब्ज़ा करने वाली किसी भी शक्ति के ख़िलाफ़ आज़ादी के लिए किया जाने वाला संघर्ष हर तरह से जायज़ है और इसमें सशस्त्र संघर्ष भी शामिल है। हमास या दूसरे फ़लस्तीनी संगठनों की हिंसा को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 

इज़रायल ने उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर रखा है, वह उनके इलाक़ों मे अनिधिकृत बस्तियाँ बसा रहा है, ग़ज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक यानी पश्चिमी तट पर घेराबंदी कर रखी है और फ़लस्तीनी उससे मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसलिए संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मद्देनज़र उनके सशस्त्र संघर्ष को हमला नहीं कहा जा सकता और न ही उस आधार पर इज़रायल के बर्बर हमलों को जायज़ ठहराया जा सकता है।

ख़ास तौर पर यह देखते हुए कि इज़रायली हमलों में करीब 200 फ़लस्तीनी मारे गए हैं, जबकि मरने वाले इज़रायलियों की संख्या 10 के आसपास है। 

बिन्यामिन नेतन्याहू, प्रधानमंत्री, इज़रायल

हथियारों का सौदा

यही नहीं, मीडिया के अनुसार, बाइडेन ने इज़रायल को 73.5 अरब डॉलर के हथियार बेचने को भी मंज़ूरी दे दी है। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इज़रायल इन हथियारों का इस्तेमाल किसके खिलाफ़ करेगा। ऐसे नाज़ुक वक़्त पर बाइडेन का यह फ़ैसला भी आलोचना की वज़ह बन गया है।

तुर्की के राष्ट्रपति रिचप तैयप अर्दोआन ने तो यहाँ तक कह दिया है कि 'आप अपने ख़ूनी हाथों से इतिहास लिख रहे हैं।' अधिकांश इसलामी देश भी इसे इसी नज़रिए से देख रहे हैं।'  

बहरहाल, बाइडेन द्वारा इज़रायल को संयमित करने में कोई भूमिका न निभाने के कारण अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को यह संकेत गया है कि वे पूर्ववर्ती राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प से शायद बहुत अलग नहीं होंगे। 

बाइडेन ने प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के साथ तीसरी फोन वार्ता में युद्ध विराम की बात ज़रूर की है, मगर उसमें अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने के बजाय निवेदन का भाव ज़्यादा दिखलाई पड़ा।

बाइडन की चुनौतियाँ

माना जा रहा है कि बाइडेन ने युद्ध विराम की बात भी नीतिगत परिवर्तन की वज़ह से नहीं, बल्कि पार्टी के अंदर से पड़ रहे दबाव के कारण कही है। यही नहीं, विश्व बिरादरी ये भी देख रही है कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र में किस तरह इज़रायल के बचाव में लगा हुआ है। इज़रायल के ख़िलाफ़ प्रस्तुत किए जाने वाले हर प्रस्ताव में वह अड़ंगे लगा रहा है।
 

मध्य-पूर्व में बाइडेन के सामने मुख्य रूप से दो चुनौतियाँ थीं। पहली तो यह थी कि ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को कैसे पुनर्जीवित किया जाए। ट्रम्प ने इसे मानने से इंकार करके न केवल ईरान को मुश्किल में डाल दिया था, बल्कि इज़रायल  और सऊदी अरब जैसे कट्टर ईरान विरोधियों को खुश भी कर दिया था। इसका फ़ायदा उन्होंने अरब देशों के इज़रायल के साथ संबंध बेहतर बनाने और फिलिस्तीन के विवाद को हाशिए में डालने के लिए भी किया था। 

जहाँ तक ईरान के साथ परमाणु समझौते को पटरी पर लाने की बात है तो उसमें कोई ख़ास प्रगति नहीं हुई है। पहले आप, पहले आप की ज़िद की वज़ह से दोनों तरफ गतिरोध बना हुआ है।

येरूशलम

अभी यह नहीं कहा जा सकता कि उम्मीद ख़त्म हो गई है, लेकिन इतनी धीमी प्रगति बाइडेन की क्षमताओं और इरादों पर सवालिया निशान तो लगाती ही है। 

मध्यपूर्व को समझने वाले भली-भाँति जानते हैं कि इज़रायल-फिलिस्तीन विवाद बारूद का ढेर है और एक छोटी सी चिंगारी भी महाविस्फोट कर सकती है।

फिर येरूशलम में पिछले एक महीने से स्थितियाँ सुलग रही थीं। इज़रायली  लगातार पूर्वी येरूशलम से फ़लीस्तीनियों को खदेड़ने का प्रयास कर रहे थे। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में चल रहे ज़मीन विवाद को आधार बनाया जा रहा है। 

चूँकि पूर्वी येरूशलम में ही मुसलमानों का तीसरा सबसे पवित्र स्थल अल अक़्सा मसजिद और इज़रायल का टेंपल माउंट है इसलिए वहाँ घटने वाली किसी भी घटना का बड़ी शक्ल अख़्तियार कर लेना भी लाज़िमी था।

ज़ाहिर है कि बाइडेन और उनके प्रशासन को इसका अंदाज़ा होना चाहिए था। अगर उन्हें ये अंदाज़ा नहीं था तो ये बहुत बड़ी चूक थी और अगर होते हुए भी कोई क़दम नहीं उठाए गए तो ये उससे भी बड़ी ग़लती मानी जाएगी।

हालाँकि अमेरिका में यहूदी लॉबी की ताक़त से सभी वाकिफ़ हैं और जनता में  इज़रायल समर्थन रुझान से भी। फिर मध्यपूर्व की सामरिक लामबंदी में भी अमेरिका इज़रायल को एक महत्वपूर्ण हिस्सेदार के तौर पर देखता है। ये लामबंदी अमेरिका के आर्थिक हितों की रक्षा भी करती है। 

इन तमाम वज़हों से अमेरिकी राष्ट्रपतियों के लिए इज़रायल  के प्रति कड़ा रवैया अख़्तियार करना मुश्किल रहता है। मगर इन दबावों में अगर बाइडेन भी काम करेंगे तो वे ट्रम्प से किस तरह अलग होंगे। इसी में तो उनकी परीक्षा होनी है।

और अभी तक के घटनाक्रम के आधार पर कहा जा सकता है कि इस पहली परीक्षा में वे अगर पूरी तरह नहीं तो आंशिक रूप से असफल हो गए हैं।