अमेरिका अपनी तारीख़ के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ लिए गए फ़ैसले उसकी तक़दीर तय करेंगे। अगर उसने गलत राह चुन ली तो वह भी ब्रिटेन की तरह हो जाएगा—एक ऐसा मुल्क जो कभी महाशक्ति था, लेकिन आज अपने पुराने वक़ार की परछाई में जी रहा है और जिसकी ताक़त और इज़्ज़त धीरे-धीरे ढल रही है।
लेकिन अगर उसने सही चुनाव किया, तो वह इस दौर की सबसे अहम और ताक़तवर क़ौम बना रह सकता है—अपनी आर्थिक बरक़रारी और सैन्य बढ़त दोनों को बचाए रखते हुए। मगर अगर वह लड़खड़ा गया, उसने गलत रास्ता पकड़ लिया, तो फिर अमेरिका भी उन मुल्कों की कतार में शामिल हो जाएगा जिन्हें हम आज इसलिए नहीं पढ़ते कि उनका आज कोई असर है, बल्कि इसलिए कि उनका उत्थान और पतन इतिहास का हिस्सा है।

बाहर साम्राज्य, घर में संकट

1991 में सोवियत यूनियन के टूटने के बाद से अमेरिका तकरीबन तीन–साढ़े तीन दशक तक दुनिया का एकमात्र सुपरपावर रहा है—इतिहास में यह दौर बहुत कम नजर आता है। दुनिया पर इसका असर और दबदबा उस स्तर तक पहुँच गया था जो शायद ऑटोमन सल्तनत के दौर में ही देखा गया था। लेकिन अब चीन के उभार ने इसे चुनौती देनी शुरू कर दी है। कई लोग चीन को पहले ही बराबरी का प्रतिद्वंद्वी समझने लगे हैं, और लगभग सबका मानना है कि अमेरिका और चीन के बीच ताक़त का फ़ासला बहुत तेजी से कम हो रहा है।
ताज़ा ख़बरें
हार्ड पॉवर की बात करें तो अमेरिका आज भी दुनिया का सबसे ताक़तवर मुल्क है। उसकी अर्थव्यवस्था दुनिया के कुल GDP का 25 फ़ीसद से ज़्यादा है। उसकी फ़ौज भी बेमिसाल है। लेकिन घर के अंदर हालात ठीक नहीं। मुल्क नस्ल, वर्ग और आप्रवासन को लेकर गहरे तौर पर बँटा हुआ है। मगर सबसे बड़ी दरार अमीर और ग़रीब के बीच बढ़ती हुई खाई है।
जनतंत्र की असली ताक़त एक मज़बूत मिडिल क्लास में होती है। ब्रिटेन में लोकतंत्र इसलिए उगा क्योंकि वहाँ एक नया मिडिल क्लास पैदा हुआ—जिसने दौलत तो कमा ली थी पर जिसके हाथों मे सत्ता नहीं थी। उसकी इसी जद्दोजहद ने ब्रिटेन को लोकतांत्रिक बनाया।
आज अमेरिका में मिडिल क्लास लगातार कमज़ोर होता जा रहा है, और व्यावहारिक रूप से मुल्क दो हिस्सों में बाँट गया है—एक अमीर अमेरिका जहाँ प्रति व्यक्ति आमदनी $75,000 से ऊपर है, और दूसरा गरीब अमेरिका जहाँ यह $20,000 से भी कम है। यह बढ़ती हुई खाई देश की नैतिक ताक़त को कमजोर कर रही है—वही नैतिक ताक़त जिसने 1945 से लेकर आज तक अमेरिका को दुनिया की रहनुमाई करने लायक बनाया था।

कुछ का धन, बहुतों का बोझ

आज अमेरिका में affordability का बड़ा संकट है। ज़्यादातर लोग अच्छा घर नहीं खरीद सकते, हेल्थकेयर नहीं कर सकते और अपने बच्चों की तालीम का खर्च उठाना मुश्किल हो गया है। नौजवान घर खरीदने और परिवार बसाने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं।

इन सब वजहों से अमेरिकन ड्रीम आम आदमी की पहुँच से बाहर होता जा रहा है—और साथ ही अमेरिका दुनिया भर में जंगों और टकरावों में उलझा हुआ है: यूरोप में, पूर्वी एशिया में, और मध्य-पूर्व में। वक्त आ गया है कि अमेरिका घर लौटे—पहले अपने लोगों की फिक्र करे।

जहाँ गरीब अमेरिका तंगहाली में है, वहीं अमीर अमेरिका दुनिया में दबदबा हासिल करने की कोशिशों में लगा है। अमीर अरबों-खरबों डॉलर, जो राजनीति और नेताओं पर असर डालते हैं, लोकतंत्र को कमज़ोर कर रहे हैं। अमीर तबका अमरीकी विदेश नीति को अपनी पसंद के मुताबिक मोड़ चुका है। उसके लिए यूक्रेन की सरहदें अमेरिका की अपनी सीमा-सरहदों से ज्यादा अहम हैं; वे "ग्रेटर इज़राइल" के सपने को आगे बढ़ाने में मदद चाहते हैं; यूरोप को लगातार सब्सिडी और सुरक्षा देना चाहते हैं; और चीन के उभार को रोकने के लिए ताइवान को हथियार बनाना चाहते हैं।
आज अमरीकी समाज—मज़दूर वर्ग और मिडिल क्लास—विदेश नीति के बोझ तले टूट रहा है। देश चार बड़े बोझ ढो रहा है, और अगर इन्हें न उतारा गया, तो इतिहास एक बार फिर यही साबित कर देगा कि साम्राज्य अपनी हद से ज्यादा फैलने के कारण ढह जाते हैं—बाहर की ताक़तों से नहीं, बल्कि अपनी ही महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले।

यूक्रेन, यूरोप, इज़राइल और ताइवान — बोझ अमेरिका पर

यूक्रेन अपनी जमीन वापस चाहता है—2022 में खोई हुई और 2014 में ली गई जमीन भी। लेकिन कीमत कौन भर रहा है? अमेरिकी टैक्स देने वाले नागरिक। यूरोप अमन, सुरक्षा और तरक्की चाहता है—लेकिन योगदान बहुत कम देता है। फिर बोझ किस पर? अमेरिकी जनता पर।
इज़राइल एक धार्मिक-राष्ट्रीय ख्वाब के पीछे भाग रहा है—"ग्रेटर इज़राइल" की तामीर, फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी की ख्वाहिश को कुचलना, और मध्य-पूर्व में हावी होना। और इसकी कीमत कौन चुका रहा है? एक बार फिर—अमेरिकी टैक्सपेयर।
इज़राइल का मामला तो इतना बढ़ गया है कि अमेरिका अपने ही नागरिकों और अपनी ही यूनिवर्सिटियों के खिलाफ हो गया है—हार्वर्ड और कोलंबिया जैसे इदारों को कमजोर कर रहा है—सिर्फ इसलिए कि कहीं इज़राइल के मंसूबों पर असर न पड़ जाए। आज इज़राइल का बचाव अमेरिका को अंदर से चीर रहा है—डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों के अंदर दरारें पड़ गई हैं।
ताइवान आज़ादी का सपना देखता है—लेकिन यह सपना दुनिया को एक बड़ी जंग की तरफ धकेल सकता है। और फिर खर्च कौन उठाएगा? अमेरिकी जनता।

ताक़त और मक़सद के बीच बँटा हुआ मुल्क

अमीर अमेरिकियों को विदेश नीति की फिक्र गरीब अमेरिकियों से ज्यादा है। वे अपने लिए टैक्स कटौती मांगते हैं, सरकारी सब्सिडी लेते हैं, बिज़नेस-फ्रेंडली पॉलिसियाँ बनवाते हैं और करोड़ों डॉलर चंदे में देकर नेताओं को खरीद लेते हैं।
बदले में ये नेता टैक्सपेयर्स का पैसा विदेश नीति पर उड़ाते हैं—और हेल्थकेयर, तालीम, रिसर्च वगैरह के फंड काट देते हैं। यहाँ तक कि उन यूनिवर्सिटियों पर हमला किया जा रहा है जिन पर कभी अमेरिका की तरक्की टिकी थी।
सीधी बात ये है कि अमेरिका की विदेश नीति अब अपने ही लोगों की खुशहाली के लिए सबसे बड़ी खतरा बन चुकी है। अमेरिकन ड्रीम का सबसे बड़ा दुश्मन, वही विदेश नीति है जो कहती है कि वह उसे बचा रही है।
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें
अगर अमेरिका को एक महान मुल्क की तरह क़ायम रहना है, तो उसे बाहर नहीं, अंदर देखने की ज़रूरत है। मक़सद के बिना ताक़त को ज़ंग लग जाती है; और संतुलन के बिना महत्वाकांक्षा तबाही लाती है।
अमेरिकन ड्रीम की बहाली किसी नई जंग से नहीं, बल्कि घर के अंदर नई तामीर से होगी—इंसाफ़ की बहाली से, लोकतंत्र को दोबारा ज़िंदा करने से, और उस वादे पर यक़ीन वापस लाने से जिसने कभी इस मुल्क को उठाया था।
साम्राज्य तब गिरते हैं जब वे भूल जाते हैं कि वे क्यों उठे थे। अमेरिका को यह याद करना होगा—इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।