loader

क्या प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं अमित शाह?

अगर नरेंद्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बनते हैं तो अमित शाह उनकी सरकार में प्रमुख भूमिका में आ सकते हैं। चुनाव लड़कर अमित शाह यह संदेश देना चाहते हैं कि वह राज्यसभा के पिछले दरवाज़े से संसद या कैबिनेट में नहीं आए हैं। जनता के बीच से चुनकर आए हैं। ऐसे में नंबर दो के लिए, नंबर एक के लिए पोजिशनिंग करने में क्या दिक़्क़त है?
आशुतोष
अमित शाह ने क्या अपने आप को भविष्य के प्रधानमंत्री के तौर पर देखना शुरू कर दिया है? क्या वह अपने आप को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में देखते हैं? क्या वह यह मानते हैं कि मोदी के बाद वह पार्टी के सर्वेसर्वा होंगे? वैसे तो ये सवाल काफी दिनों से ख़ुसफुस अंदाज में उठ रहे थे पर जब से वह राज्यसभा के सदस्य बने हैं, तभी से ये सवाल काफी तेज़ी से अटकलों में तब्दील हो गए। अब इन अटकलों को तेज़ी दी है गाँधीनगर से उनके चुनाव लड़ने की ख़बर ने। 
ताज़ा ख़बरें
अमित शाह पहले ही जब राज्य सभा के सदस्य हैं तो फिर वह लोकसभा का चुनाव क्यों लड़ रहे हैं? उनके चुनाव लड़ने का कुछ तो कारण होगा। वह पार्टी के अध्यक्ष हैं। पूरे देश में पार्टी को चुनाव लड़ाना, उसके नट-बोल्ट कसना उनकी ज़िम्मेदारी होगी। ऐसे में गाँधीनगर से चुनाव लड़ने से क्या उनका ध्यान नहीं बँटेगा?
इसमें कोई दो राय नहीं कि अमित शाह, मोदी के सबसे विश्वासपात्र नेता हैं। देश में आज की तारीख़ में उन्हें मोदी के बाद सबसे ताक़तवर इंसान माना जाता है। लोग तो यह भी कहते हैं कुछ मामलों में वह मोदी से कम नहीं है। पार्टी में सीनियर हो या जूनियर किसी में इतनी हिम्मत नहीं है कि उनकी बात काट दे। कोई अधिकारी उनकी अनदेखी नहीं कर सकता। 
राजनाथ सिंह हों या नितिन गडकरी, सब अमित शाह का लोहा मानते हैं। शाह, केंद्र की सरकार में किसी भी पद पर नहीं हैं लेकिन सरकार के किसी भी कैबिनेट मंत्री से ज़्यादा उनका सिक्का चलता है।

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि उनका फ़ोन आ जाए तो मंत्री काँप उठते हैं। किसे पार्टी की तरफ़ से टिकट देना है या नहीं देना है, यह या तो वह तय करते हैं या फिर प्रधानमंत्री मोदी। 

यहाँ तक कि मंत्रियों को कौन सा विभाग मिले या न मिले या किस विभाग से अदला-बदली हो, यह भी अमित शाह की मर्ज़ी से तय होता है, ऐसी चर्चा पत्रकार चटखारे लेकर सुनाते हैं। ऐसे में शाह अगर आगे का ख़्वाब देखते हैं तो इसमें बुरा क्या है? 

आज के अमित शाह को देख कर यह यक़ीन करना मुश्किल है कि यह वही शख़्स हैं जो 2014 के पहले तक गुमनामी के अंधेरे में थे। वह गुजरात नहीं जा सकते थे। वह दिल्ली में स्थित गुजरात भवन में गर्दिश के दिन काट रहे थे।

सोहराबुद्दीन शेख़ एनकाउंटर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शाह को गुजरात से तड़ीपार घोषित कर रखा था। दिल्ली में छोटे-बड़े बीजेपी नेता उन्हें भाव नहीं देते थे। ख़बर तो यहाँ तक है कि कुछ छुटभैये नेता उन्हें मिलने के लिए समय नहीं देते थे या मिलने से पहले इंतज़ार करवाया करते थे। 

मोदी बने पीएम उम्मीदवार, बदली क़िस्मत

अमित शाह की क़िस्मत ने अचानक पलटा खाया जब 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया। मोदी उनपर काफ़ी भरोसा करते थे। मोदी यह जानते थे कि बिना यूपी जीते प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना ग़लत होगा। राजनाथ सिंह तब पार्टी के अध्यक्ष थे। राजनाथ यूपी से आते हैं। मोदी ने राजनाथ से कहा कि वह अमित शाह को यूपी बीजेपी का इंचार्ज बना दें। राजनाथ सिंह ने यही किया। अमित शाह की क़िस्मत का ताला खुल गया। मोदी को बनारस से लड़ाने का फ़ैसला शाह का ही था। साथ ही छोटी-छोटी जातियों के संगठनों से गठबंधन करने की उनकी रणनीति भी कारगर साबित हुई। 

अमित शाह के बारे में यह कहा जाता है कि चुनाव लड़ाने में उनका कोई सानी नहीं है। यूपी जाते ही वह समझ गए कि जातिगत समीकरण बैठाए बिना बीजेपी को जिताना मुश्किल होगा। जाटव वोट पूरी तरह से बीएसपी के साथ था और समाजवादी पार्टी के पास एकमुश्त यादव वोट थे। 
अमित शाह को लगा कि अगर समाजवादी पार्टी से ओबीसी में ग़ैर यादव वोट और बीएसपी से दलितों में ग़ैर जाटव वोट को वह अपनी तरफ़ खींच पाए तो यूपी की लड़ाई आसान हो जाएगी। इस दिशा में उन्होंने काम करना शुरू किया। अपना दल और ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को अपनी तरफ़ कर लिया। शाक्य, कुशवाहा, काछी, निषाद जैसी जातियों को लुभाना शुरू किया। नतीजा सबके सामने था। 

मोदी के करिश्मे और अमित शाह की संगठन क्षमता ने यूपी में चमत्कार कर दिया। बीजेपी 80 में से गठबंधन के साथी अपना दल के साथ 73 सीटों पर क़ब्ज़ा जमाने में कामयाब रही। और मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने में यूपी ने बड़ी भूमिका निभाई। 

अमित शाह के लिए यूपी के नतीजे वरदान बनकर आए। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अमित शाह को पुरस्कृत किया और राजनाथ सिंह के गृह मंत्री बनने के बाद उनको पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी।

गुजरात में मोदी के साथ लंबे समय तक काम करने का शाह को फ़ायदा हुआ। और कुछ ही दिनों मे यह साफ़ हो गया कि अमित शाह और मोदी की जोड़ी ही देश को चलाएगी। हुआ भी यही। अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी ने बीस से ज़्यादा राज्यों में सरकार बनाई या सरकार में हिस्सेदारी की।

बीजेपी के बारे में कहा जाने लगा कि जहाँ-जहाँ अमित शाह की नज़र पड़ती है, वहाँ-वहाँ बीजेपी का झंडा बुलंद हो जाता है। शेखर गुप्ता जैसे वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा कि अमित शाह बीजेपी के इतिहास के सबसे ताक़तवर अध्यक्ष हैं और उनकी तुलना कांग्रेस के के. कामराज से की। कामराज के बारे में कहा जाता है कि वह प्रधानमंत्री बनाते थे। नेहरू की मृ्त्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री और शास्त्री के बाद इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी बेहद अहम भूमिका थी। 

अमित शाह का जलवा इतना बढ़ा कि बडे़े-बड़े मंत्री उनकी परिक्रमा करने लगे। दिल्ली के बडे़-बड़े संपादक उनसे मुलाक़ात कर ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करने लगे। उनके ख़िलाफ़ लिखने की हिम्मत या यूँ कहें कि उनकी आलोचना करने का साहस इक्का-दुक्का पत्रकार ही कर पाए। टीवी के पत्रकार तो उनसे मिलकर अपना जीवन सुधारने लगे। 
धीरे-धीरे यह साफ़ हो गया कि मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्रियों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। सब मोदी-अमित शाह के हाथ की कठपुतलियाँ मात्र हैं। लिहाज़ा, दिल्ली की गद्दी पर गुजरात के दो दिग्गजों का क़ब्ज़ा हो गया और बाकी नेता टोह लेते रह गए।

मोदी के आँख, कान, नाक थे शाह

ऐसे में अगर अमित शाह 2024 के लिए सपने बुन रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है? गुजरात में वह मोदी के मंत्रिमंडल में गृह राज्य मंत्री थे। और उनकी वैसे ही तूती बोलती थी जैसे कि इस समय दिल्ली में बोलती है। वह मोदी के आँख, कान, नाक थे। इस दौरान उनपर सोहराबुद्दीन शेख़, उसकी पत्नी और साथी तुलसी प्रजापति का फ़र्जी एनकाउंटर करवाने का आरोप लगा। सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद उन्हें जेल भी जाना पड़ा और गुजरात से तड़ीपार भी हुए।

मोदी सरकार बनने के बाद सोहराबुद्दीन फ़र्जी एनकाउंटर मामले में शाह को सीबीआई कोर्ट से क्लीन चिट मिल गई। मामले की सुनवाई कर रहे एक जज लोया की संदिग्ध मौत में फिर उनका नाम उछला पर सुप्रीम कोर्ट से वह फिर मुक्ति पा गए।

सीबीआई कोर्ट के फ़ैसले को आगे चुनौती न देने का सीबीआई का फ़ैसला रहस्य के आवरण में है। ऊँची अदालत में फ़ैसले को चैलेंज करना था पर वह नहीं हुआ। लिहाज़ा, अमित शाह सारे मामलों से बरी हैं। 

सत्ता पाना ही एकमात्र लक्ष्य 

अमित शाह के बारे में मशहूर है कि वह चाणक्य को अपना आराध्य देव मानते हैं। उनके घर में चाणक्य की तस्वीर टँगी रहती है। चाणक्य की तरह ही लक्ष्य साधने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करने में शाह क़तई नहीं हिचकिचाते। शाह को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि साधन उचित है या अनुचित। सत्ता पाना उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है। 

अमित शाह के अध्यक्ष रहते हुए बीजेपी न केवल देश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई बल्कि चुनाव लड़ने वाली ऐसी मशीन में तब्दील हो गई जिसे हराना 2017 तक लगभग असंभव माना जाने लगा।
लेकिन 2018 में बीजेपी कर्नाटक में सरकार नहीं बना सकी, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह अपनी सरकारें गंवा बैठी। अब शाह की सबसे बड़ी परीक्षा 2019 का लोकसभा चुनाव है। अगर मोदी फिर प्रधानमंत्री बनते हैं तो अमित शाह नई भूमिका में आ सकते हैं। चुनाव बाद बीजेपी को नया पार्टी अध्यक्ष चुनना होगा। लिहाज़ा, अमित शाह कैबिनेट में जगह पा सकते हैं और उनके कैबिनेट में रहने का मतलब होगा मोदी के बाद नंबर दो।
विश्लेषण से और ख़बरें
इसका मतलब अमित शाह का लोकसभा चुनाव लड़ने का अर्थ यह संदेश देना है कि वह राज्यसभा के पिछले दरवाज़े से संसद या कैबिनेट में नहीं हैं। चुनाव लड़कर, जनता के बीच से चुनकर आए हैं। ऐसे में नंबर दो के लिए, नंबर एक के लिए पोजिशनिंग करने में दिक़्क़त क्या है? फिर वह एक समय के शलाका पुरूष लाल कृष्ण आडवाणी की सीट से लड़ रहे हैं। इसके अपने अर्थ हैं। ऐसे में अमित शाह के लोकसभा का चुनाव लड़ने को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
आशुतोष
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विश्लेषण से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें