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मोदी सरकार का चुनावी हथकंडा है तेलतुमडे की गिरफ़्तारी?

आनंद तेलतुमडे की गिरफ़्तारी चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा अपनाने को तैयार सरकार की कायर कोशिश है या फिर वाकई में देश में अशांति फैलाने वाले एक ख़तरनाक नक्सली की साजिश के अंजाम होने से रोकने का प्रयास? देर रात साढे तीन बजे आनंद तेलतुमडे को मुंबई एयरपोर्ट पर गिरफ़्तार कर लिया गया। उनकी ज़मानत याचिका शुक्रवार को स्थानीय अदालत ने ख़ारिज की थी। इसके पहले 14 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने भीमा कोरेगाँव में उनके ख़िलाफ़ दायर एफआईआर को निरस्त करने से इनकार कर दिया था। चार हफ़्ते के लिए इनकी गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी थी। पुलिस एक महीने का भी इंतज़ार नहीं कर सकी।
आनंद तेलतुमडे का देश में बहुत सम्मान है। वह न केवल दलित चिंतक है बल्कि देश के जाने माने मैनेजमेंट गुरू भी हैं। उनके ऊपर आरोप है कि वह नक्सलवाद के समर्थक है और प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने में उनका भी हाथ हो सकता है। उनकी शादी बाबा साहेब आंबेडकर की पोती से हुई है। उन्ही बाबासाहेब की पोती से, जिनके प्रति अचानक मोदी जी का मन पिछले कुछ सालों में प्यार और सम्मान से भर गया है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट से एमबीए की डिग्री हासिल करने वाले तेलतुमडे ने आईआईटी खडगपुर में पाँच साल पढ़ाया है। इसके अलावा भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक रहे है, पेट्रोनेट इंडिया के सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर भी रहे हैं। गिरफ़्तारी के वक़्त वह गोवा इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट में पढ़ा रहे हैं। तेलतुमडे ने दर्जनों किताबें लिखी हैं और दलित चिंतन में उनका बडा योगदान है। 
ananda teltumde arrest modi government ploy to win elections? - Satya Hindi
बी. आर. आम्बेडकर अपने परिवार वालों के साथ
आनंद तेलतुमडे की योग्यता को देख कर बडी आसानी से कहा जा सकता है कि उन्हें देश के विकास में बडी ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए और दलित चेतना को समझने में उनकी मदद ली जानी चाहिए।
पर दुर्भाग्य यह है कि वह इस वक़्त जेल में है और आरोप इतने गंभीर है और जिन यूएपीए एक्ट के तहत उनकी गिरफ़्तारी की गई है, उसमे उनको ज़मानत मिलना आसान नहीं होगा और हो सकता है अगर मोदी सरकार बनी रही तो सालों उनको जेल में काटने पड सकते हैं। 
तेलतुमडे ने जनवरी महीने में एक चिट्ठी लिख कर यह चिंता जताई थी कि उनकी बाकी की ज़िंदगी जेल में कट सकती है। वह परेशान थे और दुखी भी। उन्होंने चिठ्ठी में लिखा था, 'मेरी उम्मीदें पूरी तरह ख़त्म हो गई है। मेरे पास सेशन्स कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ज़मानत के लिये दर-दर भटकने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। मेरे समर्थन में लोगों के खड़े होने का समय आ गया है।' तेलतुमडे आगे लिखते है, 'उन्हे जेल का डर नहीं है, डर है कि वो बिना लैपटॉप के कैसे रहेंगे जो इनके शरीर का एक हिस्सा बन गया है। वो सारे छात्र जिन्होंने अपना भविष्य मुझसे जोड़ रखा है या फिर मेरे समान का क्या होगा।' तेलतुमडे का सम्मान देश की सुरक्षा से बडा नहीं हो सकता। अगर उन्होंने भीमा कोरेगाँव में हिंसा फैलाने की साजिश रची है तो निश्चित तौर पर उनकी बाकी की ज़िंदगी जेल में कटनी चाहिए। वह कितने क़ाबिल है इसका कोई मतलब नहीं है। क़ाबलियत या पेशेवर उपलब्धि इस बात का सबूत नहीं हो सकती कि वह शख़्स अपराधी नहीं है। मेरे पास इस बात का कोई सबूत नहीं है कि यह कह सकू कि वह निर्दोष हैं। 
तेलतुमडे के बारे में जितनी जानकारी है और जिस तरह से मोदी सरकार का रवैया अब तक वामपंथ और उदारवाद को लेकर रहा है, उस संदर्भ में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भीमा कोरेगाँव का भी इस्तेमाल देश की उदारवादी परंपरा को नष्ट करने में किया जा रहा है। हिंदुत्व को मज़बूत करने की भरसक कोशिश की जा रही है।

भीमा कोरेगाँव में जब हिंसा फ़ैली तो शक पुणे और आसपास के इलाक़े में फैले हिंदुत्ववादी संगठनों और नेताओं पर गया था। इस मामले में संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे का नाम प्रमुखता से आया था। यह आरोप महाराष्ट्र पुलिस ने लगाया था कि भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के लिये ये दोनों हिंदुत्ववादी नेता और इनके संगठन ज़िम्मेदार हैं। हिंसा की घटना से पहले से ही इनके संगठन उस इलाक़े में सक्रिय थे और लोंगों को भड़का रहे थे। 1 जनवरी 2018 को मराठाओं और अंग्रेज़ों की लडाई और उसमे मराठा शासन की हार की दो सौवी वर्षगाँठ मनाई जा रही थी। इस घटना को दलित मराठाओं पर अपनी जीत के तौर पर देखते हैं। बाबा साहेब आंबेडकर पहली बार 1927 में भीमा कोरेगाँव आए थे और तब से ही दलित हर साल यहाँ इस दिन आकर अपनी जीत का जश्न मनाते हैं। यह बात यहाँ की उच्च जातियों को काफ़ी अखरती है। 

हिंदुत्ववादी ताक़तें मराठा साम्राज्य की हार को हिंदू राष्ट्र की पराजय के तौर पर मानते हैं, जबकि दलित इस हार को हिंदूवाद की हार और दलितों की जीत के नज़रिये से देखते है। अंग्रेज़ों की सेना में दलित भारी संख्या में थे, लिहाज़ा वे अंग्रेज़ों की जीत को अपनी जीत कहते हैं।
मराठा साम्राज्य में दलितों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जाता था। पर मराठा साम्राज्य उच्च जातियों के लिये गौरव की बात है। ऐसे में पिछले साल भी तनाव बढ़ा और बाद में जम कर हिंसा हुई। भिड़े और एकबोटे के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई गई। एकबोटे एक महीने जेल में भी रहा। भिड़े के ख़िलाफ़ कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई। 
पर अचानक पूरे घटना क्रम ने एक नाटकीय मोड़ ले लिया। महाराष्ट्र पुलिस ने ये दावा करना शुरू कर दिया कि भीमा कोरेगाँव के पीछे शहरी नक्सलवादियों का हाथ है। एकबोटे और भिड़े की जगह नए नाम आने शुरू हो गए। ये सब वे लोग थे जिनके बारें में ये कहा जाता है या तो ये लोग वामपंथी हैं या फिर माओवाद से सहानुभूति रखते हैं। यह भी बडे सनसनीख़ेज़ तरीके से कहा गया कि शहरी माओवादी प्रधानमंत्री मोदी की चिट्ठी लिखकर हत्या की साजिश रच रहे थे। यह दुनिया का अकेला वाक़या होगा जब किसी संगठन या व्यक्ति ने पत्र लिखकर देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिस रची हो। ख़ैर, दो बैच मे दस तथाकथित माओवादी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया।
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पाँच 'शहरी नक्सल'
6 जून को को शोमा सेन, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, रोना विल्सन और सुधीर धावले को गिरफ़्तार किया गया। 28 अगस्त को गौतम नवलखा, अरुण फरेरा, सुधा भारद्वाज, वरवर राव और वरनॉन गोज़ाल्वेज को भी हिरासत में ले लिया गया। मीडिया में जमकर हंगामा हुआ। दो खेमों में लोग बँट गये। एक तरफ तथाकथित देश भक्त लोग थे, जो कहते थे कि ये सब लोग देश तोड़ने की साजिश कर रहे हैं। और दूसरी तरफ वे थे जिनका तर्क यह था कि दरअसल सरकार विरोध की आवाज को दबाना चाहती है। इन लोगों की ज़मानत की अर्ज़ी पर सुप्रीम कोर्ट भी बँटा हुआ था। जस्टिस चंद्रचूड़ का कहना था कि अभी और जाँच की आवश्यकता है, पर बाकी दो जजों की राय अलग थी। 

यहाँ यह बताना दिलचस्प होगा कि अरुण फरेरा को 2007 में भी गिरफ़्तार किया गया था, पर वह 2012 में बाइज्जत बरी हो गए। वह पहले भी 11 मामलों में बरी हो चुके हैं। उनके साथ पहले जिस तरह का टॉर्चर पुलिस ने किया वो हिला देने वाला है। वरनान गोज़ल्विस को भी इसी तरह पहले गिरफ़्तार किया गया था।पर इनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला और 2013 में बाइज़्ज़त बरी कर दिये गये। गोंजाल्विस  को शीर्षस्थ नक्सल नेता बताया गया था। गोंजालेविस पहले भी 19 में से 17 मामलों में बाइज्जत बरी हो चुके हैं। इसी तरह से वर वर राव के ख़िलाफ़ 25 मामले चल रहे थे। इस में से 13 मामलों में वो साफ़ बरी हो गए। तीन में वह छूट गए, जबकि 9 मामलों में मुक़दमा ही वापस ले लिया गया।  

सत्ता सरकार के पास है। वह ताक़तवर है। मीडिया का एक मज़बूत तबक़ा उसके साथ हैं। सरकार जो चाहती है वह तर्क इस मीडिया के ज़रिये जनता तक पंहुचा देती है। पर सवाल यह है कि क्या हर तर्क सही होता है?
क्या नक्सलवाद से सैद्धांतिक तौर पर सहानुभूति रखना और जमीन पर हत्या की साजिश रचना, ये दो अलग अलग तर्क नहीं है? वामपंथ अपने सिंद्धात में हिंसा को जायज़ ठहराती है तो क्या हर वामपंथी की जगह जेल है? समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया कहते थे कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं कर सकती तो क्या उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर उन्हे जेल में नही रखना चाहिए था? हक़ीक़त यह है कि कि आज खुलेआम ग़ौ रक्षा के नाम पर लोगों को मारा जा रहा है और मोदी सरकार मे बैठे मंत्री इशारों इशारों मे इसे सही ठहराने की कोशिश भी करते हैं, ऐसे लोगों को माला पहना कर सम्मानित किया जाता है, क्या ये सब लोग जेल में होने चाहिए?

आनंद तेलतुमडे की सहानुभूति जमीन पर लड़ रहे आदिवासी माओवादियों से हो सकती है, लेकिन इस वजह से उनकी गिरफ़्तारी एक ग़लत मिसाल पेश कर रही है। और अगर इस बहाने उदारवाद को जड़ से ख़त्म करने की यह कोशिश है तो यह और भी ख़तरनाक है। पर सबसे ज्यादा ख़तरनाक है चुनाव के समय यह साबित करने की भोथरी कोशिश कि मोदी सरकार राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये कोई समझौता नही कर सकती है। और इसके लिये अगर तेलतुमडे जैसे लोगों को गिरफ़्तार भी करना पडे तो वो पीछे नहीं रहेंगे। पर क्या दलित तबक़ा अपने दलित चिंतक की इस गिरफ़्तारी को चुपचाप सह लेगा, यह देखना होगा? 

'शहरी नक्सल' मामले की सुनवाई के समय जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, महज़ अटकलबाज़ी के आधार पर स्वतंत्रता की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती है।' वह यह भी कहते है, 'हमे सशस्त्र क्रांति और सदियों से दमन झेल रहे लोगों का सरकार के ख़िलाफ़ आवाज उठाने में फ़र्क़ करना होगा। सरकार हो या सुप्रीम कोर्ट सबके कंधे इतने चौड़े होने चाहिए कि वह आलोचना का बोझ सह सके।' दुर्भाग्य यह है कि आज कंधे कमज़ोर हो गए हैं और सीना चौड़ा। आलोचना और देश सुरक्षा की असली चिंता की जगह हर हाल में चुनाव जीतना महत्वपूर्ण हो गया है। तेलतुमडे की गिरफ़्तारी एक भयानक संदेश ले कर आई है। 
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आशुतोष
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