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चुनाव नतीजों का संदेश- महंगाई, बेरोजगारी मुद्दा या नफ़रती व लुभावने नारे?

उत्तर प्रदेश सहित पाँचों राज्यों से अप्रत्याशित और चौंकाने वाले चुनाव नतीजे आए हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर दबदबा साबित हो रहा है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार की वापसी तय है और बाक़ी के तीन राज्यों में भी वह स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करती दिख रही है। उधर पंजाब के नतीजे भी बेहद चौंकाने हैं, जहां आम आदमी पार्टी पहली बार प्रचंड और ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में आ रही है। कुल मिलाकर पाँचों राज्यों के नतीजे अपने आप में ऐतिहासिक हैं।

चार राज्यों में बीजेपी के फिर से सत्ता में लौटने से जहां यह मिथक टूट रहा है कि इन राज्यों में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन होता रहता है, वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी की प्रचंड जीत ने इस मिथक को तोड़ा है कि पंजाब की राजनीति दो ध्रुवीय है जिसमें कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल ही बारी-बारी से सत्ता में आते रहते हैं। 

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हालाँकि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को पिछले चुनाव जैसा बहुमत नहीं मिल रहा है और उसकी सीटों में कमी आ रही है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर योगी सरकार की तमाम नाकामियों के बावजूद उसका दोबारा सत्ता में आना साधारण बात नहीं है। उत्तर प्रदेश सहित चारों राज्यों का जनादेश बीजेपी के पक्ष में जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कोरोना की पहली और दूसरी लहर से निबटने में केंद्र और इन राज्य सरकारों की नाकामी और प्रवासी मज़दूरों का दर्दनाक पलायन, किसान आंदोलन के प्रति इन सरकारों का निष्ठुर रवैया, पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों से बढ़ती महंगाई, लगातार बढ़ रही बेरोजगारी, ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था और इन राज्यों में पटरी से उतर चुकी कानून-व्यवस्था जैसे बुनियादी मुद्दों को जनता ने कोई तरजीह नहीं दी।

बीजेपी ने यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 'मजूबत नेतृत्व-दृढ़ इच्छा शक्ति’ वाली गढ़ी गई छवि, धार्मिक ध्रुवीकरण, विकास के हवाई नारों और दावों तथा मुफ्त अनाज, मुफ्त वैक्सीन और किसानों को छह हजार रुपए की सालाना आर्थिक मदद जैसे लोक-लुभावन योजना के नाम पर लड़ा और अपने मज़बूत संगठन तथा सुनियोजित चुनाव के बूते उसने कामयाबी हासिल की।

उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वहाँ की राजनीति पिछले तीन दशक तीन ध्रुवों (समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी) में बंटी हुई थी जो अब दो ध्रुवीय हो गई है।

इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया। इस सूबे में कांग्रेस के प्रदर्शन की चर्चा बेमानी है, क्योंकि वहां लंबे समय से कांग्रेस का कोई सामाजिक आधार है ही नहीं। उसने इस बार प्रियंका गांधी की छवि के सहारे लंबे समय बाद अपने अकेले के बूते मैदान में उतर कर अपने लिए जमीन तलाशने की कोशिश की थी लेकिन उसका भी हाल बहुजन समाज पार्टी जैसा ही रहा। साढ़े चार साल तक पूरी तरह निष्क्रिय रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने चुनाव से तीन महीने पहले सामाजिक समीकरण साधते हुए भाजपा को चुनौती देने की कोशिश की थी, लेकिन वे अपनी पार्टी के पिछले प्रदर्शन में थोड़ा-बहुत सुधार करने के अलावा कुछ नहीं कर सके। 

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सोनिया, राहुल और प्रियंका के त्रिकोणीय आलाकमान वाली कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में तो कुछ मिलना ही नहीं था लेकिन पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर ऐसे राज्य हैं जहां वह सत्ता में आ सकती थी लेकिन उसके बेतुके-दुविधाग्रस्त फ़ैसलों और दिशाहीन चुनावी रणनीति की वजह से वहां भी उसे शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा।

बीजेपी को उत्तराखंड में मिली जीत भी उत्तर प्रदेश जैसी ही महत्वपूर्ण है, जहां उसके खाते में नाकामियाँ ही नाकामियाँ दर्ज थीं और इसी वजह से उसे पांच साल में तीन मुख्यमंत्री देने पड़े थे। लेकिन कांग्रेस अपने शीर्ष नेतृत्व की दुविधाग्रस्त मानसिकता के चलते वहाँ बीजेपी को चुनौती देने में इस कदर नाकाम रही कि उसके कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को दोनों सीटों पर करारी हार का सामना करना पड़ा।

पंजाब में तो न सिर्फ़ कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई बल्कि उसके परंपरागत प्रतिद्वंद्वी अकाली दल को भी अपने इतिहास की सबसे दयनीय और शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा।

उसके 94 वर्षीय शीर्ष नेता प्रकाशसिंह बादल और पार्टी अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल तक चुनाव हार गए। इसी तरह दो सीटों से लड़े मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू भी आम आदमी पार्टी की प्रचंड लहर में अपनी सीटें नहीं बचा पाए। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने गवर्नेंस के अपने दिल्ली मॉडल के बूते पंजाब में धमाकेदार जीत हासिल की। 

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पंजाब में आम आदमी पार्टी की कामयाबी राष्ट्रीय स्तर पर उन अन्य राज्यों में भी कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बनेगी जहां अब तक बीजेपी से उसका सीधा मुकाबला होता रहा है। इसी साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना है, जहां आम आदमी पार्टी पूरी ताकत से मैदान में उतरेगी। इसका संकेत उसने पिछले दिनों सूरत नगर निगम के चुनाव में अपने बेहतरीन प्रदर्शन के जरिए दिया भी है। 

कुल मिलाकर पांचों राज्यों के चुनावी नतीजों का संदेश यही है कि देश की राजनीति में महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर धार्मिक प्रतीकों और सांप्रदायिक नफरत की राजनीति तथा 'मुफ्त सुविधा’ जैसे लोक-लुभावन नारे भारी रहेंगे। इस संदेश का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के अहंकार और अनिर्णय के कुएँ से बाहर निकाल कर नई रणनीति बनाना होगी। यही संदेश अन्य विपक्षी दलों के लिए भी जो फिलहाल अलग-अलग राज्यों में सरकार चला रहे हैं या बीजेपी के ख़िलाफ़ मुख्य विपक्ष की भूमिका में हैं।

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अनिल जैन
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