तेजस्वी यादव और राहुल गांधी
बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं। एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच सीधा मुकाबला है। एनडीए नीतीश सरकार की उपलब्धियों और मुख्य रूप से नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव मैदान में जाने की तैयारी कर रहा है। पहलगाम आतंकी हमले (22 अप्रैल, 2025) के बाद पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना द्वारा किए गए ऑपरेशन सिंदूर को नरेंद्र मोदी मुख्य रूप से बिहार चुनाव में ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछली कुछ रैलियां इसकी गवाह हैं। नीतीश कुमार के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में पूरा दारोमदार नरेंद्र मोदी के चुनावी प्रचार पर है।
दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन के पास आज का सबसे बड़ा और मौजू मुद्दा है। राजद, कांग्रेस और सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व वाला गठबंधन सामाजिक न्याय और व्यवस्था परिवर्तन के मुद्दे पर बिहार में जीत की इबारत लिखना चाहता है। इंडिया गठबंधन के दो नौजवान नेता राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जाति जनगणना, आरक्षण की सीमा बढ़ाने तथा निजी क्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण बहाल करने को ही अपना प्रमुख मुद्दा बनाकर एनडीए का मुकाबला करने के लिए तैयार हैं। तेजस्वी यादव ने हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में स्पष्ट कर दिया है कि इंडिया गठबंधन भाजपा के हिंदुत्व के सामने दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के अधिकारों तथा आरएसएस की मनुस्मृति के सामने डॉ. अंबेडकर के संविधान को बचाने की लड़ाई के लिए तैयार है।
मनुस्मृति बनाम संविधान
2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष का सबसे बड़ा मुद्दा संविधान बना। दरअसल, 22 जनवरी 2024 को राम मंदिर के उद्घाटन के बाद भाजपा-आरएसएस को यह उम्मीद थी कि दशकों पुराने वादे को पूरा करने के बाद लोकसभा चुनाव में इसका भरपूर फायदा मिलेगा। राम मंदिर के भरोसे और सामाजिक समीकरण के जरिए नरेंद्र मोदी ने 'अबकी बार 400 पार' का नारा दिया। इससे उत्साहित भाजपा के दर्जनों नेताओं ने 400 पार को संविधान बदलने के नारे में तब्दील कर दिया। हालांकि यह अति आत्मविश्वास में किया गया ऐलान नहीं था, बल्कि यह आरएसएस का पुराना एजेंडा है। संविधान पारित होने (26 नवंबर 1949) के 3 दिन बाद ही 30 नवंबर 1949 को आरएसएस ने इसे खारिज कर दिया था। आरएसएस ने अपने मुख पत्र ऑर्गेनाइजर में लिखा कि 'उन्हें यह संविधान स्वीकार नहीं है।... यह संविधान भारतीय नहीं है क्योंकि इसमें मनु की संहिताएं नहीं हैं।'
जाहिर तौर पर आरएसएस एक ऐसा संविधान चाहता है जो मनुस्मृति पर आधारित हो। यानि वर्ण और जातिगत भेदभाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था। शूद्र (ओबीसी), दलित (एससी) और महिलाएं सदियों से मनुस्मृति के शिकार रहे हैं। इसके जरिए उन्हें शिक्षा, संपत्ति और शस्त्र रखने के अधिकार से वंचित किया गया। डॉ. आंबेडकर ने दलितों वंचितों की सामाजिक पराधीनता के खिलाफ लंबा संघर्ष किया। जब उन्हें संविधान बनाने का अवसर मिला तो उन्होंने दलितों वंचितों की मुक्ति और उनकी प्रगति के लिए विशेष प्रावधान किए।
गौरतलब है कि डॉ. आंबेडकर के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी रहे महात्मा गांधी ने ही नेहरू और पटेल को निर्देशित किया था कि अंबेडकर को संविधान सभा में लाकर उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेदारी सौंपी जाए। इस प्रकार डॉ अम्बेडकर को संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। डॉ.अंबेडकर ने गंभीर बीमारियों और शारीरिक थकान के बावजूद पूरी मेहनत और लगन से भारत का संविधान बनाकर तैयार किया। यह दुनिया का सबसे विस्तृत और व्यवस्थित संविधान बना। संविधान में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के लिए आरक्षण तथा अल्पसंख्यकों की भाषा, धर्म और संस्कृति की स्वतंत्रता के अधिकारों का स्पष्ट प्रावधान किया गया। इसीलिए विश्वविख्यात संविधानवेत्ता ग्रेनविल ऑस्टिन ने भारत के संविधान को 'सामाजिक न्याय का दस्तावेज' कहा है।
जब देश संविधान के 75 वर्ष पूर्ण करने की दहलीज पर था, भाजपा नेताओं द्वारा संविधान बदलने के ऐलान ने पूरे चुनाव का माहौल बदल दिया। 75 साल में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों का एक वर्ग पढ़-लिखकर सरकारी नौकरियों में आ गया। अपने इतिहास को जानने-समझने वाला यह वर्ग संवैधानिक अधिकारों के प्रति बेहद सचेत है। वह डॉ. अंबेडकर और संविधान को मुक्तिदाता और मुक्ति मार्ग के रूप में देखता है।
खासकर दलित समाज बीजेपी के हिंदू राष्ट्र के एजेंडे से बेहद आक्रांत है क्योंकि डॉ अंबेडकर ने कहा था कि 'हिंदू राष्ट्र समता और स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरा है। अगर हिंदू राष्ट्र बनता है तो करोड़ों दलितों के लिए सबसे बड़ी आपदा साबित होगी। इसलिए किसी भी कीमत पर इसे रोका जाना चाहिए।' आरएसएस द्वारा की गई हिंदू राष्ट्र की मुनादी और भाजपा नेताओं के संविधान बदलने के ऐलान ने दलितों वंचितों को चौकन्ना कर दिया।
राहुल गांधी ने संविधान की सुरक्षा को इंडिया गठबंधन का बुनियादी मुद्दा बना लिया। लाल रंग के छोटे आकार वाले संविधान को हाथ में लेकर राहुल गांधी ने भाजपा आरएसएस के मनसूबों पर जमकर हमला बोला। राहुल गांधी ने यहां तक कहा कि 'संविधान बचाने के लिए वे अपनी जान की बाजी लगा देंगे।' बिहार में तेजस्वी यादव, यूपी में अखिलेश यादव, तमिलनाडु में स्टालिन से लेकर अनेक विपक्षी नेताओं ने संविधान बचाने और सामाजिक न्याय की लड़ाई के चुनावी समर में भाजपा को 240 सीटों पर समेट दिया। 400 सीटों का सपना देखने वाली मोदी सरकार आज नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की बैसाखियों के सहारे है।
राहुल गांधी के संविधान बचाने की मुहिम को भोथरा करने के लिए 25 जून से आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर मोदी सरकार बड़े पैमाने पर आयोजन कर रही है। आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने एक किताब के विमोचन के अवसर पर 42वें संविधान संशोधन, 1976 में संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए 'समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने की मांग की है। केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और उपराष्ट्रपति जगदीप धनगढ़ ने भी होसबोले की मांग का समर्थन किया है। जाहिर तौर पर राहुल गांधी और तेजस्वी यादव बिहार चुनाव में इस मुद्दे को लेकर जनता के बीच जा सकते हैं। यानी एक बार फिर से संविधान की सुरक्षा का मुद्दा मुखर हो सकता है।
हालांकि राहुल गांधी संविधान सुरक्षा सम्मेलनों में लगातार भागीदारी करते रहे हैं। इन सम्मेलनों में राहुल गांधी जाति जनगणना कराने और आरक्षण की सीमा बढ़ाने की बात जोर-शोर से करते आ रहे हैं। इसका दबाव नरेंद्र मोदी पर भी पड़ा है। मोदी सरकार ने जाति जनगणना कराने का ऐलान करते हुए इसकी अधिसूचना भी जारी कर दी है। कांग्रेस पार्टी इसका श्रेय राहुल गांधी को दे रही है। इससे यह साबित हो गया है कि आने वाले चुनाव में सामाजिक न्याय और व्यवस्था परिवर्तन बड़े मुद्दे होंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या चुनाव में इसका फायदा इंडिया गठबंधन को मिलेगा?
आरक्षण का विस्तार
राहुल गांधी के बाद अब तेजस्वी यादव ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने तथा निजी क्षेत्र में आरक्षण बहाल करने की बात कही है। ध्यातव्य है कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरक्षण की समीक्षा के मुद्दे ने भाजपा की जीत के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में बड़ी जीत हासिल करने के बाद भाजपा राज्य विधानसभा चुनाव में उसे दोहराने की जुगत में थी। लोकसभा चुनाव में जातियों की लामबंदी करते हुए भाजपा ने रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के साथ गठबंधन किया। बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से एनडीए ने 31 पर जीत दर्ज की। जबकि भाजपा ने 30 में से 22 सीटों पर कब्जा जमाया।
इस जीत से उत्साहित भाजपा बिहार में सरकार बनाने को आतुर थी। लेकिन मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का बयान देकर बिहार चुनाव का रुख मोड़ दिया। नीतीश कुमार और लालू यादव ने भागवत के इस बयान को आरक्षण खत्म करने की साजिश करार देते हुए भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। नतीजा यह हुआ कि जनता दल (यूनाइटेड), राजद और कांग्रेस का महागठबंधन बड़े बहुमत से चुनाव जीत गया। एनडीए केवल 58 सीटों पर सिमट गया। जबकि महागठबंधन ने 178 सीटों पर जीत दर्ज की। ज्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि महागठबंधन की जीत दरअसल, मोहन भागवत के बयान की प्रतिक्रिया थी।
इस चुनाव के बाद आरएसएस ने आरक्षण पर खामोशी ओढ़ ली और नरेंद्र मोदी ने एक कदम आगे बढ़कर अपनी ओबीसी छवि को मुखर किया। उन्होंने बार-बार दोहराया कि वे आरक्षण समर्थक हैं। जबकि सच किसी से छिपा नहीं है! आरक्षण के समर्थन की आड़ में नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर सामान्य वर्ग के लिए 10 फीसद आरक्षण बहाल कर दिया। केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारों ने इसकी संवैधानिकता की चिंता किए बगैर तत्काल प्रभाव से विभिन्न सरकारी नौकरियों में ईडब्ल्यूएस कोटा बड़े पैमाने पर लागू कर दिया। आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण संविधानसम्मत नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच ने तीन-दो के बहुमत से ईडब्ल्यूएस को वैध बताते हुए 7 नवम्बर 2022 को मोदी सरकार के 103वें संविधान संशोधन पर मोहर लगा दी।
भारत में आरक्षण का जनक शाहूजी महाराज को माना जाता है। 1902 में उन्होंने अपने राज्य कोल्हापुर में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था। संविधान के अनुच्छेद 340, 341, 342 में ओबीसी, दलित और आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। संविधान लागू होते ही शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में एससी एसटी का आरक्षण लागू कर दिया गया लेकिन ओबीसी समाज को आरक्षण प्राप्त करने के लिए दशकों तक लंबा इन्तजार करना पड़ा।
1990 में वीपी सिंह सरकार ने ओबीसी का सरकारी नौकरियों में आरक्षण बहाल किया। 1992 में इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर और 50% आरक्षण की सीमा तय करते हुए ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को उचित ठहराया। शिक्षण संस्थानों में ओबीसी को यह लाभ 2006 में यूपीए सरकार के दौरान प्राप्त हुआ और इसे 2008 से लागू किया गया।
आरएसएस और अन्य हिंदू दक्षिणपंथी मानसिकता के लोग यह मानते हैं कि आरक्षण से मेरिट प्रभावित हुई और देश का नुकसान हुआ। क्या यह तथ्यात्मक रूप से सही है अथवा यह केवल एक भ्रामक धारणा है?
दरअसल, आजादी के पहले आज के महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में आरक्षण लागू हो चुका था। 1902 में कोल्हापुर, 1921 में मैसूर, 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी, 1931 में मुंबई प्रेसिडेंसी तथा 1935 में त्रावणकोर प्रेसीडेंसी में आरक्षण का प्रावधान किया गया। इतना ही नहीं दक्षिण के कतिपय राज्यों में आरक्षण की सीमा 50 फीसद से ज्यादा है, मसलन- तमिलनाडु में 69% और कर्नाटक में 85%। दक्षिणी प्रायद्वीप में आजादी के पहले से आरक्षण लागू है और 85 फ़ीसदी तक इसकी सीमा है। ये राज्य विकसित श्रेणी में आते हैं। जबकि उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में जहां आरक्षण आजादी के बाद लागू हुआ और महज 50% तक सीमित है। साथ ही लाखों आरक्षित पद खाली पड़े हैं। लेकिन ये राज्य बीमारू राज्यों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए यह एक बड़ा झूठ है कि आरक्षण से देश और मेरिट का नुकसान हुआ है। सच यह है कि आरएसएस- भाजपा अगड़ी जातियों के हितों के संरक्षण और वर्चस्व की राजनीति करती है। इसलिए उन्हें सामाजिक न्याय और व्यवस्था परिवर्तन की नीति और नीयत दोनों नापसंद हैं।
देश में निजीकरण के साथ ही सरकारी नौकरियां कम होती गईं। लंबे समय से निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की जा रही है। बसपा के संस्थापक कांशीराम से लेकर बिहार के दलित नेता रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की बहाली की मांग बुलंद की। नरेंद्र मोदी सरकार ने सरकारी नौकरियां लगभग खत्म कर दी हैं और चोर दरवाजे से लैटरल एंट्री तथा ईडब्ल्यूएस के जरिए आरक्षित वर्गों को पीछे धकेलना का काम कर रही है।
इसलिए एक बार फिर से निजी क्षेत्र में आरक्षण बहाल करने की मांग तेज हुई है। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव बहुत मुखरता से निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उनका वादा है कि सरकार में आने पर वे इसको लागू करेंगे। जाहिर तौर पर बिहार चुनाव में आरक्षण बड़ा मुद्दा होगा।
राहुल गांधी ने आरक्षण के मुद्दे को एक नई धार दी है। सामाजिक न्याय और संविधान सुरक्षा सम्मेलनों से लेकर चुनावी रैलियां तक में राहुल गांधी जाति जनगणना की जरूरत पर जोर देते हुए कहते हैं कि कारपोरेट, उच्च न्यायपालिका, मीडिया और संयुक्त सचिव के स्तर पर दलित, पिछड़े और आदिवासियों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इन संस्थानों में भी वंचित वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। भागीदारी का प्रभाव सरकारी नीतियों पर पड़ता है, उनके हितों का संरक्षण होता है। संविधान लागू होने के 75 साल बाद 24 जून 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने कर्मचारियों के चयन में एससी एसटी आरक्षण बहाल किया है। यह तब संभव हुआ है, जब भारत के मुख्य न्यायाधीश एक दलित और बुद्धिस्ट बी. आर. गवई हैं। क्या इसे न्यायपालिका में आरक्षण की शुरुआत माना जा सकता है? क्या अब उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति में भी आरक्षण लागू किया जाएगा?
जाति जनगणना का मुद्दा
यह मुद्दा अचानक तब सुर्खियों में आया जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने इसकी मांग को लेकर 23 अगस्त 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। आरक्षण की व्यवस्था और सरकारी नीतियों को बनाने के लिए कई बार जाति जनगणना की जरूरत महसूस की जाती रही है। भारत में अंतिम जाति जनगणना 1931 में हुई थी। आजादी के बाद इस पर रोक लगा दी गई। 1 जनवरी 1979 में जनता पार्टी सरकार द्वारा गठित मंडल कमीशन ने 1931 की जनगणना के आधार पर ओबीसी की आबादी 52% स्वीकार करते हुए अपनी रिपोर्ट पेश की। गाहे ब गाहे सुप्रीम कोर्ट ने भी जातिगत आंकड़े उपलब्ध नहीं होने पर चिंता जाहिर की है। जाति जनगणना की मांग के दबाव में 2011 में यूपीए सरकार ने जनगणना के साथ सामाजिक और आर्थिक सर्वे भी कराया। लेकिन 2014 में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने आंकड़ों को यह कहकर दबा दिया कि इसमें ढेरों विसंगतियां हैं।
2021 में बिहार से उठी जाति जनगणना की मांग को राहुल गांधी ने अधिक मुखर बनाया। लोकसभा चुनाव और उसके बाद भी राहुल गांधी लगातार इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। इस बीच बिहार में नीतीश सरकार ने जाति जनगणना कराई और 2023 में इसकी रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट के अनुसार बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी 63% है। इसके बाद कांग्रेस शासित कर्नाटक और तेलंगाना राज्यों में जाति जनगणना कराई गई।
राहुल गांधी तेलंगाना की जाति जनगणना को कांग्रेस के मॉडल के रूप में पेश कर रहे हैं। जाति जनगणना के मुद्दे को भुनाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने अचानक 1 मई 2025 को एलान किया कि जनगणना के साथ जातियों की गिनती भी की जाएगी। ध्यातव्य है कि आज़ादी के बाद एससी एसटी को छोड़कर अन्य जातियों की गणना नहीं की गई। जाहिर तौर पर नरेंद्र मोदी बिहार चुनाव में जाति जनगणना कराने का श्रेय लेते हुए कांग्रेस की पिछली सरकारों को कटघरे में खड़ा करेंगे।
आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में संविधान, आरक्षण और जाति जनगणना बड़े मुद्दे होंगे। लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व के असफल होने के बाद भाजपा भी जातियों की गोलबंदी और सामाजिक न्याय के मुद्दों को उठाकर इंडिया गठबंधन को घेरने की कोशिश करेगी। आपरेशन सिंदूर को भाजपा ट्रम्प कार्ड की तरह खेल सकती है। दूसरी तरफ तेजस्वी यादव और राहुल गांधी आरक्षण बढ़ाने, निजी क्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण बहाल करने तथा संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने के मुद्दों पर एनडीए सरकार को घेरने की कोशिश करेंगे।
बिहार में पिछड़ों की आबादी 63% है। इसमें अति पिछड़ा समाज 36% है। नीतीश कुमार के कमजोर होने से विपक्ष की निगाहें इस वर्ग पर टिकी हुई हैं। इसीलिए अति पिछड़ा समाज से आने वाले मंगलीलाल मंडल को राजद ने अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। पिछड़ा और दलित समाज के बीच जनाधार बढ़ाने के लिए कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी की अगुवाई में लगातार सक्रिय है। देखना यह है कि भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन इसका कैसे मुकाबला करेगा?