पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए लखनऊ में बना 'राष्ट्र प्रेरणा स्थल' केवल एक स्मारक नहीं है। यह वह दर्पण है, जिसमें भारत की स्मृति-राजनीति, उसके नायक-चयन के दोहरे मापदंड और एक पारदर्शी राष्ट्रीय नीति के अभाव की तस्वीर साफ़ दिखती है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उद्घाटन करते हुए एक ओर ‘सबका सम्मान’ का दावा किया और दूसरी ओर गांधी-नेहरू परिवार पर ‘एक परिवार’ को महिमामंडित करने का आरोप लगाया, तो यह विरोधाभास स्वयं ही सब कुछ कह गया।
हरदोई रोड पर गोमती नदी के किनारे 65 एकड़ में फैले इस भव्य परिसर में अटल बिहारी वाजपेयी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की विशाल प्रतिमाएँ हैं। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, इसकी कुल लागत लगभग 700 करोड़ रुपये (निर्माण लगभग 320 करोड़ और भूमि लगभग 381 करोड़) है। यह भाजपा द्वारा अपने वैचारिक स्तंभों को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्थापित करने का सुविचारित प्रयास है।
इसके विपरीत, डॉ. मनमोहन सिंह का अंतिम संस्कार एक सार्वजनिक श्मशान घाट (निगम बोध घाट) पर हुआ। हालाँकि बाद में एक ट्रस्ट को भूमि आवंटित करने की घोषणा की गई, लेकिन यह प्रक्रिया पारंपरिक 'समाधि स्थल' मॉडल से अलग और कम पारदर्शी है। यह एक स्पष्ट विरोधाभास पेश करता है: एक तरफ अपने नेताओं के लिए सैकड़ों करोड़ के भव्य स्मारक, दूसरी तरफ विपक्ष के पूर्व प्रधानमंत्री के लिए एक अलग और अस्पष्ट प्रक्रिया।
पुरानी सादगी बनाम नई भव्यता
पुराने स्मारक और नए परिसरों के बीच केवल लागत का ही नहीं, बल्कि दर्शन और प्राथमिकता का भी गहरा अंतर है।
- महात्मा गांधी की समाधि (राजघाट, दिल्ली) सन 1948 से 1951 के बीच बनी। उस समय इस पर लगभग 10 लाख रुपये खर्च हुए। मुद्रास्फीति के हिसाब से यह रकम आज लगभग 10 से 11 करोड़ रुपये के बराबर होगी। यह समाधि लगभग 50 एकड़ के विशाल हरे-भरे क्षेत्र में फैली हुई है।
- जवाहरलाल नेहरू की समाधि (शांतिवन, दिल्ली) सन 1964 में बनकर तैयार हुई। इसे बनाने में तत्कालीन लगभग 8 से 10 लाख रुपये का खर्च आया, जिसकी कीमत आज लगभग 7 से 9 करोड़ रुपये होगी। इसका क्षेत्रफल लगभग 30 एकड़ है।
- इंदिरा गांधी की समाधि (शक्तिस्थल, दिल्ली) का निर्माण सन 1984 में हुआ। उस समय इसकी लागत लगभग 1 करोड़ रुपये थी, जो आज के हिसाब से लगभग 12 से 14 करोड़ रुपये बनती है। यह स्मारक लगभग 25 एकड़ भूमि पर स्थित है।
- प्रेरणा स्थल (लखनऊ), जो वर्ष 2025 में बनकर तैयार हुआ, एक आधुनिक स्मारक परिसर है। इसकी कुल लागत (निर्माण और भूमि मिलाकर) लगभग 700 करोड़ रुपये आँकी गई है और यह लगभग 65 एकड़ के विस्तृत भूभाग में फैला हुआ है।
जहाँ दिल्ली के पुराने स्मारकों (राजघाट, शांतिवन, शक्तिस्थल) की तत्कालीन लागत कुछ लाख से एक करोड़ रुपये के बीच थी, वहीं लखनऊ के नए प्रेरणा स्थल पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च हुए हैं, जो पैमाने और प्रकृति में बड़ा अंतर दर्शाता है।
दिल्ली की समाधियाँ शांत, हरित चिंतन स्थल थीं, जबकि लखनऊ का प्रेरणा स्थल एक आधुनिक, तकनीकी और प्रचार-प्रसार से लैस संरचनात्मक परिसर है। यह बदलाव केवल वास्तुशिल्प का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्मृति को संजोने के तरीके का भी है।
नेहरू मेमोरियल का विवाद
नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एनएमएमएल) का मामला अद्वितीय और विवादास्पद है। 'तीन मूर्ति भवन', जो नेहरू का आधिकारिक निवास था, को उनकी स्मृति में एक राष्ट्रीय शोध संस्थान बनाया गया। नेहरू के अलावा किसी भी प्रधानमंत्री के पूर्ण निजी निवास को ऐसा दर्जा नहीं मिला।
यह उनकी निजी जिंदगी के धरोहरों को मिटाने की साजिश भी है। 2016 से शुरू हुए बदलावों के तहत, एनएमएमएल को प्रधानमंत्री संग्रहालय में बदल दिया गया। इसमें एक नई इमारत बनाकर सभी पूर्व और वर्तमान प्रधानमंत्रियों को जगह दी गई, जिसमें जीवित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गैलरी भी शामिल है।
यह निर्णय गहरे विवाद का कारण बना
- समर्थकों का दृष्टिकोण: यह प्रधानमंत्री पद, एक लोकतांत्रिक संस्था के रूप में सम्मान है।
- आलोचकों का दृष्टिकोण: यह एक व्यक्ति-केंद्रित ऐतिहासिक स्थल में पद-केंद्रित प्रदर्शनी को जोड़कर इतिहास के संदर्भ को बदलने और एक जीवित नेता को ऐतिहासिक विरासत में शामिल करने का राजनीतिक प्रयास है।
वैश्विक प्रथाएँ
अन्य लोकतंत्रों में यह प्रक्रिया अधिक संस्थागत और कानून-आधारित है:
अमेरिका में 'प्रेसिडेंशियल लाइब्रेरी एक्ट, 1955' के तहत हर पूर्व राष्ट्रपति के लिए एक अलग पुस्तकालय बनाने की कानूनी प्रक्रिया है। निर्माण पहले एक निजी फाउंडेशन करता है, बाद में यह राष्ट्रीय अभिलेखागार का हिस्सा बन जाता है।
ब्रिटेन में प्रधानमंत्रियों के लिए कोई एक समान श्रृंखला नहीं है। स्मृतियाँ अक्सर उनके निजी घरों (जैसे चर्चिल का चार्टवेल) या अलग से बने संग्रहालयों में संरक्षित हैं।
भारत और अमेरिका के बीच मूल अंतर यह है कि भारत में परिवर्तन सरकारी नीति द्वारा संचालित होता है, जबकि अमेरिका में यह एक पूर्व-निर्धारित कानूनी प्रक्रिया है जो हर नेता पर समान रूप से लागू होती है।
विचारधारा की पड़ताल
प्रेरणा स्थल पर मुखर्जी और उपाध्याय की उपस्थिति एक साधारण स्मृति नहीं, बल्कि विचारधारात्मक दावे का प्रतीक है।
- श्यामा प्रसाद मुखर्जी: "एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान नहीं चलेंगे" का उनका नारा आज भी केंद्र-राज्य संबंधों और विशेष दर्जे की बहसों में प्रासंगिक है। लेकिन नगा समझौते के बावजूद मुइवा अलग झंडे की मांग पर कायम है।
- दीनदयाल उपाध्याय: इनका "समग्र मानववाद" का दर्शन भाजपा की आधिकारिक विचारधारा है। पर क्या "हिंदुत्व" की व्यावहारिक राजनीति इस सार्वभौमिक दर्शन के साथ पूर्ण सामंजस्य बिठा पाती है? सांप्रदायिकता की राजनीति करें और कहें कि हम समग्र मानववाद को मानते हैं। गांधी को रोज खारिज करने वाली भाजपा अपने संविधान में गांधीवादी समाजवाद को मानने की बात करती है।
मुखर्जी और उपाध्याय की मूर्ति वाजपेयी के साथ लगाना - भाजपा/आरएसएस के वैचारिक स्तंभों को मान्यता दिलाने का प्रयास है। यहाँ मापदंड संवैधानिक पद नहीं, बल्कि विचारधारात्मक प्रतीकात्मकता है। इसी कारण, डॉ. मनमोहन सिंह या चंद्रशेखर जैसे प्रधानमंत्री, जो सत्तारूढ़ दल की विचारधारा से जुड़े नहीं हैं, ऐसे भव्य अलग स्मारकों के हकदार नहीं समझे जाते।
एक राष्ट्रीय नीति की अनिवार्यता
मौजूदा प्रणाली में स्मारकों का चयन और निर्माण सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक इच्छाशक्ति और विचारधारा पर निर्भर करता है। यह एक लोकतांत्रिक कमी है, जो इतिहास के राजनीतिकरण और राष्ट्रीय स्मृति के खंडित होने का जोखिम पैदा करती है।
भारत को एक पारदर्शी, कानून-आधारित राष्ट्रीय स्मारक नीति की सख्त आवश्यकता है, जिसमें निम्नलिखित बातें शामिल हों:
- स्पष्ट मानदंड: पूर्व प्रधानमंत्रियों, स्वतंत्रता सेनानियों, समाज सुधारकों और सांस्कृतिक विभूतियों के लिए पारदर्शी योग्यता मानदंड।
- वित्तीय अनुशासन: लागत, भूमि उपयोग और पर्यावरणीय प्रभाव के लिए दिशा-निर्देश।
- बहु-दलीय संस्था: स्मारक प्रस्तावों की जाँच और सिफारिश के लिए एक स्वतंत्र, बहु-दलीय संसदीय या विशेषज्ञ समिति का गठन।
जब तक ऐसी नीति नहीं बनेगी, तब तक स्मारक हमारे गौरवशाली अतीत के प्रतीक कम और वर्तमान की दलगत राजनीति के औज़ार अधिक बने रहेंगे। एक परिपक्व लोकतंत्र का लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह अपनी विविध विरासत के सभी पुत्रों-पुत्रियों को एक निष्पक्ष, सम्मानजनक और संस्थागत प्रक्रिया के तहत याद करे।