बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए को मिली अभूतपूर्व सफलता ने कई सवाल उठा दिये हैं। इसके पीछे SIR के नाम पर हुई वोट चोरी से लेकर करोड़ों महिलाओं को दस हज़ार रुपये की खुली रिश्वत को वजह माना जा रहा है। चुनाव आयोग मोदी सरकार के मातहत की तरह काम कर रहा है और इस परिस्थिति को जनता के बीच मुद्दा बनाने का ऐतिहासिक दायित्व रखने वाला मीडिया सरकार की गोदी में बैठकर बिस्कुट खा रहा है। ऐसे में कई तरफ़ से ये आवाज़ें उठ रही हैं कि जनता की चेतना को झिंझोड़ने के लिए विपक्ष को चुनाव बहिष्कार करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में चुनाव लड़ना सरकार को वैधता देना है। लेकिन क्या सचमुच बहिष्कार से विपक्ष को धार मिलती है?

सड़क पर उतरेगी कांग्रेस

18 नवंबर को दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय में एक अहम बैठक हुई। जिन 12 राज्यों-केंद्रशासित प्रदेशों में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) चल रहा है, उनके प्रदेश अध्यक्षों और प्रभारियों को बुलाया गया था। कांग्रेस का आरोप है कि SIR के नाम पर लाखों वोटरों के नाम काटे जा रहे हैं– खासकर उन इलाकों में जहाँ विपक्ष मजबूत है। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने साफ कहा– “अगर निर्वाचन आयोग इसे नजरअंदाज करता है तो यह सिर्फ प्रशासनिक विफलता नहीं, संलिप्तता है।”

कांग्रेस दिसंबर के पहले हफ्ते में दिल्ली के रामलीला मैदान में इसी मुद्दे पर बड़ी रैली करने जा रही है। राहुल गांधी बेहद गंभीर हैं। कहा जा रहा है कि जो नेता सड़क पर नहीं उतरेंगे, उनके लिए पार्टी में जगह बनाये रखना मुश्किल होगा।
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चुनाव बहिष्कार!

इसी बीच कई विचारकों ने विपक्ष के चुनाव लड़ने को बेमानी बताते हुए बहिष्कार को ज़रूरी बताया है। इनमें एक हैं आनंद तेलतुम्बड़े – आईआईटी खड़गपुर के पूर्व प्रोफेसर, डॉ. आंबेडकर के परिवार से रिश्ता रखने वाले लेखक और भीमा-कोरेगांव केस में ढाई साल जेल काट चुके मानवाधिकार कार्यकर्ता। स्क्रोल में छपे उनके लेख का शीर्षक ही सब बता देता है – “विपक्ष का बिहार भ्रम और लोकतंत्र का भ्रम।” वे लिखते हैं कि जब चुनाव आयोग, वोटर लिस्ट, ईवीएम, मीडिया – सब कैप्चर हो चुके हों, तो चुनाव लड़ने से सत्ता को सिर्फ एक सर्टिफिकेट मिलता है – “देखो, लोकतंत्र जिन्दा है।” उनका कहना है कि असली लड़ाई अब सड़क पर और संस्थाओं को मुक्त कराने की है।

दूसरी आवाज और भी चौंकाने वाली है। मशहूर अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर– जो केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति हैं – ने भी यही बात कही। उन्होंने लोकसभा चुनाव में भाजपा पर करीब 80 सीटें धांधली से जीतने का आरोप लगाया था। बिहार नतीजों के बाद उनका मानना है कि विपक्ष को संसद से इस्तीफा दे देना चाहिए और सड़कों पर उतरना चाहिए। चुनाव लड़ते रहने से सत्ता और मजबूत होती है।

बहिष्कार का इतिहास

हमारे पड़ोस में दो देश हैं जिन्होंने बहिष्कार को बार-बार आजमाया है। बांग्लादेश में 1986 और 1988 में खालिदा जिया की बीएनपी ने सैन्य शासक इरशाद के खिलाफ चुनाव का बहिष्कार किया। नतीजा सकारात्मक रहा – 1990 में जनांदोलन ने जनरल इरशाद को सत्ता से बेदखल कर दिया। लेकिन बाद के प्रयोग उलटे पड़े।

2014 और 2024 में बीएनपी ने शेख हसीना के खिलाफ बहिष्कार किया। दोनों बार अवामी लीग को सारी सीटें मिलीं, सत्ता और मजबूत हुई। 2024 में मतदान प्रतिशत सिर्फ 40% रहा, फिर भी हसीना चौथी बार प्रधानमंत्री बनीं। आखिरकार उनकी सत्ता गयी भी तो छात्र आंदोलन से गयी, बहिष्कार से नहीं।

पाकिस्तान में इमरान खान की पार्टी पीटीआई ने सेना के दबाव को देखते हुए चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन उनकी पार्टी के नेताओं ने निर्दलीय लड़ा। उन्हें सबसे ज्यादा वोट मिले, लेकिन सत्ता शहबाज शरीफ की गोद में बैठ गई। बहिष्कार होता तो शायद पीटीआई आज और हाशिये पर होती। फ़िलहाल नेशनल असेंबली में उसके तमाम सदस्य हैं।

दुनिया भर में हुए शोध भी यही कहते हैं। ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट के 2016 के अध्ययन में 171 चुनाव बहिष्कार के मामलों का विश्लेषण किया गया। निष्कर्ष था – ज्यादातर मामलों में बहिष्कार करने वाली पार्टी को ही नुकसान हुआ। वोटर बेस छिटक गया, संसद में जगह खो दी, सत्ता पक्ष को वॉकओवर मिल गया। स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता भी कहते हैं – दुनिया में सिर्फ 3-5 प्रतिशत बहिष्कार ही सफल हुए, वो भी तब जब उसके साथ बड़ा जनआंदोलन और अंतरराष्ट्रीय दबाव रहा हो। अकेला बहिष्कार ज्यादातर विपक्ष को खत्म कर देता है।

भारत का लोकतंत्र?

अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अब खुलकर बोल रही हैं कि भारत का लोकतंत्र गहरे संकट में है।

Economist Intelligence Unit (EIU) की 2024 की डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत 167 देशों में 41वें स्थान पर है। 2014 में 27वें नंबर पर थे। स्कोर 7.18 – यानी भारत “फ्लॉड डेमोक्रेसी” या लंगड़ा लोकतंत्र कहा जा सकता है।

स्वीडन का V-Dem इंस्टीट्यूट और भी सख्त है। 2024 की रिपोर्ट में भारत को “इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी” कहा गया है – यानी चुनाव तो होते हैं, लेकिन नतीजे नियंत्रित और प्रभावित। रैंक 179 देशों में 100वाँ। रिपोर्ट चेताती है कि भारत “क्लोज्ड ऑटोक्रेसी” बनने के करीब है।
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पूंजी को अब लोकतंत्र नहीं चाहिए

कई विचारक मानते हैं कि आज का संकट सिर्फ एक पार्टी या एक नेता का नहीं है। यह पूंजीवाद के मौजूदा संकट का नतीजा है। दुनिया भर के कई देशों में चुनकर आये नेताओं में तानाशाही की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति देखी गयी है। वे लोकतंत्र को विकास में बाधा मान रहे हैं। भारत में नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत ने दिसंबर 2020 में जो कहा था, वह आज भी गूंजता है– “Tough reforms are very difficult in the Indian context, we are too much of a democracy.” यानी कड़े सुधार करने में “ज्यादा लोकतंत्र” बाधा बनता है। बयान पर बवाल हुआ, लेकिन काम उसी दिशा में हुआ।

राहुल गांधी बार-बार “क्रोनी कैपिटलिज्म” यानी याराना पूँजीवाद की बात करते हैं। यह वह तंत्र है जिसमें चुनिंदा पूंजीपतियों के लिए ही सरकार काम करती है, बदले में पार्टी को अकूत धन मिलता है। इसी वजह से चुनाव इतने महँगे कर दिये गये हैं कि आम आदमी या छोटी पार्टियाँ चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकतीं। बिहार में चुनाव से ठीक पहले करोड़ों महिलाओं के खाते में दस-दस हजार रुपये डाले गए। पहले ऐसे मामलों में चुनाव आयोग तुरंत रोक लगाता था, इस बार चुप रहा। मीडिया ने भी इसे मुद्दा नहीं बनाया।
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यानी सत्ता और पूंजी का गठजोड़ इतना मजबूत हो गया है कि उसे अब “लोकतंत्र की बाधा” नहीं चाहिए। पांच किलो मुफ्त अनाज और चुनाव से पहले दस हजार की रिश्वत देकर वोट ख़रीदने को ही लोकतंत्र कहा जा रहा है। यानी जनता को तमाशबीन बना दिया गया है।

तो रास्ता क्या है?

इसके बावजूद विपक्ष के लिए बहिष्कार कोई समाधान नहीं। संसद अगर सर्द पड़ जाए तो सड़क गर्माना ही एकमात्र विकल्प बचता है। लेकिन सड़क पर सिर्फ विपक्ष नहीं, आम जनता को भी उतरना होगा। संस्थाओं को मुक्त कराने की लड़ाई लंबी है, पर इसे टाला नहीं जा सकता। यह मोर्चा सड़क पर लेना होगा और संसद में भी।