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घोसी के नतीजे को क्यों 1974 के जबलपुर से जोड़ा जा रहा है?

उत्तर प्रदेश के घोसी विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव के नतीजे को दलीय आधार पर देखें, तो इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। यह सीट पहले भी सपा के पास थी और इस बार भी सपा उम्मीदवार ने यह सीट जीती है। खासतौर से हिन्दी पट्टी के प्रमुख अख़बारों को देखें, तो यह नतीजा ऐसा ही दिखता है। परंतु यह आधा सच है। अब इस पर खासी चर्चा हो चुकी है कि इस उपचुनाव में सपा उम्मीदवार सुधाकर सिंह की जीत कोई सामान्य जीत नहीं है, बल्कि यह नवगठित विपक्षी गठबंधन इंडिया की जीत है। इसी तरह से कई दलों का सफर कर भाजपा में पहुंचे दारा सिंह चौहान की पराजय को सिर्फ़ एक सामान्य पराजय की तरह नहीं देखा जा रहा है, तो इसकी वजह यही है कि राज्य की योगी आदित्यनाथ सरकार और केंद्र की मोदी सरकार ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। 

घोसी को 2024 के चुनाव के लिए ठीक उसी तरह के प्रस्थान बिंदु की तरह देखा जा रहा है, जिस तरह से 1974-75 में जबलपुर लोकसभा के उपचुनाव में संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में शरद यादव ने कांग्रेस उम्मीदवार को पराजित किया था। पर क्या करीब पांच दशक बाद यह तुलना ठीक होगी? निश्चित रूप से तब और अब में खासा बदलाव आ चुका है, फिर भी, नवगठित इंडिया के लिए 1977 के 'जनता' प्रयोग में कई सबक छिपे हुए हैं।

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वैसे, 1974 के भीषण आंदोलन के दौर में संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में शरद यादव की जीत पहली जीत नहीं थी। क्रिस्टॉफ जैफरलेट ने अपनी किताब द हिन्दू नेशनलिस्ट मूवमेंट ऐंड इंडियन पॉलिटिक्स में विस्तार से बताया है कि जबलपुर के उपचुनाव से थोड़ा पहले दिसंबर, 1974 में भोपाल विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में संयुक्त विपक्ष जिसे जनता नाम दिया गया था, के उम्मीदवार बाबूलाल गौर विजयी हुए थे। गौर जनसंघ के सदस्य थे। उसके कुछ दिन बाद 21जनवरी, 1975 को जबलपुर लोकसभा के उपचुनाव के नतीजे आए थे, जिसमें जनता उम्मीदवार शरद यादव ने कांग्रेस के दिग्गज सेठ गोविंददास के निधन से रिक्त हुई सीट पर उनके भतीजे को पराजित किया था।

एक तरह से यह जेपी के जनता पार्टी के प्रयोग की शुरुआत थी। वास्तव में जनता पार्टी का यह प्रयोग कुछ महीने बाद अपनी भ्रूण अवस्था में ही विफल हो सकता था,  यदि इंदिरा गांधी ने पी. एन. धर जैसे चुनिंदा सलाहकारों का सुझाव मानकर 1976 की शुरुआत में नियत लोकसभा के चुनाव करवा लिए होते! इसके उलट इंदिरा गांधी ने न केवल चुनाव टाल दिया, बल्कि लोकसभा का कार्यकाल भी एक साल के लिए बढ़वा दिया। महज 27 वर्ष के शरद यादव ने इसके विरोध में 18 मार्च, 1976 को लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और इसीलिए जबलपुर लोकसभा का उपचुनाव जनता पार्टी के प्रयोग के लिहाज से अहम माना जाता है।

इंदिरा गांधी ने जेपी आंदोलन के चरम के समय 25-26 जून, 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल घोषित किया था। इसके तुरंत बाद जेपी सहित विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं के साथ ही विपक्षी दलों के हजारों कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई थी। इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है कि इंदिरा यदि छह महीने बाद आपातकाल हटा देतीं और चुनाव करवातीं, तो शायद नतीजे 1977 जैसे नहीं आते। हालाँकि वह सत्ता पर लगातार न केवल पकड़ मज़बूत करती गईं, बल्कि ऐसे फ़ैसले लिए जिसका खामियाजा देश की सांविधानिक संस्थाओं को भुगतना पड़ा है।
दरअसल, नवगठित विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की 1977 के जनता प्रयोग से तुलना किए जाने की एक बड़ी वजह यह भी है कि यह गठबंधन भी नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली एक ऐसी सत्ता के विरोध में है, जिसने सांविधानिक संस्थाओं को कमजोर किया है।

1975-77 के समय की तुलना आज की सत्ता से होती है, तो इसका कारण सत्तावादी प्रवृत्तियां ही हैं। अलबत्ता दोनों समय में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका को लेकर एक बड़ा फर्क है।

जनता पार्टी के गठन और उसके बिखराव में आरएसएस की बड़ी भूमिका थी। जेपी ने अपने आंदोलन के दौरान आरएसएस और भारतीय जनसंघ को साथ लेने से गुरेज नहीं किया था। हालाँकि वह अनेक मौक़ों पर यह उम्मीद ज़रूर करते रहे कि आरएसएस अपना हिंदुत्व का एजेंडा छोड़ देगा। वह यह उम्मीद भी कर रहे थे कि जनता पार्टी में जनसंघ के विलीन होने के बाद आरएसएस के अलग अस्तित्व की ज़रूरत नहीं रह जाएगी। यह सब इतिहास में दर्ज है कि किस तरह से आरएसएस ने न केवल अपना अलग अस्तित्व बनाए रखा, बल्कि वह जनता पार्टी की कीमत पर लगातार मजबूत भी होता गया।

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जबलपुर के लोकसभा उपचुनाव के क़रीब डेढ़ साल बाद 25 मई, 1976 को जेपी ने मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जनता पार्टी के गठन की घोषणा की थी। हालाँकि उस समय चरण सिंह ने आरएसएस को लेकर एतराज किया था और अपने भारतीय लोकदल के जनता पार्टी में विलय को तैयार नहीं थे। समाजवादी नेता मधु लिमये ने भी जेल के भीतर से आरएसएस का विरोध किया था। लेकिन जेपी के विश्वास पर अंततः जनता पार्टी का गठन हो गया।

1977 में इंदिरा गांधी ने जब चुनाव करवाने की घोषणा की थी, तब औपचारिक रूप से जनता पार्टी का चुनाव आयोग में पंजीयन नहीं हुआ था, इसलिए जनता पार्टी के उम्मीदवारों को भारतीय लोकदल के उम्मीदवार और उस पार्टी के चुनाह चिह्न हलधर किसान से चुनाव लड़ना पड़ा था। महज ढाई साल में मोरारजी देसाई की अगुआई वाली सरकार के पतन का कारण भी जनता पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के साथ ही आरएसएस की भूमिका थी। 

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12 जुलाई, 1978 को मोरारजी देसाई की सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में बोलते हुए राजनारायण ने आरएसएस के साथ ही देसाई पर सांप्रदायिकता को लेकर बहुत तीखे हमले किए थे। राजनारायण ने गुजराती की एक किताब आछे मोरारजी देसाई (यह हैं मोरारजी देसाई) के अंश पढ़कर सुनाए जिसमें कहा गया था कि गुजरात के गोधरा में 1929-30 में हुए दंगों के समय अंग्रेज सरकार की एक जाँच रिपोर्ट में देसाई को एसडीएम के रूप में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन न करने का दोषी ठहराया गया था! राजनारायण यहीं नहीं रुके, उन्होंने कहा, "मैं यह इस सदन को समझाना चाहता हूं कि आज श्री मोरारजी देसाई और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठबंधन क्यों है...।"

अंततः दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर देसाई की अगुआई वाली जनता पार्टी की सरकार का प्रयोग नाकाम हो गया। आज करीब साढ़े चार दशक बाद राजनीति 180 डिग्री घूम चुकी है। इंडिया गठबंधन में शामिल दलों को अहसास होगा कि उनकी वास्तविक लड़ाई आरएसएस से है। क़रीब एक दशक में उत्तर प्रदेश आरएसएस की नई प्रयोगशाला के रूप में सामने आया है, इसी के फलस्वरूप भाजपा ने 2014 और 2019 में यहाँ से रिकॉर्ड क्रमशः 71 और 62 सीटें जीती थीं। क्या घोसी के नतीजे 2024 का कोई संदेश दे सकते हैं? यह इंडिया को तय करना है।

(सुदीप ठाकुर पत्रकार और ‘दस साल, जिनसे देश की सियासत बदल गई’ के लेखक हैं)

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सुदीप ठाकुर
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