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आम चुनाव 2024ः भाजपा और विपक्ष के तरकश में कितने तीर

लीजिए साहब, गोदी मीडिया जो बात मुंह पर लाते डर रहा था, उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ‘द ऑर्गनाइजर’ ने कह दिया! यह कि भारतीय जनता पार्टी के चुनाव जीतने के लिए नरेंद्र मोदी का करिश्मा और हिन्दुत्व काफी नहीं हैं। गौरतलब है कि ‘द ऑर्गनाइजर’ ने यह बात ऐसे समय कही है जब वरिष्ठ पत्रकार वीर संघवी लिख चुके हैं कि सत्ता के मद में खोई भाजपा वैसी ही अहंकारी पार्टी बन गई है, जिसको लेकर मोदी कभी कांग्रेस को दिल्ली सल्तनत की मालकिन कहकर कोसा करते थे। इसलिए विभिन्न समुदायों में व्याप्त असंतोष के बीच 2014 में भाजपा को मिला जनादेश एक्सपायर होने की ओर बढ़ चला है और उसकी पुरानी रणनीतियों ने काम करना बन्द कर दिया है। 
इतना ही नहीं, भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी को भी लगता है कि इससे मोदी का महानायकत्व ही नहीं उनकी ‘तांत्रिक पूजा’ भी बैक फायर करने लगी है, जिसका असर इतना भर ही नहीं है कि हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक के मतदाताओं ने भी उनकी नहीं सुनी, बल्कि यहां तक कहा जाने लगा है कि 2014 का चायवाले का बहुचर्चित बेटा कहीं खो गया है और जो ‘महानायक’ उस वक्त देश की सारी समस्याओं का हल अपने पास होने का दावा करता था, आज खुद देश की सबसे बड़ी समस्या बन गया है।
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साफ है कि अब मोदी व भाजपा की रीति नीति ही उनकी दुश्मन बन गई है। फिर भी मीडिया के कई महानुभाव अपने इस सवाल का समाधान नहीं कर पा रहे कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके खिलाफ विपक्ष के तरकश में कौन-कौन से तीर होंगे और वे कितने कारगर सिद्ध होंगे? अफसोस कि ये महानुभाव याद नहीं करना चाहते कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और उसके गठबंधन की मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ भाजपा के तरकश में कौन-कौन से तीर थे, न ही समझना चाहते हैं कि ऐंटी इनकम्बैंसी के कारण अब वे सारे के सारे तीर विपक्ष के तरकश में आ गये हैं और भाजपा के विरोधियों ही नहीं, अंधभक्ति से परहेज रखने वाले समर्थकों को भी लगने लगा है कि इस बीच देश की राजनीति अपनी धुरी पर पूरे 360 अंश घूम गई है, जिससे न सिर्फ 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को मिला जनादेश बल्कि मोदी का वह महानायकत्व भी लुढक गया है, जिसे दूसरे शब्दों में इमोशनल अत्याचार कहा जाता है।
इसी इमोशनल अत्याचार की बिना पर मोदी ने 2014 में भाजपा के हिन्दुत्ववादी वोटबैंक के साथ विकास के आकांक्षी कई समुदायों को रिझा लेने के असम्भव माने जा रहे चमत्कार को संभव कर दिखाया था। 2019 में उन्होंने उसकी कहीं ज्यादा दमदार पुनरावृत्ति भी कर दिखाई थी। हालांकि ऐसा कहने वाले भी हैं कि पुलवामा कांड न हुआ होता तो नतीजे कुछ और होते और अतीत के कई लोकसभा चुनाव गवाह हैं कि नायकों व उनकी सरकारों के खिलाफ एंटीइन्कम्बैंसी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है तो विपक्ष को उनके खिलाफ नये तीर नहीं तलाशने पड़ते। न ही मतदाता उनकी बेदखली के लिए विकल्पों की तलाश में छोटे-बड़े जोखिम उठाते डरते हैं।
2014 में कांग्रेस ने उनको भाजपा और मोदी की कारस्तानियों से कुछ कम नहीं डराया था, लेकिन चूंकि उन्होंने मनमोहन सरकार की बेदखली का मन बना लिया था, इसलिए वे नहीं डरे। अब मोदी व भाजपा से निराश होने के बाद वही मतदाता उनके दिखाए इस डर से क्यों कर डर जायेंगे कि विपक्ष एकजुट नहीं है या उसके पास मोदी की टक्कर का कोई नेता नहीं है और उसे चुन लिया गया तो देश राजनीतिक अस्थिरता के हवाले हो जायेगा? कर्नाटक में तो वे इससे भी नहीं डरे कि राज्य में कांग्रेस की सरकार आई तो उसे मोदी का आशीर्वाद नहीं मिलेगा और दंगे शुरू हो जायेंगे। 
2014 में उन्होंने मोदी को चुना था तो, और तो और, उनके गुरु लालकृष्ण आडवाणी भी सच्चे मन से उनका रास्ता हमवार नहीं होने देना चाहते थे। यानी उनको लेकर देश तो देश, भाजपा में भी सर्वानुमति नहीं थी और समझा जा रहा था कि भाजपा के बहुमत से दूर रह जाने पर आडवाणी मोदी के लिए वही भूमिका निभायेंगे जो अटल आडवाणी के लिए निभाते आये थे। लेकिन तब ऐसे सारे अनुमानों के ताऊ बन गये मतदाता उसी तरह 2024 में ताऊ क्यों नहीं बन सकते, जबकि कर्नाटक में उन्होंने जता दिया है कि किसी सरकार को उसके किये की सजा देने के लिए वे किसी भी तरह की विपक्षी एकता के मोहताज नहीं हैं और तिकोने चैकोने मुकाबलों में भी अपने विवेक का समुचित इस्तेमाल करके उसे चलती कर सकते हैं।
इस मोड़ पर एक नया सवाल पैदा होता है: 2024 में अपने तरकश के लिए नये तीरों की तलाश में विपक्ष को ज्यादा दिक्कतें पेश आने वाली हैं या भाजपा को? जैसे भारी भरकम वायदों की बिना पर भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव जीते, उन सबके झूठे सिद्ध होने या इमोशनल अत्याचार में बदल जाने का भारी बोझ अपनी पीठ पर लादकर 2024 में वह मतदाताओं के समक्ष कैसे जायेगी, जबकि मूोदी सरकार का मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस का दावा अब राजधर्म के उल्लंघन के दौर से निकलकर क्रूर राजदंड के दौर में आ पहुंचा है और अंतरराष्ट्रीय सूचकांक कहते हैं कि हमारी आजादी आंशिक और लोकतंत्र लंगड़ा हो गया है। उसका दुर्भाग्य कि एक ओर उसे हर तरह के आत्मावलोकन से परहेज है और दूसरी ओर अब तक उसे हर तरह की ऐन्टीइन्कम्बैंसी से अभय करते आते उसके हिन्दुत्व, मोदी के महानायकत्व और राष्ट्रवाद के कवच व कुंडल अपराजेय या करिश्माई नहीं रह गये हैं। इतने भी नहीं कि उसे जैसे तैसे चुनावी वैतरणी पार कराने में सहायक सिद्ध हो सकें। 
निस्संदेह, उसे उम्मीद है कि अयोध्या का भव्य राममंदिर अगली जनवरी में श्रद्धालुओं के लिए खुलेगा तो उसमें विराजमान रामलला के दर्शन-पूजन के लिए टूटती भीड़ कृतज्ञता से भरकर उसकी झोली वोटों से भर देंगी। इसे सुनिश्चित करने के लिए उसकी उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार व्यापक तोड़फोड़ करके अयोध्या में त्रेता युग उतार कर उसको नया रूप देने में लगी है। लेकिन इस मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के 2019 के फैसले के बाद देश में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें से ज्यादातर में ऐसी कोई कृतज्ञता नजर नहीं आई है क्योंकि विपक्ष मतदाताओं को समझाने में सफल रहा है कि मंदिर कोर्ट के फैसले से बन रहा है।
कर्नाटक की गवाही मानें तो अब न ‘जो राम को लाये हैं, हम उनको लायेंगे’ का नारा भाजपा के काम आ रहा है, न ही बजरंगबली की जय बोलकर वोट देने का प्रधानमंत्री का आह्वान।और विपक्ष के पास नये तीर न भी हों तो वह भाजपा को उसके पुराने वायदे याद दिलाकर उन्हें ही उसके गले की फांस बना देने की स्थिति में है। इस कारण और कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने हिन्दुत्व को सनातन के नये खोल में पेश करने की उसकी कोशिशों के बरक्स दलितों, वंचितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को सामाजिक न्याय का अलम अपने हाथ में ले लिया है-हां, उनकी आबादी के अनुपात में अधिकारों का भी। 
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उसके जिस नेता पर प्रधानमंत्री कभी यह कहकर तंज किया करते थे कि कुछ लोगों की उम्र बढ़ती जाती है,  लेकिन बुद्धि नहीं बढ़ती और उनके लोग उसे पप्पू कहकर चिढ़ाते थे, एक लम्बी यात्रा में सारे अंतर्द्वंद्वों पर विजय पा लेने के बाद का उसका नया अवतार अब उनके लिए इतना असहनीय हो चला है कि उसका मुंह बन्द करने व उसे मुकाबले से हटाने के लिए वे अपनी गिरावट की कोई सीमा ही नहीं तय कर पा रहे, जबकि उसके द्वारा नफरत के बाजार में खोली गई मुहब्बत की दुकानों पर ग्राहक भी आने लगे हैं।
जिस पार्टी को प्रधानमंत्री मां-बेटे और भाई-बहन की पार्टी बताया करते थे, इसी नेता की जिद के चलते अब उसके पास एक निर्वाचित गैरगांधी दलित अध्यक्ष भी है और उसके गृह राज्य में प्रधानमंत्री अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर मतदाताओं के सामने उसके और उसकी पार्टी द्वारा उन्हें दी गई गालियां गिना कर भी हार स्वीकारने को मजबूर हो गये हैं।
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कह सकते हैं कि विपक्ष ने आगामी लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और उसके ‘महानायक’ की अभीष्ट घेराबन्दी कर ली है, लेकिन इससे अति आत्मविश्वास का शिकार हो जाना खुद उसके ही खिलाफ जायेगा। इसलिए उसे किसी भी मुगालते से बचकर अपने प्रहारों और बचावों का सही समय चुनना और सारे अवसरों का सदुपयोग कर विजय को अपने हाथ से फिसलने से रोकना होगा। समझना होगा कि विजयश्री कभी भी उपयुक्त समय पर शर संधान न कर पाने वाले वीरों का वरण नहीं करती।
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कृष्ण प्रताप सिंह
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