प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पांच देशों की यात्रा के इस मौके पर राजनय के विशेषज्ञों ने फिर एक बार जोरदार सलाह दी है कि भारत को आदर्शवादी और आशक्तिपूर्ण विदेश नीति को त्यागकर व्यावहारिक विदेश नीति अपनानी चाहिए। वैसे यह सलाह शीत युद्ध के बाद से ही शुरू हो गई थी और स्पष्ट रूप से तमाम विशेषज्ञों ने भारत को अर्थवाद और यथार्थवाद की ओर मुड़ने की सलाह देने और सरकार को उस दिशा में मुड़ने की प्रेरणा देनी शुरू कर दी थी। भारत उस दिशा में मुड़ा भी और उसने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का विऔपनिवेशीकरण का चोला एकदम उतार ही फेंका। 

आर्थिक वैश्वीकरण के तीव्र प्रवाह में भारत का उतरना इसका स्पष्ट प्रमाण है। लेकिन पहलगाम हमले के बाद जब भारत ने ‘आपरेशन सिंदूर’ किया और उसका पाकिस्तान की ओर से भी कड़ा प्रतिकार किया गया तो पूरी दुनिया में कोई भी महत्त्वपूर्ण देश भारत के साथ खुलकर खड़ा होने को तैयार नहीं हुआ। 
इसराइल और अफगानिस्तान जरूर भारत के पक्ष में खड़े दिखे लेकिन उनकी वैश्विक बिरादरी में  अपनी साख बेहद संदिग्ध है। अमेरिका ने युद्धविराम का श्रेय़ लेकर भारत और पाकिस्तान को पहले एक ही पायदान पर खड़ा कर दिया और फिर वहां के सेना प्रमुख आसिम मुनीर के सम्मान में डिनर देकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने न सिर्फ पाकिस्तान का हौसला बढ़ाया बल्कि भारत को नीचा भी दिखाया। 
भारत की इस किरकिरी के जवाब में विदेश नीति के विशेषज्ञों ने जो विश्लेषण और समाधान प्रस्तुत किया उसका एक तरफ यह कहना था कि पाकिस्तान भारत की तरह न तो मूल्य आधारित आदर्शवादी विदेश नीति रखता है और न ही किसी तरह का अड़ियलपन दिखाता है। यही वजह है कि आज उसके साथ चीन से लेकर अमेरिका तक खड़े हुए हैं। जबकि भारत की विदेश नीति में जो आदर्शवाद का कीड़ा घुसा हुआ है वही उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। इसलिए जितनी जल्दी हो सके भारत को इस कीड़े को निकाल फेंकना चाहिए।

भारत की विदेश नीति चौराहे पर

इस समय वैश्विक व्यवस्था में जितने बड़े पैमाने पर अविश्वास, अनिश्चितता और अराजकता व्याप्त है उसमें भारत की विदेश नीति एक किस्म के चौराहे पर खड़ी है। संयुक्त राष्ट्र और डब्ल्यूटीओ के तहत बनने वाली विश्व व्यवस्था को अब कोई मानने को तैयार नहीं है। आत्मरक्षा की सभी देश अपनी अपनी परिभाषा गढ़ रहे हैं। कोई देश आतंकवाद को प्रोत्साहित करने को अपनी आत्मरक्षा बताता है तो कोई उसे खत्म करने को। कोई देश परमाणु हथियार बनाने को अपनी आत्मरक्षा बताता है तो कोई उसे नष्ट करने को। एक विचित्र किस्म के अराजक विश्व का निर्माण हो चुका है। 1991 में निर्धारित आर्थिक वैश्वीकरण के लक्ष्य को अमेरिका जैसे दुनिया के शक्तिशाली देश ने खारिज कर दिया है और सारे विश्व में समृद्धि और लोकतंत्र लाए जाने की जगह पर अमेरिका को फिर से महान बनाने का लक्ष्य सामने आ चुका है।

भारत का ब्रिक्स से क्वाड तक का सफर

भारत अगर वैश्वीकरण में अमेरिकी प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिए ब्रिक्स में शामिल हुआ तो चीन के बढ़ते दबदबे को कम करने के लिए क्वाड का सदस्य बना। लेकिन अब उसे यह दोनों संगठन नाकाफी और अविश्वसनीय लग रहे हैं। ब्रिक्स में अगर चीन और रूस भारत के साथ नहीं खड़े हो रहे हैं तो भारत भी ईरान जैसे देश के साथ खड़ा नहीं हो रहा है। क्वाड के देशों ने भले ही अमेरिका में चल रहे सम्मेलन में आतंकवाद के विरुद्ध बयान जारी कर दिया लेकिन यह नौबत आपरेशन सिंदूर या पहलगाम हमले के दो महीने बाद आई। 
उसी तरह से भारत अगर शंघाई सहयोग संगठन में रूस और चीन से व्यावहारिक रिश्ते कायम रखने के लिए शामिल हुआ तो वहां से भी उसे निराशा हाथ लगी। हाल में हुए सम्मेलन में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संयुक्त बयान में पहलगाम का जिक्र न होने पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और कलम खोलकर फिर उसे बंद कर दिया। 

भारत को क्षेत्रीय नेतृत्व की कमान हाथ में लेनी होगी 

इस भ्रामक स्थिति का सामना करने के लिए विशेषज्ञ भारत को यही सलाह दे रहे हैं कि वह बहुपक्षीय विश्व में हर जगह अपने लिए स्थान ढूंढे लेकिन किसी पर यकीन न करे। यहां तक संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच पर भी सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान की हैसियत बढ़ने से भारत कमजोर पड़ा हुआ है। मूल्य विहीन विदेश नीति के पैरोकारों का कहना है कि भारत को एक ओर अपने देश में आर्थिक सुधारों को तेज करना चाहिए और दूसरी ओर क्षेत्रीय नेतृत्व की कमान अपने हाथ में लेनी चाहिए। इसी से उसे राजनयिक सफलता हासिल होगी।
आतंकवाद, अविश्वास और अस्थिर विश्व के भीतर अपनी जगह बनाने को आतुर भारत के समक्ष विदेश नीति की दुविधा बढ़ी है। एक ओर हमारे समक्ष शीत युद्ध युग में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा बनाई गई गुटनिरपेक्ष आंदोलन की मूल्य आधारित विदेश नीति का पुराना मोह(नास्टैल्जिया) है तो दूसरी ओर मूल्य विहीन विदेश नीति अपनाने के न्यू नार्मल का आकर्षण है। 

जहां गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बहाने भारत को विश्व में सम्मान और तमाम देशों का नेतृत्व करने का अवसर मिला था वहीं मौजूदा स्थिति में उसे आर्थिक रूप से समृद्ध होने लेकिन विश्व गुरु का दावा करने के बावजूद अनुयायियों के लाले पड़ रहे हैं।

पर यह दुविधा भारत की ही नहीं पूरी दुनिया की है। हमने जिस तरह के अनैतिक, भौतिकवादी और स्वार्थी विश्व की रचना कर दी है उसमें न तो राष्ट्रों का जीवन सरल है और न ही नागरिकों का। ग्लोबल विश्व के आह्वान के बीच न तो अंतरराष्ट्रीय शांति, स्थिरता और भाईचारे के मूल्य का पालन हो रहा है और न ही मानवाधिकार और लोकतंत्र का।
दरअसल मूल्य आधारित विदेश नीति और राष्ट्रीय हित आधारित विदेश नीति के बीच एक टकराव हमेशा से रहा है। श्रेष्ठ विदेश नीति वही होती है जिसमें दोनों का समन्वय हो। आज समन्वय समाप्त हो गया है और तनाव बढ़ गया है। इस सिलसिले में ‘वैल्यूज इन फारेन पालिसी’ शीर्षक से हाल में आई पुस्तक बहुत सारे पहलुओं पर चर्चा करती है। पुस्तक का संपादन कृष्णन श्रीनिवासन, जेम्स मेयल और संजय पुलिपका ने किया है। इस पुस्तक में शामिल लेख यह विमर्श उपस्थित करते हैं कि वास्तविक दुनिया में सैन्य सत्ता, राजनीतिक सत्ता और आर्थिक सत्ता की खींचतान ही विदेश नीति का निर्धारण करती है। इसलिए राष्ट्रीय हित ही सर्वोपरि दिखाई देते हैं। राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखने वाली विदेश नीतियों से अल्पकाल में राष्ट्रों और राष्ट्रीय नेतृत्व की हैसियत बढ़ती है और उन्हें लाभ भी होता दिखता है लेकिन दीर्घकाल में इससे विश्व व्यवस्था अस्थिर और असुरक्षित हो जाती है।
संपादकों का कहना कि दो सदी तक दुनिया पर पश्चिमी मूल्यों का प्रभाव रहा। जो कि अब कमजोर पड़ रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या पूर्वी देशों के मूल्य दुनिया की भूराजनीति पर अपना प्रभाव छोड़ेंगे? वास्तव में पश्चिमी देशों ने मानवाधिकार, आधुनिकता, राष्ट्रीय संप्रभुता और लोकतंत्र के जिन सार्वभौमिक मूल्यों को अपनी विदेश नीति का हिस्सा बनाने का दावा किया और जिसके तहत वे अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिकी देशों को सभ्य बना रहे थे, उसमें भारी छल था। इसीलिए वे आज मजबूत होने के बजाय भरभरा कर गिर रहे हैं। 
नोम चोमस्की जैसे विचारक तो अमेरिकी विदेश नीति के इसी पाखंड को निरंतर उजागर करते रहे हैं। वे युगोस्लाविया पर नाटो देशों के हमले को सैन्य मानवतावाद(मिलिट्री ह्यूमैनिज्म) की संज्ञा देते हैं। बोल्निया-हरजेगोबिना के संघर्ष में अल्बानिया मूल की जातीय आबादी और सर्बिया के संघर्ष में नाटो का हस्तक्षेप बहुत पाखंडी तर्क पर आधारित था। उसी तरह का पाखंडी तर्क अफगानिस्तान और इराक पर और अभी ईरान पर हमले के लिए किया गया। वे कहीं स्थायी स्वतंत्रता लाने की बात कर रहे थे तो कहीं स्थिरता और लोकतंत्र। इन सारी करतूतों के बाद विदेश नीति के पश्चिमी मूल्यों से भरोसा उठता गया है।
यूरोप और अमेरिका की विदेश नीति का एक बड़ा हिस्सा हथियार कंपनियों द्वारा निर्धारित होता है। उसी से जुड़ा होता है तीसरी दुनिया के देशों के खनिजों का दोहन। सौ हथियार कंपनियों के हथियारों के कारोबार में निरंतर तीव्र बढ़ोतरी देखी जा रही है। अगर 2023 में यह 632 अरब डॉलर था तो 2024 में 2.443 खरब डॉलर हो चला है। रोचक तथ्य यह है कि हथियारों के सौदागर के रूप में अब एशियाई देश चीन भी उभर रहा है। यह स्थिति मूल्य आधारित युद्ध और मूल्य आधारित विदेश नीति के बजाय युद्ध आधारित मूल्य निर्मित करती है।
ऐसे में चीन, भारत, मध्यपूर्व, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देश अपने धर्म, संस्कृति और इतिहास के आधार पर विदेश नीति के नए मूल्य गढ़ते हैं। लेकिन टकराव तब होता है जब वे दूसरे देश के मूल्यों को समझने में गलती करते हैं। ऐसी नीतियां कभी टकराव कभी युद्ध की ओर ले जाती हैं। कहा जाता है कि चीन अपनी विदेश नीति को गढ़ने में ताओवाद और कन्फूसियसवाद जैसे दार्शनिक विचारों की मदद लेता रहता है। 
हालांकि इसी के साथ वह अपनी सत्ता और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भूभाग और प्रभाव का निरंतर विस्तार भी करता रहता है। जापान ने 2006 में शिंजो आबे के नेतृत्व में मूल्य आधारित राजनय की पहल की। उसका उद्देश्य लोकतंत्र, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, कानून का शासन और बाजार अर्थव्यवस्था के नियमों को बढ़ावा देने का प्रयास किया। उसी दिशा में क्वाड भी समुद्री नियमों के निर्धारण और दुर्लभ खनिजों के व्यापार के नियम बनाने के लिए प्रयासरत है।
लेकिन जिस तरीके से अमेरिका डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में संधियां तोड़ने और नई संधियां करने के रास्ते पर चल निकला है उसका परिणाम है गहरा अविश्वास और अस्थिरता। ध्यान रहे कि हिटलर भी यही करता था। वे ईरान से 2015 में हुई परमाणु संधि ही नहीं तोड़ते बल्कि जलवायु परिवर्तन की संधियों की परवाह भी नहीं करते। वे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के संकल्पों को भी नहीं मानते। अगर दुनिया के व्यापार के नियमों को तय करने के लिए डब्ल्यूटीओ की व्यवस्था चल रही थी तो किसी एक राष्ट्र को अपनी मनमानी करने की क्या जरूरत थी। ऐसे में कोई देश या कोई विशेषज्ञ किसी देश को किस नैतिक आधार पर आर्थिक सुधार तेज करने की सलाह दे सकता है।
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जाहिर है भारत जो कि बुद्ध, गांधी और नेहरू की शांति, अहिंसा और जियो और जीने दो की महान परंपरा का आज भी स्मरण करता है और अपने उच्च आदर्शों को भूला नहीं है उसे पूरी तरह मूल्यहीन विदेश नीति की ओर ढकेलना आसान नहीं होगा। हमारे प्रधानमंत्री जहां तहां बसुधैव कुटुंबकम का उल्लेख करते ही रहते हैं। यह युद्ध का युग नहीं है यह कथन भी भारत ही दोहराता रहता है। लेकिन सुरक्षा और शक्ति के बहाने भारत पर मूल्यविहीन यथार्थवादी विदेश नीति का दबाव भी काफी है। जाहिर है पहला मार्ग एक विश्वसनीय और स्थिर विश्व का निर्माण करेगा  जहां सभी का भविष्य उज्जवल होगा और दूसरा रास्ता एक असुरक्षित और अविश्वसनीय विश्व बनाएगा। कौन सा मार्ग उचित है इसका फैसला वक्त तो करेगा ही।