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लोगों के लिए फायदेमंद क्या- ‘मोदी की गारंटी’ या कांग्रेस का ‘न्याय-पत्र’?

चुनाव के संदर्भ में मैनिफेस्टो अर्थात घोषणापत्र, किसी राजनैतिक दल का वह लिखित दस्तावेज है जिसमें दल की नीयत, उद्देश्य और विचार समाहित किए जाते हैं। घोषणा पत्र के माध्यम से सभी दल अपने विजन को जनता के सामने रखते हैं, घोषणापत्र की भाषा राजनैतिक दल के मूल्यों की भी परिचायक होती है।

हाल ही में सत्तारूढ़ दल, भारतीय जनता पार्टी ने अपना घोषणापत्र जारी किया। घोषणा पत्र का नाम ‘संकल्प-पत्र’ रखा गया है। इससे पहले मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी अपना घोषणा पत्र जारी किया था। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र का नाम ‘न्याय-पत्र’ रखा है। दोनों दलों की अप्रोच (उपागम) बिल्कुल अलग है। जहां बीजेपी द्वारा रखा गया नाम ‘संकल्प पत्र’ आत्मकेंद्रित और संकुचित दृष्टिकोण से ग्रसित नजर आता है तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस का ‘न्याय पत्र’ अपने नाम से ही समाज की ओर उन्मुख दिखता है। संकल्प पत्र की प्रतिबद्धता स्वयं पर ज्यादा भरोसे की ओर संकेत देती है जबकि न्याय पत्र स्वयं से आगे निकल कर समाज में पनप रहे अन्याय की ओर ध्यान आकर्षित करता है। 

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दोनों ही घोषणा पत्रों को लिखने की शैली भी इन्हें अलग अलग पायदानों पर खड़ा करती है। बीजेपी के संकल्प पत्र का फॉर्मेट यह ज़रूरी समझता है कि पार्टी से बड़ा व्यक्ति दिखे इसलिए संकल्प पत्र के पहले पन्ने पर नरेंद्र मोदी पर ही फोकस किया गया है। इस पन्ने पर उनकी एक बड़ी तस्वीर है, उनका नाम है और साथ ही में गैर-आनुपातिक आकार में ‘मोदी की गारंटी’ को लिखा गया है। कोई भी देखकर बता सकता है कि पूरी पार्टी एक व्यक्ति पर मोहित है, उसकी छवि के इर्द-गिर्द ही पार्टी के अस्तित्व को सीमित कर दिया गया है। देखकर लगता है कि भाजपा का संकल्प पत्र एक व्यक्ति की गारंटी का मोहताज है, जिसे पार्टी ‘मोदी की गारंटी’ नाम से प्रचारित कर रही है। 144 करोड़ की आबादी को आश्वस्त करने के लिए एक व्यक्ति की गारंटी को शिखर पर बिठा देना न सिर्फ हास्यास्पद है बल्कि अलोकतांत्रिक भी है। एक व्यक्ति के भरोसे भारत के 97 करोड़ मतदाताओं को आकर्षित करने की कोशिश की जा रही है, क्या एक व्यक्ति सभी को गारंटी दे सकता है? यह संकल्प पत्र एक व्यक्ति को ही सम्पूर्ण विचारधारा बना देता है, पूरे राजनैतिक दल के अस्तित्व को एक व्यक्ति में विलीन कर दिया जाता है। यह सिर्फ यहीं नहीं रुकता, अगले पन्नों में दो अन्य संदेश भी हैं। जिसमें से एक संदेश बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का है और दूसरा भारत के रक्षा मंत्री और घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष राजनाथ सिंह का। ताज्जुब की बात तो यह है कि यह दोनों संदेश भी मोदी की गारंटी पर आश्रित हैं।  

संकल्प पत्र भारत को पिछले दस वर्षों के दौरान मिली चोटों पर पूरी तरह खामोश है। पूरे संकल्प पत्र में 24 गारंटियों का ज़िक्र किया गया है। हर गारंटी के बाद ‘मोदी की गारंटी’ का जिक्र आवश्यक रूप से किया गया है। लाखों करोड़ों कार्यकर्ताओं के दल को एक व्यक्ति में समेट देने को सशक्तिकरण का नाम दिया जाए या वैशाखी का, समझ नहीं आता। भाजपा का संकल्प पत्र री-राइटबल सीडी की तरह है जिसमें पिछले ‘संकल्पों’ के ऊपर कुछ अन्य संकल्प छाप दिए गए हैं, पुरानी प्रतिबद्धताएं कहीं खो चुकी हैं, चुनाव जीतने के लिए नई थीम पर काम किया गया है जिसका नाम है ‘मोदी की गारंटी’। 

इस थीम का इस्तेमाल ऐसे किया जा रहा है मानो नरेंद्र मोदी जैसा विश्वसनीय नेता उपलब्ध ही न हो। ऐसा दिखाने की कोशिश है कि अगर मोदी ने कह दिया तो समझो हो गया। पर यह छवि पूरी तरह से झूठी है। नरेंद्र मोदी अपने दस साल के कार्यकाल में भीषण भ्रष्टाचार, महिला उत्पीड़न/शोषण, बेरोजगारी, महंगाई, अर्थव्यवस्था की गिरावट, भारत की गिरती लोकतान्त्रिक छवि, प्रेस फ़्रीडम के गिरते स्तर, बढ़ती भुखमरी, गरीबी और असमानता को न सिर्फ रोकने में पूरी तरह नाकाम रहे बल्कि बार-बार ध्यान दिलाए जाने पर उन्होंने एक ऐसे नेता की भूमिका अदा की है जो सिर्फ अपनी सुनता है, जनता  की नहीं। उन्होंने एक आत्ममुग्ध नेता की छवि अपने आस-पास गढ़ ली है। मेरे विचार से एक बिल्कुल सामान्य व्यक्ति भी इस बहुमत के साथ उनसे कहीं अधिक बेहतर प्रधानमंत्री साबित होता।
संकल्प पत्र में मोदी ‘नारी शक्ति के सशक्तिकरण’ की गारंटी देने को उत्सुक हैं और देश को ‘परिवारजनों’ नाम से संबोधित करने में उन्हें काफी संतोष मिलता दिखता है लेकिन उसमें उनकी ही पार्टी के सांसद द्वारा यौन शोषण की शिकार महिला पहलवानों को कोई जगह नहीं है।

मोदी किसानों के सम्मान की भी गारंटी दे रहे हैं लेकिन दो साल पहले किसान जब अपने परिवार सहित सड़कों पर 12 महीनों तक पड़े रहे तब उनकी गारंटी कहाँ थी? जब सैकड़ों किसान इस आंदोलन के दौरान मर गए तब उनकी किसान वाली गारंटी कहाँ थी? आज भी किसान महीनों से सड़कों पर पड़े हैं, अपना हक मांग रहे हैं, महीनों से दिल्ली आकर प्रदर्शन करना चाह रहे हैं, कहाँ हैं प्रधानमंत्री और उनकी तथाकथित गारंटी? बार-बार मोदी की गारंटी को महामृत्युंजय मंत्र की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन यह मंत्र तब कहाँ था जब मणिपुर जल रहा था, और प्रधानमंत्री मणिपुर जाने की हिम्मत तक न जुटा सके थे, अपने मुख्यमंत्री से कठोर सवाल तक न पूछ सके थे। जो नेता अपने ही देश में चल रहे आंतरिक संघर्ष में कोई निर्णयकारी क़दम न उठा सका वह चीन जैसी ताक़त के सामने कैसे खड़ा होगा? हो भी यही रहा है, सिर्फ उन रिपोर्टों को नकारा जा रहा है जिसमें चीन द्वारा भारतीय भूमि पर कब्जे की बात कही जा रही है लेकिन इसे स्वीकार करके चीन के खिलाफ लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है ‘मोदी की गारंटी’। ऐसे तमाम आधार हैं जिनको लेकर मोदी की गारंटी को औंधे मुँह गिरते देखा जा सकता है। लेकिन यहाँ प्रश्न है उस उग्रता का जिसका परिचय संकल्प पत्र में दिया गया है। संकल्प पत्र प्रतिबद्धता के चोले में ‘एक चेहरे के अहंकार का दस्तावेज’ भर नज़र आता है।

संकल्प पत्र के माध्यम से मोदी की दिलचस्पी भारत को ‘टॉप 5’ अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनाना है। भारत के नागरिकों को इससे क्या मिलता है यह मोदी का एजेंडा नहीं दिखाता। आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने हाल ही में कहा है कि हो सकता है कि भारत 2029 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए लेकिन इसमें जश्न मनाने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि भारत का आमजन गरीब ही रहने वाला है। सुब्बाराव कहते हैं कि “हम एक बड़ी अर्थव्यवस्था हैं क्योंकि हम 1.40 अरब लोग हैं। और लोग उत्पादन का एक कारक हैं। हम एक बड़ी अर्थव्यवस्था हैं क्योंकि हमारे पास लोग हैं। लेकिन हम अभी भी एक गरीब देश हैं।” यह बात ‘मोदी की गारंटी’ को उल्टा खड़ा करती है। चंद उद्योगपतियों का विकास भारत का विकास नहीं है, चंद उद्योगपतियों के धन में इजाफा होने का अर्थ यह नहीं कि आम भारतीय की जेब में भी पैसा आ गया है। बेरोजगारी युवाओं को खा रही है, महंगी चिकित्सा सेवाएं लोगों को लाचार बना रही हैं, शिक्षा जैसी सबसे ज़रूरी चीजें आम आदमी की पॉकेट से बाहर होती जा रही हैं। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों की फीस को क्रूरता के स्तर तक बढ़ा दिया गया है। बड़ी अर्थव्यवस्था बड़ी समृद्धि नहीं लाने वाली है। 

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नरेंद्र मोदी का स्वप्न पूरा हो चुका, वह देश के प्रधानमंत्री बन चुके, उद्योगपतियों ने उनकी नीतियों से खूब लाभ कमाया, लेकिन गरीब को क्या दिया ‘मोदी की गारंटी’ ने? 5 किलो राशन? यह किसी भी समृद्ध नेतृत्व का गुण नहीं हो सकता। इसके बावजूद उन्होंने अपने घोषणापत्र का नाम संकल्पपत्र रखा, साहस की बात है, मैं इसे निर्लज्ज साहस कहूँगा। कहाँ गई थी मोदी की गारंटी जब लोगों ने सरकार पर भरोसा करके विमुद्रीकरण का स्वागत किया था, लाइन में लगे थे, महीनों तक तकलीफ उठाई और मिला क्या? सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश जस्टिस बी वी नागरत्ना के शब्दों में समझिए। वो पूछती हैं “काला धन कैसे ख़त्म हुआ जब इस प्रक्रिया के दौरान 98 प्रतिशत मुद्रा भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के पास वापस आ गई?” काला धन खत्म करने के लिए लाई गई योजना भारत का सबसे बड़ा घोटाला बनकर उभरा, जिस नेता के विवेक पर भरोसा किया गया उसने फैसला बिना किसी आधार के ही ले डाला, और देश के करोड़ों लोगों को महीनों तक परेशान किया जाता रहा, देश के अरबों के संसाधन एक विवेकहीन फैसले की भेंट चढ़ गए, ये कैसी ‘मोदी की गारंटी’ है? यह असल में आत्मभिमुख नजरिया है जिसमें सिर्फ खुद पर ध्यान दिया जाता है, देश और जनमानस गौण हो जाता है। 
न्यायपत्र ‘न्याय के संकल्प’ के साथ शुरू होता है। गाँधी और आंबेडकर की बात करते हुए संविधान और आज़ादी के मूल्यों से जुड़ने की बात करता है। कांग्रेस के न्याय पत्र में सीधे अन्याय को संबोधित करते हुए न्याय का आह्वान किया गया है।
न्याय पाने की राह में किसी संदेश का इस्तेमाल नहीं किया गया है। किसी भाषणबाजी को जगह नहीं दी गई है। यह जनता के लिए है जबकि संकल्प पत्र ‘स्वयं’ को संबोधित है। न्याय पत्र में न सिर्फ़ न्याय दिलाने का वादा किया गया है बल्कि अन्याय के ख़िलाफ़ सचेत रहने का भी दृष्टिकोण है। इसी सचेत रहने के दृष्टिकोण के तहत कांग्रेस अपने 2019 के घोषणापत्र के मुख्य बिंदुओं को पुनः उद्धृत करती है ताकि लोग यह जान सकें कि 2014 में जिस वादे के साथ नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली थी वह 2019 में ही धराशायी हो गया था। नागरिकों को सचेत रखने के लिए कांग्रेस अपनी 2019 की बातों को पुनः लिखती है कि- ‘युवाओं की नौकरियां चली गई हैं’, ‘किसान आशा और विश्वास खो चुके हैं’, ‘व्यापारियों का व्यापार चौपट हो गया है’, ‘महिलाओं में सुरक्षा की भावना खत्म हो गई, ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों ने अपना विश्वास खो दिया है’ ‘सरकारी संस्थानों की स्वतंत्रता ख़त्म हो गई है’ और सबसे बड़ी बात ’डर, धमकी और नफ़रत का मौजूदा माहौल’ है। क्या इसमें से कुछ भी है जिसे ‘मोदी की गारंटी’ ने बदला है? मोदी जी ने तो पूरा ध्यान सिर्फ मोदी जी पर ही केंद्रित कर लिया है, मसलन- ‘मोदी है तो मुमकिन है’, ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’, ‘आएगा तो मोदी ही’ आदि। मुझे नहीं दिखता कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कहीं भी भारत, भारत के नागरिक, भारत की संस्थाएं, भारत की संसदीय परम्पराएं आदि बची भी हैं या नहीं?
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कांग्रेस का न्याय पत्र फौरन अपने न्याय देने के एजेंडे को सामने ले आता है। न्याय पत्र में आपको 10 न्याय दिखेंगे जिनका सीधा संबंध वंचित वर्गों से है, संविधान और मीडिया जैसे संस्थाओं को बचाने से है। न्यायपत्र अपने न्याय के दृष्टिकोण में संकुचित नहीं है, यह महिलाओं, किसानों, गरीबों के साथ साथ LGBTQ+ की भी बात करने और उन्हें न्याय देने से पीछे नहीं हटना चाहता। यह देश को अखंड रखने के मुद्दों जैसे केंद्र-राज्य संबंध, उत्तर-पूर्वी राज्यों और भारत की साझी संस्कृति और विरासत की बात करने को उत्सुक है। तमाम वर्गों को समुचित न्याय दिलाने के अपने वादे के अतिरिक्त न्याय पत्र की सबसे अहम बात यह है कि वो भारत में पनप रहे भय के माहौल को पढ़ पा रहा है, उसके दुष्प्रभावों को समझ रहा है और यह भी स्वीकार करता है कि ऐसे माहौल के बीच भारत एक महाशक्ति नहीं बन सकेगा, ऐसी महशक्ति जिसके नागरिक भी उतने ही सशक्त और स्वतंत्र हों जितनी इस देश की सेनाओं और सीमाएं। इसलिए न्याय पत्र ‘लोकतंत्र बचाएं, भय हटाएं, स्वतंत्रता बहाल करें’ की घोषणा करने में हिचकता नहीं है।    

भाजपा का संकल्प पत्र एक आभासी दुनिया का दृश्य सामने रखता है जहां ग़रीबी, बेरोज़गारी और लाचारी को छिपाने संबंधी दृष्टिकोण साफ झलकता है। जहां हर बात बस नारे के रूप में कहे जाने की परंपरा है, उसे जीना और राष्ट्र के चरित्र में स्थापित करना उनका कोई उद्देश्य नहीं है। संकल्प पत्र राष्ट्र के पहले, एक व्यक्ति को सामने रखने व बचाने और हो सके तो उसे भगवान, जादूगर और चमत्कारिक व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने का दस्तावेज है। जबकि कांग्रेस का न्यायपत्र भारत को एकीकृत रखने, सभी वर्गों तक न्याय की पहुँच को सुनिश्चित करने, न्याय के रास्ते में आने वाली हर अड़चन को दूर रखने, न्याय के ‘प्रत्यास्थता गुणांक’(Elasticity coefficient) को बढ़ाने (ताकि न्याय किसी ‘सांस्कृतिक कार्यालय’ का पहरेदार बनकर ही न रह जाए) और भारत की कमियों और सीमाओं को स्वीकारते हुए उनसे उबरने के दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने का खाका है। 

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कुणाल पाठक
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