17 नवंबर को दिल्ली में रामनाथ गोयनका व्याख्यानमाला के छठे संस्करण को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने देश के सामने एक नया लक्ष्य रखा। उन्होंने कहा कि “1835 में ब्रिटिश सांसद मैकाले ने भारत को अपनी जड़ों से उखाड़ने के लिए बहुत बड़ा अभियान शुरू किया था। इसने भारतीय शिक्षा व्यवस्था का समूल नाश कर दिया। अगले दस साल में हमें यह संकल्प लेकर चलना है कि मैकाले ने भारत को जिस गुलामी की मानसिकता से भर दिया है, उस सोच से मुक्ति पाकर रहेंगे।”

आख़िर कौन था र्लाड मैकॉले? 1835 में उसने क्या किया था जिसका असर आज तक है। थॉमस बैबिंगटन मैकॉले (Thomas Babington Macaulay, 1800–1859) एक प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार, राजनेता, निबंधकार और कवि था। विग पार्टी (Whig Party) की ओर से ब्रिटिश संसद के सदस्य रहे मैकाली की लिखी 'हिस्ट्री ऑफ इंग्लैंड’ अंग्रेजी साहित्य की क्लासिक रचना मानी जाती है। मैकॉले 1834 में भारत आया और गवर्नर-जनरल की सुप्रीम काउंसिल का पहला लॉ मेंबर बना। वह 1834 से 1838 तक भारत में रहा। भारत में उसने शिक्षा और कानून दोनों क्षेत्रों में गहरा प्रभाव डाला।
प्रधानमंत्री मोदी ने जिस 1835 का ज़िक्र किया उसकी 2 फरवरी को मैकॉले ने कलकत्ता में एक ज्ञापन लिखा था जिसे ‘मिनट्स् ऑन एजूकेशन’ कहा जाता है। कमेटी ऑन पब्लिक इंस्ट्रक्शन की बैठक में इस ज्ञापन को वितरित किया गया और बाद में लार्ड विलियम को बेंटिंक को सौंपा गया।

मैकाले ने तर्क दिया-

  • संस्कृत और अरबी जैसी पूर्वी भाषाओं तथा पारंपरिक भारतीय शिक्षा (गुरुकुल, मदरसा आदि) व्यर्थ और पिछड़ी हुई है।
  • अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी विज्ञान, साहित्य तथा दर्शन को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए।
  • सरकार का पैसा केवल अंग्रेजी शिक्षा पर खर्च होना चाहिए, न कि संस्कृत या फारसी कॉलेजों पर।
मैकाले का उद्देश्य एक ऐसा वर्ग तैयार करना था जो "रक्त और रंग में भारतीय हो, लेकिन अपनी पसंद, विचार, नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज” हो। भारत में अंग्रेजी राज का प्रशानसिक ढाँचा तैयार करने के लिए यह ज़रूरी भी था। गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने इस ज्ञापन को स्वीकार किया और इंग्लिश एजुकेशन एक्ट 1835 लागू हुआ। इस तरह भारत में आधुनिक शिक्षा की बुनियाद पड़ी। भारत में पश्चिमी विज्ञान और ज्ञान का प्रसार हुआ। नतीजा ये हुआ कि स्कूली शिक्षा के दरवाज़े सबके लिए खुल गये।

1872 की जनगणना के मुताबिक़ भारत के सिर्फ 3.2% लोग साक्षर थे। ज़ाहिर है। वैसे, यह औपचारिक शिक्षा की स्थिति थी। अनौपचारिक रूप से भी लोग शिक्षा ग्रहण करते थे। उस ज़माने में धार्मिक ग्रंथों को पढ़ लेना, या हिसाब-किताब कर लेना ही शिक्षित व्यक्ति की पहचान थी। व्यावहारिक शिक्षा पर ज़ोर था। गुरुकुल और मदरसे थे जो मूलतः पारंपरिक रूप से धार्मिक शिक्षा ही देते थे और समाज के योगदान से संचालित होते थे। 

उस जमाने में राज्य की ओर से शिक्षा का कोई सार्वभौमिक तंत्र नहीं था। यह भी याद रखना चाहिए कि मनुस्मृति जैसे धार्मिक विधान शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करते थे, इसलिए इनकी औपचारिक शिक्षा की तो कल्पना ही नहीं थी।

मैकाले शिक्षा पद्धति का फायदा भी हुआ

मैकॉले की योजना लागू किये जाने से अंग्रेजी पढ़ा-लिखा भारतीय मध्यम वर्ग (क्लर्क, वकील आदि) तैयार हुआ, जो ब्रिटिश प्रशासन में सहायक बना। लेकिन इसका एक और नतीजा निकला। भारत को आधुनिक राष्ट्र राज्य में बदलने वाली महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल और आंबेडकर जैसी विभूतियाँ इसी शिक्षा व्यवस्था के ज़रिए आगे बढ़े और उच्च शिक्षा के लिए विदेश तक गये। ये लौटे तो ब्रिटिश शासन के लिए काल बन गये। न सिर्फ़ इन्होंने भारत की आज़ादी को संभव बनाया बल्कि एक ऐसे भारत की बुनियाद डाली जो ‘समता’ की बुनियाद पर था। ये एक नवीन भारत की कल्पना थी क्योंकि अतीत में ‘समता और समानता भारतीय विधि व्यवस्था का मूल्य कभी नहीं था। आश्चर्यजनक रूप से इस दिशा में भी मैकॉले ने जाने-अनजाने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लॉ कमीशन के अध्यक्ष बतौर मैकॉले ने 1837 में इंडियन पीनल कोड आईपीसी का पहला ड्राफ़्ट तैयार किया। इसका मक़सद था भारत में अलग-अलग क्षेत्रों के जटिल कानूनों को एक समान, स्पष्ट और तर्कसंगत आपराधिक कानून में बदलना। IPC 1860 में पारित हुआ और 1 जनवरी 1862 से लागू हुआ।

पिछले दिनों इसका नाम भारतीय न्याय संहिता कर दिया गया है लेकिन मूल में वही IPC है जो आज भी ( संशोधनों के साथ) भारत ही नहीं पाकिस्तान में भी आपराधिक कानून की आधारशिला है। इसमें अपराधों की परिभाषा और सजाएं स्पष्ट हैं। इस संहिता की नज़र में धर्म, जाति का कोई भेद नहीं था। समान अपराध के लिए समान सज़ा निर्धारित थी जो मनुस्मृति की व्यवस्था से उलट था।

समाज सुधारक निकले

दिलचस्प बात है कि प्रधानमंत्री मोदी जिस मैकॉले को कोसते हैं उसे ज्योति बा फुले जैसे समाज सुधारक अपनी मुक्ति का श्रेय देते हैं। उन्नीसवीं सदी के महान समाज सुधारक ज्योति बा फुले के जीवन पर बनी फ़िल्म इसी साल उनके जन्मदिन यानी 11 अप्रैल पर सेंसर बोर्ड की आपत्ति की वजह से रिलीज़ नहीं हो पायी थी। ब्राह्मणवादी संगठनों ने इसका तीखा विरोध किया था क्योंकि इसमें स्त्रियों और शूद्रों की शिक्षा पर ब्राह्मणवादी ताक़तों द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों और अत्याचारों का प्रामाणिक विवरण था। सेंसर बोर्ड के रवैये का बहुजन और लोकतांत्रिक संगठनों ने तीखा विरोध किया। कहा गया कि यह आरएसएस के हिंदू राष्ट्र परियोजना की हक़ीक़त सामने लाती है। ज्योति बा और सावित्री बाई फुले के विचारों को दबाने की कोशिश है।

ज्योतिबा फुले (1827-1890) और सावित्रीबाई फुले 19वीं सदी में सामाजिक सुधार की मशाल थे। पुणे के एक माली परिवार में जन्मे फुले ने जातिप्रथा और वर्ण-व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी और अपनी पत्नी सावित्री बाई के साथ मिलकर 1848 में लड़कियों के लिए देश का पहला स्कूल खोला था। उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और सत्य शोधक समाज की स्थापना की। ख़ुद को सनातन धर्म का रक्षक कहने वालों ने उनका कड़ा विरोध किया था।
फुले ने पेशवाई काल की अमानवीय प्रथाओं, जैसे दलितों को झाड़ू और हांडी बांधकर चलने की मजबूरी की याद दिलाते हुए अंग्रेज़ी राज को राहत बताया था। अपनी किताब गुलामगीरी (1873) में उन्होंने लिखा कि “ब्राह्मणों की गुलामी (जातिवाद) से मुक्ति केवल अंग्रेजी शिक्षा और ब्रिटिश राज से मिली। ब्रिटिश सरकार ने हमें शिक्षा दी, जो ब्राह्मण कभी नहीं देते। अंग्रेज़ी राज ईश्वर का वरदान है।”

यानी मैकॉले को कोसते वक़्त यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत को ग़ुलामी के अंधेरे में ढकेलने वाला अंग्रेज़ी राज समाज के एक वर्ग के लिए रोशनी देने वाला भी था। इस वर्ग के लिए आज़ादी का मतलब सामाजिक जकड़बंदी से आज़ादी पहले थी। खैर आगे चलकर, ख़ासतौर पर महात्मा गाँधी के आगमन के बाद कांग्रेस ने इस बात को शिद्दत से महसूस किया और राजनीतिक आज़ादी के साथ-साथ सामाजिक ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ने का संकल्प भी लिया। डॉ. आंबेडकर के बनाये संविधान की बुनियाद भी यही है।

ऐसे में जब प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि मैकाले के षड्यंत्र को तोड़ना है, ग़ुलामी की मानसिकता को ख़त्म करना है तो इसका अर्थ समझना होगा। कुछ सवाल उठते हैं-
  • क्या शिक्षा से सरकार हाथ खींचेगी और समाज के सहयोग से गुरुकुल और मदरसे खोले जयेंगे?
  • क्या पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की पढ़ाई बंद होगी?
  • क्या शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी की विदाई होगी, उसकी जगह संस्कृत या हिंदी को रखा जाएगा?
  • क्या अपराध के लिए ब्राह्मणों को कम और शूद्रों को अधिक सज़ा मिलेगी जैसा कि अंग्रेजों के आगमन के पहले की व्यवस्था थी?
  • क्या ‘विदेशी’ संसदीय व्यवस्था की जगह राजतंत्र स्थापित किया जायेगा?

शिक्षा का निजीकरण

ज़ाहिर है, इन सवालों का जवाब ‘हाँ’ में नहीं दिया जा सकता। लेकिन शिक्षा का निजीकरण जिस तेज़ी से हो रहा है, उससे तो लगता है कि सरकार अपनी इस ज़िम्मेदारी से लगातार हाथ खींच रही है। यही नहीं, ख़ुद को राष्ट्रवादी कहने वाले बड़े वर्ग में कम से कम अंग्रेज़ी को लेकर यही भावना है। कुछ प्रयोग भी हुए हैं। गुलाम मानसिकता से मुक्ति पाने के लिए तीन साल पहले मध्यप्रदेश में मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में करने का ऐलान किया गया था। ये अलग बात है कि तीन साल बाद एक भी छात्र ने हिंदी माध्यम से परीक्षा नहीं दी। क्योंकि मेडिकल में उच्च अध्ययन या विदेश जाकर पढ़ना बिना अंग्रेज़ी के संभव नहीं रह गया है।

वैसे, पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति में मानसिक ग़ुलामी देखने वाले पीएम मोदी के मूल संगठन आरएसएस भी नस्ली श्रेष्ठता के विदेशी विचार से ही प्रभावित है। यहाँ तक कि उसका गणवेश भी विदेशी है।

बी.एस. मुंजे को आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार का मेंबर कहा जाता है। वे इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मिलने गये थे और वहाँ के ब्लैक शर्ट मूवमेंट से प्रभावित हुए थे। ‘ब्लैक शर्ट’ 1919 में इटली में स्थापित फ़ासीवादी संगठन की इकाई थी। इसके सदस्य ज़्यादातर पूर्व सैनिक थे और कम्युनिस्टों, समाजवादियों और अन्य समूहों पर हिंसक हमले करते थे। 1922 में रोम के मार्च के बाद मुसोलिनी सत्ता में आया। निजी ब्लैकशर्ट्स को एक राष्ट्रीय मिलिशिया में बदल दिया।
आरोप है कि आरएसएस की वर्दी और तौर तरीक़ा पूरा उसी की नक़ल है। हिंसक और ख़ुफ़िया गतिविधियों से ताक़त बढ़ाना। सैनिक प्रशिक्षण देते हुए मिलिशिया तैयार करना और एक दिन सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेना। हिटलर की तरह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत, अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ घृणा फैलाकर सत्ता तक पहुँचना और फिर लोकतंत्र को ही नष्ट कर देना, पूरी तरह विदेश से आयातित विचार है और आलोचकों का कहना है कि आरएसएस भारत में यही कर रहा है।

तो क्या ‘ग़ुलामी की मानसिकता' होती नहीं, अगर होती है तो इससे मुक्ति कैसे पायी जा सकती है। इसका जवाब हमें भारत के संविधान में मिलता है। ग़ुलामी की मानसिकता के दर्शन लक्षण हैं-
  • लोकतंत्र में किसी नेता का भक्त बन जाना!
  • दलितों और पिछड़ों की भागीदारी रोकने के लिए आरक्षण से खिलवाड़ करना!
  • जाति के आधार पर किसी को नीचा और किसी को ऊँचा मानना!
  • धर्म के आधार पर लोगों के मन में नफ़रत बोना!
  • स्त्रियों को सिर्फ़ घर की चारदीवारी में क़ैद करने की चाह रखना!
दरअसल, ये लक्षण ‘गुलाम बनाये रखने की मानसिकता’ के हैं जो शासक और प्रभुत्वशाली वर्ग में पायी जाती है। भारत को अगर सच्ची आज़ादी चाहिए तो इन कसौटियों को पार करना होगा। वरना माना जाएगा कि गुलाम मानसिकता से निकलने का नारा दरअसल भारत को मध्ययुगीन गैरबराबरी और धर्मांधता के दलदल में धकेलने का एक षड्यंत्र है।