यह आग भगवा नहीं है, यह भूख की आग है। यह धर्मयुद्ध नहीं, हक़ की लड़ाई है। काठमांडू की सड़कों से उठते धुएँ को जो लोग 'हिंदू राष्ट्र' का भगवा रंग देने के नाकाम और झूठे प्रयास से नेपाल की आपदा में अवसर तलाश रहे हैं, उन्हें प्रदर्शनों में मारे गए 31 युवाओं की सूची देखनी चाहिए। यह सूची नेपाल की आत्मा का आईना है, जिसमें हर जाति, हर रंग और हर समुदाय का चेहरा दिखता है।

इस आग में जलने वाले सिर्फ हिंदू नहीं, नेपाल का हर युवा है। मरने वालों की सूची देखिए - इसमें काठमांडू का सुनील शर्मा (ब्राह्मण) भी है, गोरखा की संगीता गुरुंग (जनजाति) भी, चितवन की अस्मिता चौधरी (मधेसी) भी और रौतहट से काठमांडू काम करने आया सलीम खान (मुस्लिम) भी। यह सूची उन साजिशों के ताबूत में आखिरी कील है जो इस जन-विद्रोह को सांप्रदायिक रंग देना चाहते हैं। सच तो यह है कि जब भ्रष्टाचार और बेरोजगारी किसी देश को दीमक की तरह खाते हैं तो उसकी पीड़ा का कोई धर्म नहीं होता। यह लड़ाई किसी मंदिर या मस्जिद के लिए नहीं, बल्कि एक नौकरी, सम्मान और अपनी बात कहने की डिजिटल आज़ादी के लिए है। यह उन 'नेपो किड्स' के ख़िलाफ़ एक बगावत है जिन्होंने पूरे देश के भविष्य को अपनी जागीर समझ लिया है।
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किसे मिलेगी देश की कमान? 

नेपाल का भविष्य अब इस सवाल पर टिका है: क्या देश की बागडोर जनता के चुने हुए एक साफ़-सुथरे टेक्नोक्रेट के हाथ में जाएगी या फिर पुराने राजनीतिक खिलाड़ी एक बार फिर कोई समझौता कर सत्ता पर काबिज हो जाएंगे?

युवाओं की पसंद - कुलमान घिसिंग: कुलमान घिसिंग नेपाल विद्युत प्राधिकरण (NEA) के पूर्व प्रबंध निदेशक हैं। उन्हें नेपाल में दशकों से चले आ रहे 'लोड-शेडिंग' (बिजली कटौती) के अंधकार को ख़त्म करने का श्रेय दिया जाता है। उनकी छवि एक अ-राजनीतिक, परिणाम देने वाले और ईमानदार प्रशासक की है। युवाओं के लिए, कुलमान उस नेपाल का प्रतीक हैं जो वे बनाना चाहते हैं - एक ऐसा देश जो भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार से मुक्त हो और जहाँ योग्यता का सम्मान हो।

पुराने दलों की ढाल - सुशीला कार्की: वहीं, पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की अपनी भ्रष्टाचार-विरोधी छवि के लिए जानी जाती हैं। लेकिन युवाओं द्वारा उन्हें अस्वीकार किया जाना यह दर्शाता है कि वे अब पुरानी पीढ़ी के किसी भी प्रतीक को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं, चाहे उनकी छवि कितनी भी साफ़ क्यों न हो।

राजनीतिक दलों की पैंतरेबाजी

जैसे-जैसे मरने वालों की संख्या 31 तक पहुँची है, राजनीतिक दलों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। हर पार्टी हिंसा की निंदा कर रही है, लेकिन हर कोई अपने हितों को साधने में लगा है।
  • CPN-UML (ओली की पार्टी): ओली का खेमा इसे अभी भी एक "विदेशी साजिश" बता रहा है।
  • नेपाली कांग्रेस (देउबा की पार्टी): यह पार्टी अब खुद को एक मध्यस्थ के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही है।
  • माओवादी सेंटर (दहल की पार्टी): सत्ता समीकरण में खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश में पार्टी संवाद की बात कर रही है।
  • राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (RSP): इस नई पार्टी ने युवाओं के मुद्दों का समर्थन किया है, लेकिन हिंसा की निंदा की है।

'हिंदू राष्ट्र' की थ्योरी का पोस्टमार्टम

आइए, इस 'हिंदू राष्ट्र' वाली साजिश की ईंट-से-ईंट बजाते हैं। यह थ्योरी दो तरह के लोग फैला रहे हैं: पहला, नेपाल का राजनीतिक वर्ग जो प्रदर्शनकारियों की एकता को तोड़ने के लिए उनमें सांप्रदायिक फूट डालना चाहता है; और दूसरा, भारत में बैठे कुछ कट्टरपंथी तत्व जो हर जनांदोलन को अपने वैचारिक चश्मे से देखना चाहते हैं।
विश्लेषण से और
सबसे बड़ा सबूत - डिजिटल फुटप्रिंट: इस आंदोलन की आत्मा को समझना है तो इसके डिजिटल नारों को देखिए। Gen Z ने #RotiDigitalAdhikar (रोटी और डिजिटल अधिकार) और #SabaiKoNepal (सबका नेपाल) जैसे हैशटैग ट्रेंड कराए। जब कुछ दक्षिणपंथी समूहों ने #SaveHinduismInNepal चलाने की कोशिश की, तो युवाओं ने उसे #SaveHumansOfNepal से काउंटर किया, जो कहीं ज़्यादा ट्रेंड हुआ।

वायरल हुई इंसानियत: एक टिकटॉक वीडियो इस आंदोलन का चेहरा बन गया, जिसमें एक हिजाब पहनी मुस्लिम लड़की आंसू गैस से प्रभावित एक पहाड़ी लड़के को अपनी पानी की बोतल दे रही थी। कैप्शन था: "ये हमें धर्म पर बांटते हैं, हम आंसू गैस और एक नए नेपाल के सपने से एकजुट हैं।" क्या यह 'हिंदुत्व' की तस्वीर है?

शहीदों की विविधता: जैसा कि ऊपर बताया गया, मरने वालों में शर्मा, गुरुंग, चौधरी और खान, यानी हर समुदाय के युवा शामिल हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि यह लड़ाई किसी एक धर्म की नहीं, बल्कि नेपाल की पूरी युवा पीढ़ी की थी।

कोई धार्मिक प्रतीक नहीं: प्रदर्शनों में कहीं भी कोई भगवा झंडा नहीं था, न ही कोई धार्मिक नारा लगा। युवाओं के हाथ में नेपाल का राष्ट्रीय ध्वज था और जुबान पर आज़ादी और इंसाफ के नारे थे। यह हिंसा राजनीतिक आक्रोश का नतीजा थी, धार्मिक कट्टरता का नहीं।

साजिशों का धुआँ और असली आग

सत्ता से बेदखल हुआ गुट इस विद्रोह के पीछे कभी भारत तो कभी अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA का हाथ बता रहा है। काठमांडू में अमेरिकी दूतावास ने इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए शांतिपूर्ण संवाद की अपील की है। लेकिन यह सब ध्यान भटकाने का असली खेल है, ताकि भ्रष्टाचार और 'नेपो-किड्स' जैसे असली मुद्दों पर बात न हो।

और गज़ब तर्क है। ओली आरोप लगा रहे कि भारत जिम्मेवार है, और जो वर्ग कह रहा है कि अमेरिकी डीप स्टेट यानी सीआईए जिम्मेवार है, वही वर्ग ओली के आरोपों का शर्मनाक तरीके से समर्थन करते हुए इसे हिन्दू आंदोलन बता रहा है।

राजनीति के इस तमाशे पर जॉर्ज ऑरवेल का कथन याद आता है— “Political language is designed to make lies sound truthful and murder respectable, and to give an appearance of solidity to pure wind.” यानी झूठ को सच, हत्या को न्यायसंगत और खोखलेपन को ठोस बनाने का हुनर। यही हुनर आज दक्षिण एशिया की राजनीति और विमर्श में बार-बार खेला जा रहा है।

यह वर्ग नेपाल में सीआईए को “हिन्दू आंदोलन” का संरक्षक बना देता है, वहीं भारत का गोदी मीडिया उसी “डीप स्टेट” को मोदी सरकार को गिराने की साज़िश का सूत्रधार बताती है। अब ज़रा सोचिए- अगर यही सीआईए नेपाल में हिन्दुओं के साथ है, बांग्लादेश में मुसलमानों के साथ, श्रीलंका में बौद्धों के साथ और भारत में मोदी-विरोधी विपक्ष के साथ— तो यह किसी भूराजनीतिक रणनीति से ज़्यादा एक मल्टीप्लेक्स कॉमेडी शो नहीं लगती?

गोदी मीडिया का ये भी मास्टर स्ट्रोक और वो भी मास्टर स्ट्रोक! क्या ये बौद्धिक दीवालियापन नहीं है?

निशाने पर सिर्फ 'सत्ता के प्रतीक'

सच तो ये है कि यह विद्रोह पूरी तरह से राजनीतिक था, धार्मिक नहीं। प्रदर्शनकारियों ने केवल सत्ता के प्रतीकों - संसद, मंत्रियों के घरों और CPN-UML, नेपाली कांग्रेस और माओवादी सेंटर जैसी पार्टियों के कार्यालयों को निशाना बनाया। पशुपतिनाथ जैसे प्रमुख धार्मिक स्थलों को छुआ तक नहीं गया, लेकिन बनारस से नेपाल इस मंदिर के दर्शन को गये एक भारतीय पर्यटक बस पर हमला किया, जिसमें कई भारतीय घायल हो गये। यह निंदनीय है।

युवाओं का गुस्सा भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ था, किसी आस्था या परंपरा के खिलाफ नहीं। उसे कोई रंग देना गलत होगा।

मीडिया पर चौतरफा हमला

इस विद्रोह में नेपाली मीडिया भी पिस गया। जो टीवी एंकर और चैनल सरकार के सोशल मीडिया बैन का बचाव कर रहे थे, उन्हें युवाओं ने सोशल मीडिया पर "गोदी मीडिया" का तमगा दे दिया। काठमांडू में कई बड़े टीवी नेटवर्क्स के मुख्यालयों के बाहर उग्र प्रदर्शन हुए। फील्ड में रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों पर दोनों तरफ से हमले हुए।

बांग्लादेश का आईना

बांग्लादेश का 2024 का पतन नेपाल के लिए एक चेतावनी है कि जब आप डिजिटल दुनिया का गला घोंटते हैं तो क्या होता है। उनके डिजिटल सुरक्षा अधिनियम (DSA) ने एक हजार से ज्यादा पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया था। नेपाल के युवा, जिन्होंने पिछले साल ढाका के बागियों की जय-जयकार की थी, ने इसमें अपनी पटकथा देखी: अभिजात वर्ग के भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए एक सोशल मीडिया प्रतिबंध, जो केवल एक सड़क युद्ध को चिंगारी देगा।
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नेपाल का डिजिटल पिंजरा

नेपाल की Gen Z तब फट पड़ी जब सरकार ने व्हाट्सएप से लेकर एक्स तक 26 प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगा दिया। जनवरी 2025 में लाया गया सोशल मीडिया विधेयक 2081 एक तानाशाह का सपना था: "राष्ट्र की एकता को खतरा" जैसी अस्पष्ट बातों पर 5 साल तक की जेल और भारी जुर्माना। यह सुरक्षा नहीं थी—यह एक डिजिटल तहखाना था, और Gen Z ने इसे जला दिया।

अग्निकांड की टाइमलाइन

  • 9 सितंबर, 2025: प्रधानमंत्री ओली ने इस्तीफा दिया। सेना ने VIPs को सुरक्षित निकाला।
  • 8 सितंबर, 2025: काठमांडू जल उठा। Gen Z ने संसद पर धावा बोला।
  • 5-7 सितंबर, 2025: पत्रकारों ने रैली की। #NepoKid ट्रेंड हुआ।
  • 4 सितंबर, 2025: सरकार ने 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाया।
  • अगस्त 2025: सरकार ने कंपनियों को पंजीकरण के लिए अल्टीमेटम दिया, जिसे बड़ी कंपनियों ने नजरअंदाज कर दिया।
  • नवंबर 2023 - जनवरी 2025: सरकार ने दमनकारी सोशल मीडिया कानूनों की नींव रखी।

नेपो किड्स का साम्राज्य

इस विद्रोह के केंद्र में "नेपो किड्स" के खिलाफ नफरत थी। यह शब्द उन नेताओं और अफसरों की संतानों के लिए इस्तेमाल होता है जो बिना किसी योग्यता के सत्ता और संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठे हैं, जबकि देश का 19% युवा बेरोजगार है। सोशल मीडिया पर लीक हुए वीडियो में जब इन 'नेपो किड्स' को विदेशों में आलीशान जीवन जीते देखा गया, तो युवाओं का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया।

नेपाल आज एक दोराहे पर खड़ा है। एक तरफ कुलमान घिसिंग के रूप में एक नए, टेक्नोक्रेटिक भविष्य की उम्मीद है, जिसे सड़कों का समर्थन हासिल है। दूसरी तरफ, पुराने राजनीतिक दल हैं जो अपनी सत्ता बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। लेकिन एक बात इस विद्रोह ने हमेशा के लिए साफ कर दी है: नेपाल का युवा अब धार्मिक या भू-राजनीतिक साजिशों के बहकावे में नहीं आएगा। उसकी लड़ाई रोटी, रोजगार और सम्मान की है, और इस लड़ाई का कोई धर्म नहीं होता।