नेपाल के छात्रों, युवकों तथा उन सारे लोगों को सलाम जिन्होंने सरकार के दमनकारी चरित्र के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत की। और वो जीत भी गए। नेपाल सरकार ने सोशल मीडिया पर बैन हटा दिया है।

आपने सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाये जाने के खिलाफ एक महत्वपूर्ण पहल की है। हमारे यहां भारत में लगभग समूचे मीडिया का- चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक- पूरी तरह सरकारीकरण हो चुका है और आम लोगों के बीच यह ‘गोदी मीडिया’ के रूप में कुख्यात है। 
बस, सोशल मीडिया के जरिये लोगों को एक हद तक सही जानकारी मिल पा रही है जिस पर आये दिन सरकार प्रतिबंध लगाती रहती है। इस प्रतिबंध से मुक्ति पाने के लिए अनेक यू ट्यूब चैनलों को अदालत का सहारा लेना पड़ा है। आंदोलन की स्थिति होने के बावजूद भारत में हम अभी तक वह नहीं कर सके हैं जो आपने प्रतिबंध लगने के दो दिन के अंदर ही कर दिखाया और इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। आपका यह कदम अनुकरणीय है। 

ऐसा नहीं कि नेपाल के छात्रों और नौजवानों ने पहली बार ऐसा कदम उठाया है। आप में से बहुतों को याद होगा जब 1979 में पाकिस्तानी नेता भुट्टो को फांसी दिये जाने के खिलाफ आपने संगठित रूप से एक आंदोलन की शुरुआत की थी। एकदम युवा साथियों को मैं याद दिलाना चाहूंगा कि 4 अप्रैल 1979 को पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दी गयी और इसके विरोध में 6 अप्रैल को काठमांडो में छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत की।
 9 अप्रैल तक आंदोलन काफी तेज हो गया और उसने अपनी 25 सूत्री मांग राजा बीरेंद्र के सामने पेश की। इस आंदोलन को तोड़ने के लिए न केवल पुलिस का सहारा लिया गया बल्कि ‘राष्ट्रवादी स्वतंत्र विद्यार्थी मंडल’ (जिसे मंडले नाम से जानते हैं) नामक एक संगठन राजा की तरफ से निर्मित हुआ और उसने आंदोलनकारियों के साथ मारपीट शुरू की। सरकार की तरफ से हिंसा का बर्बरतम रूप देखने को मिला लेकिन यह आंदोलन आगे बढ़ता ही रहा। 

संक्षेप में कहें तो राजा बीरेंद्र को इसके आगे झुकना पड़ा और 23 मई को उन्होंने जनमत संग्रह कराने की घोषणा की। इस जनमत संग्रह का मकसद यह जानना था कि जनता बहुदलीय प्रणाली चाहती है या एक दलीय पंचायती व्यवस्था। 2 मई 1980 को जनमत संग्रह सम्पन्न हुआ हालांकि सत्ता पक्ष की तरफ से कुछ ऐसी तिकड़में की गयीं ताकि जनमत संग्रह का नतीजा उसके पक्ष में जाए। 

क्या उस समय भुट्टो को फांसी दिये जाने से नेपाल के छात्र इतने क्षुब्ध हो गये थे कि उन्होंने इतना व्यापक आंदोलन छेड़ दिया? जी नहीं। राजतंत्र की तानाशाही से सदियों से पनप रहे गुस्से को निकालने का उन्हंे यह अवसर मिला था जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के तानाशाह के रूप में अपने यहां के राजा को भी देखा था। 

अभी सोशल मीडिया पर लगाये गये प्रतिबंध के खिलाफ जिस आंदोलन की शुरुआत हुई है वह इस प्रतिबंध को हटाये जाने तक ही सीमित नहीं रहेगा। 2008 में गणतंत्र की स्थापना से लेकर अभी तक का इतिहास देखें तो सत्ता में बैठे लोगों का आम जनता के दुख दर्द के प्रति जो रवैया रहा है, वह अत्यंत शर्मनाक है। 
बेरोजगारी हो, औद्योगीकरण हो या युवकों का रोजगार की तलाश में खाड़ी देशों को पलायन का मामला हो- देश की किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सका। उल्टे राजनेताओं की तिजोरियां भरती चली गयीं। ऐसी स्थिति में जब लोगों ने देखा कि सरकार अब उन साधनों पर भी रोक लगाने के लिए आमादा है जिनके जरिये वे अपना दर्द आपस में शेयर का सकते थे, तब सब्र का बांध टूट गया।
बेशक, इस बात पर बहुत सतर्कता बरतने की जरूरत है कि आपके असंतोष का लाभ उठाते हुए राजा समर्थक, गणराज्य विरोधी और अवांछनीय तत्व इसमें घुसपैठ न करें।

मौजूदा स्थिति बेहद नाजुक है और अभी कहना मुश्किल है कि इसकी परिणति क्या होगी!
(आनंद स्वरूप वर्मा के फेसबुक पेज से साभार, संपादित अंश)