कांग्रेस आजकल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के प्रतिनिधित्व को लेकर मुखर है। राहुल गाँधी लगातार जाति जनगणना की मांग उठा रहे हैं, जिसका मकसद ओबीसी समुदाय की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पता लगाना है। अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के बारे में सामान्य जनगणना से जानकारी मिल जाती है, लेकिन ओबीसी की स्थिति स्पष्ट करने के लिए व्यापक डेटा की जरूरत है।

इसी दिशा में, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने ओबीसी सलाहकार परिषद का गठन किया। 15 जुलाई 2025 को बेंगलुरु में हुई इस परिषद की बैठक में तीन अहम प्रस्ताव पारित किए गए, जिन्हें "बेंगलुरु घोषणापत्र" के रूप में जाना जा रहा है। ये प्रस्ताव हैं:
  • राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना: तेलंगाना मॉडल की तर्ज पर।
  • आरक्षण की 50% सीमा हटाने की माँग।
  • निजी शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी कोटा लागू करना।
लेकिन इस बैठक में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने एक क़दम आगे बढ़ते हुए निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग उठायी। उन्होंने निजी क्षेत्र की नौकरियों, सरकारी प्रोन्नतियों, ठेकों और वित्तीय सहायता योजनाओं में ओबीसी के लिए 75% आरक्षण या जाति जनगणना के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व की माँग की। यह मांग बेंगलुरु घोषणापत्र से भी आगे की है और इसने सियासी हलचल मचा दी है।
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भारत में आरक्षण

1932 में महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट ने वंचित समुदायों के लिए विधायिका में आरक्षित सीटों की नींव रखी। अंग्रेजों के प्रस्तावित कम्युनल अवार्ड में दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात थी, जिसका गाँधी जी ने विरोध किया था, जबकि डॉ. आंबेडकर समर्थन में थे। अंततः पूना पैक्ट के तहत तय हुआ कि सभी नागरिक समान रूप से वोट देंगे, लेकिन विधायिका में सीटें और सरकारी नौकरियों में आरक्षण वंचित समुदायों के लिए सुनिश्चित होगा।

संविधान ने इस आधार पर अनुसूचित जाति के लिए 15% और अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5% आरक्षण का प्रावधान किया। लेकिन इस व्यवस्था को चुनौती देने वाली ताक़तें भी सक्रिय थीं। सवर्ण समाज के एक हिस्से को यह व्यवस्था स्वीकार नहीं थी। संवैधानिक समता के सिद्धांत के ख़िलाफ़ इसे अदालत में चुनौती दी गई। 

जवाहरलाल नेहरू सरकार ने 1951 में पहला संविधान संशोधन कर यह सुनिश्चित किया कि समाज के कमजोर वर्गों के लिए विशेष प्रावधान समानता के अधिकार के खिलाफ नहीं माने जायेंगे।

मंडल आयोग

1979 में बिहार के मुख्यमंत्री रहे बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में गठित आयोग ने 1980 में दी गयी अपनी रिपोर्ट में देश की 52% आबादी को ओबीसी के रूप में चिह्नित किया और 27% आरक्षण की सिफारिश की। लेकिन इसे लागू करने में एक दशक लग गया। 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, जिसका तीखा विरोध हुआ। सवर्ण समाज के एक हिस्से ने सड़कों पर उतरकर हिंसक प्रदर्शन किए, आत्मदाह तक की घटनाएं हुईं।

मंडल आयोग की सिफारिशों को मानते हुए सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो लागू किया गया लेकिन वित्तीय सहायता प्राप्त निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की बात पर चर्चा नहीं हुई। इसी तरह भूमि सुधार को लेकर की गयी मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया। जो भी हो, मंडल कमीशन के ज़रिए ओबीसी वर्ग एक नयी राजनीतिक ताक़त के रूप में गोलबंद हुआ जिससे घबराकर बीजेपी ने जवाब में कमंडल की राजनीति शुरू की और राम मंदिर आंदोलन को तेज कर दिया।
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उदारीकरण और निजी क्षेत्र 

1991 में नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में शुरू हुए उदारीकरण ने निजी क्षेत्र को नई ताक़त दी। लेकिन इसका लाभ मुख्य रूप से उन लोगों को मिला, जिनके पास पहले से सामाजिक और आर्थिक पूंजी थी। सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी कम होने के साथ ही आरक्षित वर्ग की नौकरियाँ भी प्रभावित हुईं। ऐसे में निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात उठने लगी। अगली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस मुद्दे को ठंडा रखने की भरसक कोशिश की। वाजपेयी काल में सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने के लिए बाक़ायदा विनिवेश मंत्रालय तक बना दिया गया था। आरक्षित वर्गों में आक्रोश तो बढ़ना ही था।

2004 में यूपीए सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में निजी क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की बात शामिल की गयी। 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) को संबोधित करते हुए चेतावनी दी कि अगर उद्योग जगत स्वेच्छा से वंचित तबकों के लिए सकारात्मक कदम नहीं उठाएगा, तो निजी क्षेत्र में आरक्षण का राजनीतिक दबाव बढ़ेगा।

लेकिन उद्योग जगत ने इसका तीखा विरोध किया। तर्क दिया गया कि:
  • निजी क्षेत्र में आरक्षण मेरिट और दक्षता को प्रभावित करेगा।
  • यह वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारतीय कंपनियों को कमजोर करेगा।
  • सरकारी हस्तक्षेप निजी क्षेत्र को स्वीकार नहीं।

सीआईआई ने डॉ. जे.जे. ईरानी की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स बनाई, जिसने निजी क्षेत्र में आरक्षण से इंकार कर दिया। हालांकि, कुछ सांकेतिक उपायों का वादा किया गया, जैसे एससी/एसटी उद्यमियों को बढ़ावा देना, लेकिन ये वादे ज्यादातर कागजी साबित हुए।

राहुल गांधी का न्याय-पथ

आज राहुल गांधी सामाजिक न्याय को कांग्रेस की पहचान बनाने में जुटे हैं। उनकी जाति जनगणना की माँग को पहले मजाक बनाया गया, फिर इसे "अर्बन नक्सल" और "हिंदू समाज को बांटने" की साजिश बताया गया। लेकिन अब मोदी सरकार को इस मांग को स्वीकार करना पड़ा है। लेकिन कोशिश इसकी धार कमज़ोर करने की है। ऐसे में सिद्धारमैया ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग करके बता दिया है कि राहुल किस राह पर हैं। जाति जनगणना के बाद आने वाले आँकड़ों को देखते हुए इस माँग का तेज़ होना स्वाभाविक है।

यह माँग बीजेपी और आरएसएस के लिए असहज है, जो सैद्धांतिक रूप से आरक्षण को गलत मानते रहे हैं, राजनीतिक मजबूरी के तहत चाहे स्वीकार किया हो। कॉरपोरेट जगत भी इसका विरोध करेगा, क्योंकि ऐतिहासिक कारणों से भारत का उद्योग जगत सवर्ण-प्रधान रहा है और उसने सामाजिक न्याय को लेकर कभी दिलचस्पी नहीं दिखायी। कांग्रेस के ख़िलाफ़ कॉरपोरेट मीडिया का लगातार हमलावर रहने के पीछे यह भी एक कारण है।
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निजी क्षेत्र में आरक्षण क्यों ज़रूरी?

निजी क्षेत्र में आरक्षण केवल राजनीतिक मुद्दा नहीं है। यह सामाजिक समावेशिता और आर्थिक समानता का सवाल है। अगर दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदायों को निजी क्षेत्र में अवसर मिले, तो यह देश की सामाजिक-आर्थिक तस्वीर बदल सकता है। अमेरिका जैसे देशों में भी प्रतिनिधित्व के नियम हैं, ताकि हर नस्ल और समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित हो।

जैसा कि मनमोहन सिंह ने कहा था, "ऐसे विचार को नहीं रोका जा सकता, जिसका समय आ गया है।" निजी क्षेत्र में आरक्षण का विचार अब अपरिहार्य लगता है। अगर यह माँग मान ली जाती है, तो यह भारत के सामाजिक ढांचे में एक नई क्रांति ला सकती है।