कांग्रेस पार्टी ने अपने अहमदाबाद अधिवेशन और राहुल गांधी के भाषण के जरिए एक साहसिक वैचारिक बदलाव करते हुए भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक शर्त रखी है। वो है आरएसएस से युद्ध। वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव बता रहे हैं उस शर्त के बारे मेंः
“राष्ट्रवाद के मायने देश की भू-भागीय अखंडता तो है ही, पर इस महान भूभाग में रहने वाले लोगों का सामाजिक राजनीतिक व आर्थिक सशक्तीकरण भी है।… राष्ट्रवाद का अर्थ सभी देशवासियों के लिए समान न्याय की अवधारणा है, वंचितों-पीड़ितों-शोषितों के अधिकारों की रक्षा व उत्थान है। कांग्रेस का राष्ट्रवाद समाज को जोड़े का है। भाजपा का राष्ट्रवाद समाज को तोड़ने का है। कांग्रेस का राष्ट्रवाद भारत की अनेकता को एकता में पिरोना का है। भाजपा-आरएसएस का राष्ट्रवाद भारत की अनेकता को ख़त्म करने का है। कांग्रेस का राष्ट्रवाद हमारी साझी विरासत में निहित है और भाजपा-आरएएस का राष्ट्रवाद पूर्वाग्रह से ग्रसित है।”
कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में 9 अप्रैल को पारित ‘न्याय-पथ’ प्रस्ताव में राष्ट्रवाद की जिस तरह से पुनर्व्याख्या की गयी है वह पार्टी में आयी वैचारिक स्पष्टता की एक बानगी है। हिंदुत्ववादी राजनीति की ओर से ‘हिंदू राष्ट्र’ को लेकर बजाये जा रहे ढोल-नगाड़े के दौर में कांग्रेस ने सामाजिक न्याय और आरएसएस से सतत संघर्ष को ‘भारतीय राष्ट्रवाद की शर्त’ की तरह पेश किया है। आरएसएस को लेकर कांग्रेस की ओर से ऐसा सूत्रबद्ध प्रहार इसके लिए शायद ही हुआ हो।
महात्मा गाँधी के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के शताब्दी वर्ष तथा सरदार वल्लभ भाई की डेढ़ सौवीं जयंती वर्ष में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘न्याय-पथ’ पर संघर्ष करना तय किया है। इस संघर्ष के भाव को स्पष्ट करते हुए ही राहुल गाँधी ने अपने भाषण में याद दिलाया कि “हम अंग्रेज और आरएसएस की विचारधारा के खिलाफ लड़े थे। इनकी विचारधारा स्वतंत्रता संग्राम की विचारधारा नहीं है। जिस दिन संविधान लिखा गया था, उस दिन संघ ने रामलीला मैदान में संविधान को जलाया था। इसमें लिखा है कि हमारे देश का झंडा तिरंगा होगा। सालों तक आरएसएस ने तिरंगे को सैल्यूट नहीं किया। वे हिंदुस्तान की सारी संस्थाओं कब्जा करके आपका पैसा अदाणी-अंबानी को देना चाहते हैं।”
राहुल गाँधी का यह भाषण उन कांग्रेस कार्यकर्ताओं को हौसला देगा जो बीजेपी की ‘राष्ट्रवादी भंगिमा’ के सामने कमज़ोर पड़ जाते हैं। राहुल ने स्पष्ट किया कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम महज़ उपनिवेशवाद के विरुद्ध नहीं था बल्कि यह आरएसएस जैसे संगठनों के ख़िलाफ़ भी था। जो अंग्रेज़ों के साथ था और जिसकी विचारधारा समता,स्वतंत्रता और बंधुत्व के संवैधानिक संकल्प के विरुद्ध थी और इसीलिए उसने आज़ादी के बाद भी संविधान और नये भारत के प्रतीक तिरंगे का विरोध जारी रखा।
राहुल दरअसल याद दिला रहे हैं कि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर निर्मित संविधान भारतीय इतिहास की एक विरल घटना है जिसने हर नागरिक को वैधानिक रूप से बराबर माना। पार्टी के प्रस्ताव में याद दिलाया गया है कि डॉ.आंबेडकर ने संविधान सभा में 25 नवंबर 1949 को दिये गये अपने अंतिम भाषण में कहा था कि यह संविधान सिर्फ़ कांग्रेस पार्टी के अनुशासन की वजह से पारित हो सका।
कांग्रेस का यह अधिवेशन पार्टी के अंदर आ रहे बदलावों की बानगी है। पार्टी ने सिर्फ़ राष्ट्रवाद पर अपना दावा नहीं ठोंका बल्कि सरदार पटेल जैसे बड़े कांग्रेस नेता को बीजेपी के चंगुल से बाहर निकालने के लिए तमाम ऐतिहासिक तथ्यों के साथ लंबा-चौड़ा प्रस्ताव पारित किया।
इस प्रस्ताव में बताया गया था कि सरदार पटेल ने किस तरह से आरएसएस को देश के लिए ख़तरा मानते हुए उस पर पाबंदी लगायी थी।प्रस्ताव में 8 फ़रवरी 1948 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखे पत्र का भी हवाला दिया जिसमें सरदार पटेल ने लिखा था कि उनके कार्यकर्ता नेहरू और उनकी (पटेल की) हत्या करना चाहते हैं।
इस अधिवेशन के ज़रिए कांग्रेस ने सामाजिक न्याय को लेकर अपनी प्रतिबद्धता फिर ज़ाहिर की। ‘न्याय पथ' प्रस्ताव में याद दिलाया गया है कि कांग्रेस की वैचारिक बुनियाद सामाजिक न्याय है। 1951 में जब सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को ख़ारिज कर दिया था तो पंडित नेहरू की सरकार ने पहला संविधान संशोधन किया और मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 15 (4) जोड़कर आरक्षण का रास्ता सदा के लिए प्रशस्त कर दिया। मंडल कमीशन की रिपोर्ट भी कांग्रेस सरकार ने सितंबर 1993 में लागू कर दी थी। कांग्रेस सरकार ने 20 जनवरी 2006 से संविधान में 93वाँ संशोधन करके शिक्षा संस्थानों में भी 27% आरक्षण का ऐतिहासिक अधिकार दिया थी।
कांग्रेस के इस अधिवेशन में जाति जनगणना का मुद्दा एक बार फिर ज़ोर-शोर से उठा। ओबीसी समाज पर ख़ासा ज़ोर दे रहे राहुल गाँधी ने तेलंगाना में जाति जनगणना के बाद आरक्षण में हुए इज़ाफ़े की बात दोहराई। यानी उन्होंने साफ़ किया कि जाति जनगणना सिर्फ़ जातियों की गिनती नहीं है, नीतियों में इसके ठोस परिणाम दिखेंगे। ओबीसी समाज के लिए ख़ासतौर पर यह मुद्दा महत्वपूर्ण है। पार्टी ने सामाजिक न्याय के मुद्दे का विस्तार देते हुए निजी शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण की माँग करके एक ज़रूरी मसला उठाया है। यह मुद्दा आगे चलकर निजी क्षेत्र की कंपनियों की नौकरियों में आरक्षण का सवाल बन जाये तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
इस अधिवेशन में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को वैचारिक विभ्रमों से तो निकाला ही, उनके सामने यह भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस में होने का मतलब क्या है? किसी भी कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता को सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को अपना मूलमंत्र बनाते हुए आरएसएस और उसकी विचारधारा से सतत संघर्ष करना होगा। जो ऐसा नहीं कर पायेंगे उन्हें पार्टी से रिटायर होना होगा जिसकी ओर राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ध्यान दिलाया।
कांग्रेस ने 2025 को संगठन का वर्ष घोषित किया है। संगठन निर्माण की अतीत में हुई तमाम कोशिशें इसलिए भी बड़ा असर नहीं दिखा पायीं क्योंकि वे पद बाँटने तक सीमित थीं। इस अधिवेशन के ज़रिए पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं को वह वैचारिक स्पष्टता दी है जो संगठन को मज़बूत और प्रभावी बनाता है। ख़ास बात यह है कि कांग्रेस के पास इस समय एक सर्वथा नया राजनीतिक कार्यक्रम है।
जाति जनगणना से लेकर नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने और निजी शैक्षिक संस्थानों में दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग के आरक्षण की माँग में ऐसे आंदोलन की संभावना भरी है जो बीजेपी-आरएसएस के शासन को बैकफ़ुट पर ला सकती है। वक़्फ़ के मुद्दे पर कांग्रेस का कड़ा स्टैंड और सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचना बताता है कि अल्पसंख्यकों पर अन्याय के मुद्दे पर मुखर होने में उसे कोई हिचक नहीं है। यही नहीं, राहुल गाँधी कई बार अगड़ी जातियों के ग़रीबों की बात भी उठा रहे हैं।
कुल मिलाकर अहमदाबाद अधिवेशन ने कांग्रेस को काफ़ी ऊर्जा दी है। इतिहास में इसका महत्व 1930 के लाहौर अधिवेशन से कम नहीं साबित होगा जब पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हुआ था। अहमदाबाद अधिवेशन बताता है कि स्वतंत्रता को वास्तविक अर्थों में ‘पू’र्ण करने के लिए वंचित समुदायों के लिए बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है और कांग्रेस इस कार्यभार को अपने कंधे पर उठाने को तैयार है।
पुनश्च: राहुल गाँधी के तेवरों ने सत्ता प्रतिष्ठान में कैसी खलबली मचाई है उसका एक नमूना वरिष्ठ पत्रकार हरीश खरे का कुछ ऑनलाइन माध्यमों में छपा ताज़ा लेख है। इस लेख में उन्होंने राहुल गाँधी की एक काल्पनिक स्पीच लिखी है। इस स्पीच में राहुल गाँधी ऐलान करते हैं कि “भविष्य में वे या उनके परिवार का कोई अन्य सदस्य प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं होगा।” दिलचस्प बात ये है कि इस स्पीच में जाति जनगणना से लेकर आरक्षण तक पर कुछ नहीं कहा गया है जो आजकल राहुल गाँधी का सबसे बड़ा मुद्दा है। खरे साहब के मन में राहुल को प्रधानमंत्री पद से दूर रखने की ख़्वाहिश इन्हीं मुद्दो से परेशान होकर तो नहीं जनमी है?