लोकतंत्र में यूँ तो जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है, लेकिन अगर सत्ताधारी दल कॉरपोरेट चंदे को सर्वोपरि मान लें तो क्या होगा? इस सिलसिले में एक सनसनीख़ेज़ मामला बीजेपी और टाटा ग्रुप के रिश्ते को लेकर सामने आया है। आरोप है कि सेमीकंडक्टर प्रोजेक्ट की मंज़ूरी के बदले टाटा समूह ने बीजेपी को 758 करोड़ का चंदा दिया। ख़ास बात है कि सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए टाटा को 44 हज़ार करोड़ की सब्सिडी भी दी थी।

काम के बदले चंदा लेने के इस खेल का खुलासा किया है स्क्रोल.इन ने। मामला सेमीकंडक्टर के प्रोजेक्ट से जुड़ा है जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिए बेहद ज़रूरी हैं पर भारत इनके आयात पर ही निर्भर है। देश में सेमीकंडक्टर बन सकें, इसके लिए सरकार ने पचास फ़ीसदी सब्सिडी का ऐलान करते हुए आवेदन माँगे थे। टाटा को दो बड़े प्रोजेक्ट मिले– एक गुजरात के धोलेरा में 91,000 करोड़ का फैब्रिकेशन प्लांट, और दूसरा असम में 27,000 करोड़ का असेंबली यूनिट।

ख़बर के मुताबिक़ फरवरी 2024 में 44,000 करोड़ की सब्सिडी के साथ टाटा के दो प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी गयी। और अप्रैल 2024 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले, टाटा के प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट ने बीजेपी को 758 करोड़ रुपये दिये। 2024 लोकसभा चुनाव से पहले यह किसी एक समूह द्वारा किसी दल को दिया गया सबसे बड़ा चंदा है।
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टाटा: तीन साल पहले तक कोई चंदा नहीं

हैरानी की बात है कि टाटा ट्रस्ट ने 2021-2024 तक किसी को कोई चंदा नहीं दिया था। 2024-25 में टाटा ने कांग्रेस को भी 77.3 करोड़ और आठ क्षेत्रीय दलों को 10-10 करोड़ रुपये दिये। स्क्रॉल.इन की एक रिपोर्ट कहती है कि ये संयोग नहीं लगता। रिपोर्ट के अनुसार सेमीकंडक्टर प्रोजेक्ट में सरकारी सब्सिडी पाने वाली हर बड़ी कंपनी ने ठीक मंजूरी के कुछ दिनों या हफ्तों बाद बीजेपी को मोटा चंदा दिया। जैसे-

तमिलनाडु का मुरुगप्पा ग्रुप: फरवरी 2024 में ही सेमीकंडक्टर प्लांट की मंजूरी मिली। सब्सिडी 3501 करोड़ रुपये की मिली। प्रोजेक्ट मंजूरी के कुछ दिनों बाद बीजेपी को 125 करोड़ रुपये का दान दिया।

कायनेस टेक्नोलॉजी के एमडी रमेश कुन्हिकन्नन: सितंबर 2024 में गुजरात के सानंद में सेमीकंडक्टर यूनिट की मंजूरी मिली। इससे पहले 2023-24 में उन्होंने व्यक्तिगत रूप से बीजेपी को 12 करोड़ रुपये दिए थे।

क़ानूनी लिहाज़ से इसमें कुछ भी ग़लत साबित करना मुश्किल है, लेकिन अंधा भी देख सकता है कि यह न सिर्फ़ अनैतिक है, बल्कि सत्ताधारी दल और कारपोरेट कंपनी के बीच लेन-देन का खुला खेल है।

बीजेपी ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के ख़ारिज होने के बाद पैसा बटोरने का यह नया तरीक़ा निकाला है। इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया था।

क्या थी इलेक्टोरल बॉन्ड योजना?

2 जनवरी 2018 को वित्त मंत्रालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की अधिसूचना जारी की थी। यह एक प्रकार का ब्याज-मुक्त प्रॉमिसरी नोट (IOU) था, जो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया यानी एसबीआई द्वारा जारी किया जाता था। भारतीय नागरिक या भारत में पंजीकृत कंपनियाँ एसबीआई की चुनिंदा शाखाओं से बॉन्ड खरीद सकती थीं। बॉन्ड ₹1,000, ₹10,000, ₹1 लाख, ₹10 लाख और ₹1 करोड़ मूल्य में उपलब्ध थे। सरकार ने दावा किया था कि इससे चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रुकेगा। इसमें दान देने वाला गुमनाम रहता था और न ही राजनीतिक दल को पता चलता था कि बॉन्ड किसने ख़रीदा। ये बॉन्ड ख़रीदने के पंद्रह दिन के अंदर किसी पंजीकृत दल को दान दिया जा सकता था जिसे वह दल बैंक से भुना सकता था।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी 2024 को इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया। यह फ़ैसला पाँच जजों के संवैधानिक पीठ (मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, बी.आर. गवई, जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा) ने एकमत से सुनाया।
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सुप्रीम कोर्ट ने चलाया डंडा

फ़ैसले में कहा गया कि यह आरटीआई क़ानून का उल्लंघन है। मतदाताओं को यह जानने का अधिकार है कि राजनीतिक दल किसके पैसे से चल रहे हैं, क्योंकि चंदा नीतियों और निर्णयों को प्रभावित करता है। गुमनामी से ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ की बजाय ‘एक रुपया, एक वोट’ हो जाता है। अनाम चंदे से पूंजीपतियों का प्रभाव बढ़ता है, जो राजनीतिक भागीदारी को असमान बनाता है। कोर्ट ने कहा कि कंपनियों के चंदे ‘व्यावसायिक लेन-देन’ हैं, जो लाभ के बदले दिए जाते हैं। विदेशी फंडिंग की अनुमति और असीमित कॉरपोरेट चंदे से काला धन बढ़ सकता था।

सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को दानकर्ताओं और प्राप्तकर्ताओं की पूरी जानकारी 12 मार्च 2024 तक चुनाव आयोग को सौंपने का आदेश दिया। तमाम दबाव को देखते हुए आयोग ने 15 मार्च 2024 को डेटा सार्वजनिक किया जो इस प्रकार थी-
  • बीजेपी-6566.12 करोड़
  • कांग्रेस- 1123.31 करोड़
  • टीएमसी- 1092.98 करोड़
  • बीआरएस- 912,68 करोड़
  • बीजेडी- 774.00 करोड़
  • डीएमके— 616.50 करोड़
  • वाईएसआर कांग्रेस- 382.44 करोड़
  • टीडीपी- 146.60 करोड़
यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि बीजेपी को कुल बॉन्ड का 57% अकेले मिला, जो अन्य सभी राष्ट्रीय दलों से 3 गुना अधिक है। 94% दान कॉरपोरेट क्षेत्र से मिला जिसमें घाटे वाली कंपनियाँ भी शामिल हैं।

चुनाव आयोग के नियम के मुताबिक़ बड़े राज्यों में लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी 95 लाख और विधानसभा चुनाव में 40 लाख ख़र्च कर सकता है। वहीं छोटे राज्यों में लोकसभा चुनाव में ख़र्च 75 लाख और विधानसभा में 28 लाख की सीमा है। लेकिन पार्टियों के लिए ख़र्च पर कोई रोक नहीं है। नतीजा ये है कि जिन पार्टियों के पास पैसा ज़्यादा है, वे अंधाधुंध ख़र्च करके चुनावी माहौल को अपने पक्ष में कर लेती हैं। प्रत्याशी भी निर्धारित सीमा से दस-बीस गुना ख़र्च करते हैं। बीते दस सालों में बीजेपी ने ख़ासतौर पर इसमें महारत हासिल की है। इसलिए उसका पूरा ज़ोर चंदा उगाही पर है। इस मामले में उसने अभूतपूर्व छलांग लगायी है।

2014 के आम चुनाव से ठीक पहले यानी 2013-14 में, बीजेपी के खाते में 464 करोड़ रुपये थे। कांग्रेस के पास 586 करोड़, और अन्य राष्ट्रीय दलों के पास मिलाकर 1,000 करोड़ से कम पैसा था। 2023-24 में बीजेपी के पास कैश और बैंक बैलेंस 7113 करोड़ हो गया। कांग्रेस के पास 857 करोड़ और अन्य दलों के पास मिलाकर कुल राष्ट्रीय दलों के पास 5,820 करोड़ हैं।

10 साल की सत्ता में बीजेपी हो गई सबसे अमीर

यानी साठ साल राज करने वाली कांग्रेस से लगभग दस गुना पैसा उस बीजेपी के पास है जो दस साल से राज कर रही है। वैसे चंदा हमेशा ही लिया जाता रहा है। पार्टियों के आम कार्यकर्ता जनता के बीच जाकर चंदा माँगते थे लेकिन धीरे-धीरे यह रिवाज ख़त्म हुआ और पूरी निर्भरता बड़ी कंपनियों पर हो गयी। यानी पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली बड़ी पूँजी पर निर्भर हो गयी। नतीजा ये है कि सरकार पूरी बेशर्मी से कॉरपोरेट कंपनियों के हित में नीतियाँ बना रहे हैं। ताज़ा मामला श्रम क़ानूनों का है।

FICCI (फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) ने 2014 में सरकार को मांगपत्र दिया था। इसमें श्रम क़ानूनों को सरल बनाने की माँग थी। सरकार से काम के घंटे पर लगी पाबंदी हटाने कंपनी को कर्मचारियों को नौकरी से निकालने का अधिकार देने की बात कही गयी थी। और मोदी सरकार ने कुछ दिन पहले श्रम सुधार के नाम पर तमाम क़ानूनों को ख़त्म करके लगभग वैसे ही चार लेबर कोड लागू कर दिये। इसके लागू होने से स्थायी नौकरी अतीत की बात हो जाएगी। काम के घंटे आठ से बढ़कर बारह हो सकते हैं। हर समय सर पर नौकरी जाने की तलवार लटकती रहेगी। मज़दूरों और कर्मचारियों के लिए यूनियन बनाना मुश्किल हो जाएगा। हड़ताल का अधिकार भी सीमित कर दिया जाएगा।

यानी सरकार वही कर रही है जो कारपोरेट कंपनियाँ चाहती हैं। जबकि श्रमिकों ने काम के घंटे आठ करने के लिए लंबा संघर्ष किया, भारत ही नहीं दुनिया भर में। अमेरिका का ‘एट आवर मूवमेंट’ इसी की मिसाल है जिसमें दिन को तीन भागों में बाँटने की बात थी- आठ घंटे काम, आठ घंटे नींद और आठ घंटे मनोरंजन और सामाजिक गतिविधि।
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चुनावी चंदे पर बहस लंबी

यह आंदोलन अमेरिका में चला था जिसका अंत शिकागो में मज़ूदरों की शहादत में हुआ। 1886 में अमेरिका में हुए इस आंदोलन की याद में हर साल मई दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इस आंदोलन ने मज़दूरों को मानवीय गरिमा दी थी। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी इसकी गूँज थी। संविधान में भी इसकी झलक मिलती है।

विधान सभा में चुनावी चंदे पर बहुत गंभीर बहस हुई थी। 13 दिसंबर 1948 को संविधान सभा में प्रो. के.टी. शाह (समाजवादी) ने प्रस्ताव रखा था कि ‘राजनीतिक दलों को केवल व्यक्ति-व्यक्ति से ही चंदा लेने का अधिकार हो, कोई कंपनी, फर्म या संस्था राजनीतिक दल को चंदा न दे सके।’

उन्होंने तर्क दिया कि कंपनियाँ चंदा देकर सरकारों को प्रभावित करती हैं, यह लोकतंत्र के लिए ख़तरा है। लेकिन के.टी. शाह का प्रस्ताव इस तर्क पर ख़ारिज हो गया कि अगर कंपनियों का चंदा बंद कर दिया तो दल केवल अमीर व्यक्तियों पर निर्भर हो जाएँगे। इससे और ज़्यादा पूँजीपति प्रभाव बढ़ेगा।

बहरहाल, संविधान लागू होने के पचहत्तर साल बाद हम उन आशंकाओं को सच होते देख रहे हैं। हम सत्ताधारी दल कारपोरेट कंपनियों के ऐसे कमीशन एजेंट में बदलते देख रहे हैं जिसका काम चुनाव में दस हज़ार रुपये बाँटकर या ग़रीबों को पाँच किलो राशन देकर जनाक्रोश को ठंडा रखना रह गया है ताकि उसके आका जल, जंगल, ज़मीन और अन्य संसाधनों की खुली लूट जारी रख सकें। सबसे गंभीर बात तो यह है कि लोकतंत्र को दरअसल, पूँजीपतियों की तानाशाही बताने वाली आलोचना सही साबित हो रही है।