उमर खालिद की पहचान कभी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के मेधावी छात्र और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में थी, लेकिन आज वह भारती न्याय व्यवस्था पर लगे सवालिया निशान की तरह है। उमर ख़ालिद लगभग पांच साल से उन आरोपों के तहत बंद है, जो पहली नजर में हास्यास्पद और सबूतों से रहित नजर आते हैं। अमरावती के जिस भाषण उमर ने शांतिपूर्ण विरोध और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की बात की थी, वह दिल्ली पुलिस की नज़र में दिल्ली में हिंसा भड़कने का कारण था। सरकार की नजर में देशद्रोही उमर ने बीती 11 अगस्त अपना 38वाँ जन्मदिन तिहाड़ जेल में मनाया। लगातार पाँचवाँ जन्मदिन था जो जेल की सलाख़ों के पीछे बीता।
सरकार के तमाम मानकों पर दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय आज भी सर्वश्रेष्ठ हैसियत रखता है। विद्यार्थियों में आलोचनात्मक विवेक जागृत करने के लिए मशहूर रहे इसी विश्वविद्यालय से उमर ने ‘आदिवासियों का ज़ोर और झारखंड राज्य का निर्माण’ विषय प अपनी पीएच.डी पूरी की है। यह विषय उनकी सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। लेकिन उमर की सक्रियता और सरकार की आलोचना ने उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा दिया।
दिल्ली दंगे और यूएपीए का दुरुपयोग
13 सितंबर, 2020 को दिल्ली पुलिस ने उमर खालिद को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया। आरोप था कि फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के पीछे उमर "मुख्य साजिशकर्ता" थे। लेकिन तथ्य बताते हैं कि उमर उस समय दिल्ली में थे ही नहीं। वे अमरावती में एक शांतिपूर्ण सभा को संबोधित कर रहे थे। दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में उमर पर लगाए गए आरोपों का कोई ठोस सबूत नहीं है। उमर पर जो आरोप हैं, उसका जवाब कुछ यूँ दिया जाता है:
- आरोप: उमर ने अमरावती में भड़काऊ भाषण दिया, जिससे दिल्ली में दंगे भड़के।
जवाब: उमर का भाषण शांतिपूर्ण विरोध और संवैधानिक अधिकारों पर केंद्रित था। उमर ने भाषण में कहा था, "हमें नफरत के खिलाफ प्यार से लड़ना है।" यह देशप्रेम को दर्शाता है, न कि हिंसा।
आरोप: उमर ने 23 स्थानों पर प्रदर्शन आयोजित किए, जो दंगों का कारण बने।
जवाब: चार्जशीट में कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं है कि उमर ने इन प्रदर्शनों का आयोजन किया। उमर दंगों के समय दिल्ली में नहीं थे, जो उनके स्थान डेटा से सिद्ध होता है।
- आरोप: उमर ने साजिश रची और धन जुटाया।
जवाब: धन जुटाने या साजिश का कोई ठोस सबूत नहीं है।
- आरोप: उमर ने सोशल मीडिया के जरिए हिंसा भड़काई।
जवाब: कोई भी पोस्ट या संदेश नहीं पेश किया गया जो हिंसा को भड़काता हो।
कई न्यायविदों ने इन आरोपों को "खोखला" और "सबूतों से रहित" बताया है। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा, "उमर का मामला दमनकारी कानूनों के तहत असहमति को कुचलने का उदाहरण है।”
उमर खालिद की ज़मानत क्यों नहीं?
पाँच साल से उमर जेल में हैं, लेकिन उनका मुकदमा अभी तक शुरू नहीं हुआ। उनकी जमानत याचिकाएँ बार-बार खारिज हुईं—मार्च 2022 में कड़कड़डूमा कोर्ट, अक्टूबर 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट, और सुप्रीम कोर्ट में। फरवरी 2024 तक उनकी जमानत याचिका 14 बार स्थगित हुई। यूएपीए के प्रावधान इतने सख्त हैं कि बिना जमानत के किसी को सालों तक जेल में रखा जा सकता है। उमर को केवल एक बार, दिसंबर 2024 में, अपने रिश्तेदारों की शादी में शामिल होने के लिए सात दिन की अंतरिम जमानत मिली। सुप्रीम कोर्ट का सिद्धांत "जमानत नियम है, जेल अपवाद है" उमर के मामले में उल्टा हो गया है।
देशद्रोह की परिभाषा और सुप्रीम कोर्ट
1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल हिंसा का प्रत्यक्ष आह्वान या सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने की मंशा ही देशद्रोह मानी जा सकती है। महज असहमति या आलोचना देशद्रोह नहीं है। 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने सेडिशन कानून (IPC धारा 124A) पर रोक लगा दी, यह कहते हुए कि इसका दुरुपयोग हो रहा है। 1995 के बलवंत सिंह मामले में कोर्ट ने कहा कि केवल नारे लगाना, बिना हिंसा भड़काने के इरादे के, देशद्रोह नहीं है। उमर ने तो ऐसा कोई नारा भी नहीं लगाया।
उमर के अमरावती भाषण में देशप्रेम की भावना साफ झलकती है। उमर ने कहा था-
- "हमें गांधी के सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलना है।"
- "यह देश हमारा है, और हम इसके लिए लड़ेंगे—शांतिपूर्ण तरीके से।"
- "नफरत को प्यार से हराना है, हिंसा से नहीं।"
उमर के लिए आजादी का मतलब?
भारत की आजादी की लड़ाई सत्य, अहिंसा और समता के मूल्यों पर आधारित थी। डॉ. आंबेडकर ने इन मूल्यों को संविधान में समेटा, जिसमें हर नागरिक को बोलने, धर्म मानने, कहीं बसने और पेशा चुनने की आजादी दी गई। लेकिन उमर खालिद का मामला इन अधिकारों पर सवाल उठाता है। पांच साल से जेल में बंद एक नौजवान को ज़मानत नहीं मिली, यह संविधान का माखौल नहीं तो और क्या है?
उमर खालिद का पत्र
उमर ने जेल से लिखे एक पत्र में रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तोवस्की के उपन्यास द हाउस ऑफ द डेड का जिक्र किया, जिसमें साइबेरियाई जेल के अनुभवों का वर्णन है। उमर ने दोस्तोवस्की के हवाले से लिखा, "हम जीवित होते हुए भी जीवित नहीं हैं, और हम अपनी कब्रों में नहीं हैं, हालाँकि हम मर चुके हैं।" उमर ने लिखा, "“पाँच साल बीत चुके हैं, लगभग। आधा दशक। ये समय लोगों के लिए पीएचडी पूरी करने और नौकरी ढूँढ़ने के लिए काफ़ी है, प्यार करने, शादी करने और बच्चा पैदा करने के लिए काफ़ी है, बच्चों के बड़े होने के लिए काफ़ी है, दुनिया के लिए गाज़ा में नरसंहार को सामान्य मानने के लिए काफ़ी है, हमारे माता-पिता के बूढ़े और कमज़ोर होने के लिए काफ़ी है।…जिस तरह से सरकार उन्हें जमानत देने से इनकार कर रही है, उससे यह स्पष्ट है कि जब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में हैं, उन्हें जेल में ही रखा जाएगा।”
उमर खालिद का चेहरा एक सवाल बनकर खड़ा है—संविधान में दी गई आजादी का क्या हुआ? मानवाधिकारों की रक्षा का संकल्प कहां गया? पांच साल सलाखों के पीछे बीत गए, और कितने और बीतेंगे? जेल में काटी गई उमर की जिंदगी का हिसाब कौन देगा? क्या यह एक मेधावी नौजवान को तोड़ने की साजिश है? इतिहास इस अपराध का जवाब जरूर माँगेगा—आज नहीं तो कल।