बिहार चुनाव ख़त्म होते ही अब न्यूज़ चैनलों में बंगाल छा गया है और संसद में वंदे मातरम पर बहस हो रही है। ऐसा लगता है कि वंदे मातरम के ज़रिए चुनाव से पहले बंगाल की जनता को कोई संदेश देने की कोशिश हो रही है। अचानक पश्चिम बंगाल में बाबरी मस्जिद बनाने और गीता पाठ को लेकर जो माहौल गरमाया गया है, उसके पीछे भी यही मंशा है। सोमवार को बहस में हिस्सा लेते हुए कांग्रेस सांसद प्रियंका गाँधी ने कहा भी कि पूरी बहस वर्तमान की समस्याओं से ध्यान भटकाने और बंगाल चुनाव को ध्यान में रखते हुए की जा रही है।
नवंबर में वंदे मातरम लिखे जाने के डेढ़ सौ बरस पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित स्मरणोत्सव में प्रधानमंत्री मोदी ने पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर वंदे मातरम की आत्मा को काटने का अपराध करने का आरोप लगाया था। 8 दिसंबर को वंदे मातरम पर दस घंटे की बहस की शुरूआत करते हुए भी उन्होंने नेहरू जी को कोसा। उन्होंने कहा-
“जिन्ना ने 15 अक्टूबर 1937 को लखनऊ में मुहम्मद अली जिन्ना ने वंदे मातरम के ख़िलाफ़ नारा बुलंद किया तो नेहरू को अपना सिंहासन डोलता नज़र आया, बजाय इसके कि वे वंदे मातरम के प्रति निष्ठा को व्यक्त करते, उन्होंने वंदे मातरम की ही समीक्षा शुरू कर दी। उन्होंने नेता जी सुभाषचंद्र बोस को चिट्ठी लिखी कि वंदे मातरम का बैकग्राउंड पढ़ा है, इससे मुस्लिम भड़केंगे। देश का दुर्भाग्य कि वंदे मातरम पर कांग्रेस ने समझौता कर लिया। वंदे मातरम के टुकड़े कर दिये। कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिये। ये तुष्टीकरण की राजनीति को साधने का तरीक़ा था।”
ऐसा लगा कि ये सारी बहस ही नेहरू पर हमला करने के लिए की गयी थी। पलटवार करते हुए प्रियंका गाँधी ने तमाम तथ्य रखे जिनसे साबित होता है कि यह फ़ैसला केवल नेहरू जी का नहीं, पूरी कांग्रेस कार्यसमिति का था जिसमें सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस से लेकर मौलाना आज़ाद तक थे। प्रियंका गाँधी ने कहा-
“वंदे मातरम् राष्ट्रगीत है उस पर क्या बहस हो सकती है। बहस इसलिए हो रही है क्योंकि बंगाल का चुनाव आ रहा है। ये बहस इसलिए जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी उन पर सवाल उठायें और वर्तमान की समस्याओं पर पर्दा डाला जाये। यह संविधान पर हमले की मंशा के तहत किया जा रहा है।”यानी मोदी जी भूल गये कि वे जब नेहरू पर हमला बोलते हैं या वंदे मातरम के दो अंतरे ही स्वीकार करने को अपराध बताते हैं तो सिर्फ़ नेहरू को अपराधी नहीं ठहराते, पूरी वर्किंग कमेटी और गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर को भी ‘अपराधी” बताते हैं। 28-29 अक्टूबर 1937 को कलकत्ता में हुई इस बैठक में कौन-कौन सदस्य थे, जरा पढ़ लीजिए...
- जवाहरलाल नेहरू – अध्यक्ष
- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
- सरदार वल्लभभाई पटेल
- राजेंद्र प्रसाद
- आचार्य जे.बी. कृपलानी – महासचिव (General Secretary)
- राजगोपालाचारी
- जमनालाल बजाज – कोषाध्यक्ष (Treasurer)
- भुलाभाई देसाई
- शरत चंद्र बोस
- जयप्रकाश नारायण
- आचार्य नरेंद्र देव
- सुभाष चंद्र बोस
- खान अब्दुल गफ्फार खान
- पट्टाभि सीतारमैया
- सुचेता कृपलानी (विशेष आमंत्रित)
क्या मोदी बोस से बड़ा देशभक्त?
सवाल उठता है कि क्या मोदी जी सुभाषचंद्र बोस से ज़्यादा देशभक्त हैं, क्या वे राजेंद्र प्रसाद से ज़्यादा समझ रखते हैं, क्या मोदी जी सरदार पटेल से ज़्यादा देश की एकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं। ज़ाहिर है, नहीं। और सबसे बड़ी बात कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर के सुझाव को क्या वे रद्दी की टोकरी में डालने लायक़ मानते हैं। क्या 26 अक्टूबर 1937 को गुरुदेव ने कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू जी को पत्र लिखा। उन्होंने लिखा-
“इसके (गीत के) पहले हिस्से में व्यक्त कोमल भाव और भक्तिपूर्ण भावनाएँ, तथा मातृभूमि के सुंदर-शिवम् पक्ष पर इसका ज़ोर मेरे लिए विशेष महत्व रखते हैं। यह महत्व इतना गहरा है कि इस हिस्से को कविता के शेष हिस्से तथा पुस्तक के उन अंशों से अलग करने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती जिसका यह अंग है। मेरा पालन-पोषण पिता के एकेश्वरवादी विचारों के बीच हुआ है और इन अंशों में व्यक्त भावों से मेरी सहानुभूति नहीं हो सकती।”गुरुदेव ने आगे लिखा कि इसमें बहुत कुछ ऐसा है जो मुस्लिमों के लिए आपत्तिजनक हो सकता है-
मैं इस बात को मुक्तभाव से स्वीकार करता हूँ कि बंकिम की पूरी वंदे मातरम कविता अगर अपने संदर्भ के साथ पढ़ी जाये तो इसकी व्याख्या इस तरह हो सकती है कि उससे मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुँचे।
ज़ाहिर है, राष्ट्रीय नेताओं ने देश की एकता को महत्व दिया और इस वादे पर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई की आज़ादी की लड़ाई कि आज़ादी के फल पर किसी एक धर्म के लोगों का अधिकार नहीं होगा। राष्ट्रीय प्रतीक वही होंगे जो पूरे राष्ट्र को स्वीकार होंगे।
बंगाल में बीजेपी की राजनीति
दरअसल, बिहार के बाद बीजेपी का लक्ष्य है पश्चिम बंगाल जिसे तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी जीत नहीं पा रही है। हालाँकि बीते एक दशक में बीजेपी ने उल्लेखनीय प्रगति की है लेकिन सत्ता तक पहुँचना मुश्किल हो रहा है। बंगाल में बीजेपी का ग्राफ़ नौ साल में ही बढ़ा है-
- 2016 विधानसभा – सिर्फ 3 सीटें
- 2019 लोकसभा – 18 सीटें (42% वोट)
- 2021 विधानसभा – 77 सीटें (38% वोट)
- 2024 लोकसभा – सिर्फ 12 सीटें (वोट घटकर 37% के करीब)
स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी मुख्य विपक्षी दल बन गयी है। सिर्फ़ नौ साल में वह राज्य में एक बड़ी ताक़त बन गयी है। बंगाल की पूरी राजनीति ममता बनर्जी और बीजेपी के बीच सिमट गयी। 35 साल तक शासन करने वाला वाममोर्चा हाशिये पर है। कांग्रेस का भी यही हाल हुआ है। आलोचकों का कहना है कि बंगाल में ज़बरदस्त सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़ोर से पार्टी आगे बढ़ रही है। यह संयोग नहीं कि विधानसभा चुनाव के ठीक पहले एक बार फिर बंगाल को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने की कोशिश की जा रही है।
नयी बाबरी मस्जिद का विवाद
2019 में बीजेपी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके और टीएमसी से निलंबित विधायक हुमायूँ कबीर बंगाल में बाबरी मस्जिद बनाने की ज़िद की वजह से चर्चा में हैं। छह दिसंबर को उन्होंने प्रतीकात्मत तौर पर मस्जिद की नींव डाल भी दी है। उधर, 7 दिसंबर को कोलकाता के परेड मैदान में सामूहिक गीता पाठ हुआ। दावा है कि इसमें पाँच लाख लोग शामिल हुए। बंगाल के लिए यह बिल्कुल नयी बात है। यह सिलसिला 2022 से शुरू हुआ है। देश में कहीं भी ऐसा नहीं होता और न ऐसी परंपरा है। गीता एक दार्शनिक ग्रंथ है जिस पर चिंतन-मनन और भाष्य की लंबी परंपरा है, लेकिन लाखों की उपस्थिति में सामूहिक पाठ बंगाल में शुरू हुआ है।
प्रियंका का मोदी पर आरोप
वैसे, मोदी जी का भाषण सुनकर प्रियंका गाँधी का यह आरोप सही लगता है कि बंगाल चुनाव के नज़रिए से वंदे मातरम पर विवाद शुरू किया गया है। वंदे मातरम पर बहस की शुरुआत करते हुए पीएम मोदी ने बंगाल के विभाजन और बंगाल के लोगों पर हुए अत्याचार को लेकर भावनात्मक वर्णन किया। वंदे मातरम के रचनाकार बंकिमचंद्र चटर्जी और तमाम क्रांतिकारियों का नाम लेकर उल्लेख किया जिन्होंने शहादत दी थी। कंग्रेस और ‘कांग्रेस नाम वाली पार्टियों’ पर तुष्टीकरण की नीति पर चलने का आरोप लगाया।
यानी कांग्रेस ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस को भी निशाने पर लिया जो बंगाल में सत्ता में है। वैसे क्या मोदी जी को 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी का वह रुख़ याद है जब कल्याण सिंह सरकार ने यूपी में वंदे मातरम को स्कूलों में अनिवार्य बनाया था। तब वंदे मातरम को अनिवार्य बनाने के फ़ैसले के लिए बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री रवींद्र शुक्ल को बीजेपी की कल्याण सिंह सरकार से बर्खास्त किया गया था। कहा गया कि उन्होंने बिना कैबिनेट की मंज़ूरी के वंदे मातरम को अनिवार्य बनाने का फ़ैसला लिया था। अटल बिहारी वाजपेयी इस फ़ैसले से काफ़ी नाराज़ थे, इसलिए फ़ैसला बदला गया। क्या कोई मोदी जी से पूछेगा कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी भी तुष्टीकरण कर रहे थे?
अपने भाषण में मोदी जी ने गुरुदवे रवींद्र नाथ टैगोर का ज़िक्र किया लेकिन छुपा गये कि गुरुदेव ने ही सुझाव दिया था कि दो ही अंतरे राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किये जायेंगे। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने 1905 में बंग-भंग के खिलाफ़ रक्षाबंधन को प्रतिवाद का प्रतीक बनाया था। हिंदू-मुसलमानों ने एक दूसरे को राखी बाँधकर एकता का संकल्प लिया था।
लेकिन आज पूरे बंगाल में हिंदू-मुसलमानों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करके राजनीतिक ताक़त बनाना चाहते हैं। सत्ता तक पहुँचना चाहते हैं। उसी बंगाल से स्वामी विवेकानंद भी थे जो दुनिया भर में हिंदू धर्म की पहचान बने। उन्होंने कहा था- ‘वेदांती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर में ही भारत का भविष्य है।’
यानी बंगाल के जितने महापुरुष रहे हैं, उन्होंने सांप्रदायिक विभाजन को देश के लिए ख़तरा बताया था। सद्भाव को ज़रूरी बताया था। क्या वंदे मातरम का झंडा लेकर इस सद्भाव को तोड़ने की इजाज़त दी जा सकती है?