इन दिनों दुनिया भर में ईसा मसीह का जन्मदिन यानी क्रिसमस मनाने की तैयारियों के बीच भारत में ईसाईयों पर बढ़ते हमले भी सुर्खियों में हैं। हिंदुत्ववादी संगठन बिना किसी हिचक के चर्चों पर हमले कर रहे हैं और पुलिस उन पर कार्रवाई के बजाय पीड़ितों को ही धर्मांतरण कराने के आरोप में निशाने पर ले रही है। ज़ाहिर है, इसके पीछे आरएसएस की वह विचारधारा है जो मुस्लिमों और ईसाइयों की देश के प्रति आस्था को हमेशा संदिग्ध मानती है क्योंकि उनकी पवित्रभूमि भारत नहीं है। ऐसा करने वाले भूल जाते हैं कि यह हिंदू धर्म और दर्शन को उसकी ऊँचाई से खींचकर किसी गड्ढे में डाल देना है।
उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में हिंदू धर्म की वैश्विक पहचान बनकर उभरे स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस काली के उपासक थे। रामकृष्ण परमहंस ने 1866 में कुछ दिन इस्लाम और 1873 में कुछ दिन ईसाई धर्म के अनुयायी के रूप में बिताये। इस्लाम और ईसाई धर्म के रीति रिवाजों और विश्वास का पालन किया और अंत में कहा - ‘जतो मत, ततो पथ।’ यानी जितने मत हैं, उतने पथ या रास्ते हैं। अर्थात् ‘सभी धर्म ईश्वर प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हैं। हिंदू-मुस्लिम-ईसाई, सभी एक ही परमात्मा तक पहुँचने के रास्ते हैं।’
स्वामी विवेकानंद भी इसी राह पर चले। कोई भी धर्म उनके लिए पराया नहीं था। उन्होंने सन 1900 में लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया में एक भाषण दिया था- ‘क्राइस्ट, द मैसेंजर!’ इसमें उन्होंने कहा-
“पूरब के व्यक्ति के रूप में अगर मुझे नासरत के यीशु की पूजा करनी हो तो मेरे पास केवल एक ही तरीका है – उन्हें भगवान के रूप में पूजना, और कुछ नहीं! …यदि मैं फिलिस्तीन में रहता, उन दिनों में जब नासरत के यीशु जीवित थे, तो मैं उनके चरणों को अपने आँसुओं से नहीं, बल्कि अपने हृदय के रक्त से धोता!”
विवेकानंद को हिंदू क्या मानेंगे?
लेकिन सौ साल बाद हम एक नये भारत में हैं। ऐसे हिंदू संगठन सामने हैं जिनकी मानें तो विवेकानंद हिंदू ही नहीं माने जायेंगे। स्वामी विवेकानंद यीशु के चरणों को अपने हृदय के रक्त से धोना चाहते थे लेकिन ये हिंदुत्ववादी यीशु का जन्मदिन मनाने वालों पर चर्चों पर हमला करके रक्त बहा रहे हैं। प्रार्थना कर रहे ईसाइयों पर पत्थर फेंक रहे हैं। ऐसा देश के कई राज्यों में हो रहा है, ख़ासतौर पर जहाँ बीजेपी की सरकार है।
22 दिसंबर को मध्यप्रदेश के जबलपुर में हवाबाग महिला कॉलेज के पास एक चर्च में हिंदुत्ववादी संगठनों के सदस्यों ने घुसकर उत्पात मचाया। उनके साथ बीजेपी की जिला उपाध्यक्ष अंजू भार्गव भी थीं। उन्होंने आरोप लगाया कि वहाँ नेत्रहीन छात्रों को ईसाई बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इस घटना का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है जिसमें अंजू भार्गव एक नेत्रहीन महिला से हाथापाई करती नज़र आ रही हैं।
इसी तरह ओडिशा में सेंटा क्लास की टोपी बेचने वालों को प्रताड़ित करने वाले लोगों का वीडियो वायरल है। उत्तराखंड से ख़बर है कि वहाँ हरिद्वार में एक होटल में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर आयोजित होने वाले बच्चों के कार्यक्रम को हिंदुत्ववादी संगठनों के विरोध के कारण रद्द कर दिया गया। इस संदर्भ में आरएसएस के क्षेत्रीय प्रचार प्रमुख पद्मजी ने पीटीआई से बात करते हुए कहा कि सभी को हरिद्वार की धार्मिक मान्यताओं को बिगाड़ने का किसी को अधिकार नहीं है। यानी गंगा किनारे सिर्फ़ हिंदू ही कार्यक्रम कर सकते हैं। ईसाई नहीं।इस बीच, एक ऐसा भी वीडियो वायरल है जिसमें एक हिंदुत्ववादी ‘वीर’ एक चर्च में पादरी को धमकाते हुए पूछ रहा है कि अगर मदर मेरी कुँवारी थीं तो…? वह यह भी कह रहा है कि बाइबिल तो भारत की है नहीं, तो भारत में इसे कैसे पढ़ा जा सकता है। ईसाई विदेशी हैं!
ऐसा करने वालों को कोई डर नहीं है। कम से कम ये तो डर नहीं है कि सरकार उन्हें इस गुंडागर्दी के लिए सज़ा देगी। सरकारें बीजेपी की हैं और उसके लिए इसका कोई मतलब नहीं कि जिस संविधान की रक्षा की उसने शपथ ली है, वह सभी को अपनी धार्मिक मान्यताओं के साथ जीने और उन्हें प्रचारित करने का अधिकार देती है।
ज़ाहिर है कि अल्पसंख्यकों पर हमले संयोग नहीं हैं। आरएसएस के पदाधिकारियों का खुलकर आना बताता है कि दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवक संगठन अपने स्वयंसेवकों से कैसी सेवा ले रहा है।
इसी से जुड़ा संगठन है विश्व हिंदू परिषद। इस संगठन ने देश की राजधानी में दस दिन पहले ही खुली अपील जारी की थी कि हिंदू लोग क्रिसमस से दूर रहें। विहिप के इंद्रप्रस्थ प्रांत मंत्री सुरेंद्र गुप्ता के दस्तख़त से 13 दिसंबर को एक आह्वान पत्र जारी हुआ था। इसमें दावा किया गया कि ‘देश के विभिन्न हिस्सों में संगठित रूप से धर्म परिवर्तन के प्रयास लंबे समय से सक्रिय हैं और ऐसे में अन्य धर्मों के उत्सवों में भागीदारी से उन्हें सामाजिक स्वीकार्यता मिल सकती है।’
क्या किसी योजना के तहत हो रहा ये सब?
यानी जो कुछ हो रहा है वह एक निश्चित योजना के तहत हो रहा है। ज़ाहिर है, ईसाई समुदाय चिंतित है और सड़क पर आने को मजबूर है। 29 नवंबर, 2025 को 18 ईसाई संगठनों के संयुक्त आह्वान पर करीब दिल्ली में संसद के पास एक प्रदर्शन हुआ। प्रदर्शन के दौरान शिकायत की गयी कि सरकार ईसाइयों के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा और भेदभाव को रोकने में नाकाम रही है। यूनाइटेड क्रिश्चियन फोरम (यूसीएफ) ने दावा किया है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ईसाइयों के खिलाफ़ हमलों में 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। फ़ोरम का आरोप है कि-
- 2014 में ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाएँ 139 थीं, जो 2024 तक बढ़कर 834 हो गईं यानी करीब 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
- पिछले 10 वर्षों में देशभर में ईसाइयों के ख़िलाफ़ 4,959 घटनाएँ दर्ज की गई हैं, यानी औसतन हर साल लगभग 70 मामले सामने आए हैं।
ईसाई संगठनों के प्रतिनिधियों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से बार-बार हिंसा रोकने की अपील की गई, लेकिन अब तक कोई नतीजा नहीं निकला। ग़ौर से देखने पर स्पष्ट है कि सभी घटनाओं के पीछे एक पैटर्न है। धार्मिक उग्रपंथियों से जुड़े निगरानी समूहों द्वारा धमकी, ज़बरदस्ती और हिंसा की जाती है।
किनका संरक्षण मिल रहा?
अब सवाल ये कि ये क्यों हो रहा है? मुख्य कारण केंद्र और ज़्यादातर राज्यों में बीजेपी सरकारों का संरक्षण है। हिंदुत्ववादी संगठनों को विश्वास है कि उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। उन्होंने विचारधारा के नाम पर यही घुट्टी पी है कि ईसाई और मुसलमान विदेशी हैं। बीते दिनों कई राज्यों में धर्मांतरण के खिलाफ सख्त कानून बनाये गये हैं जिनके सहारे यह उत्पीड़न आसान हो गया है। ईसाईयों की सामान्य प्रार्थना-सभाएँ भी संदिग्ध बना दी जाती हैं। कोई भी शिकायत कर सकता है और पुलिस आयोजकों को गिरफ्तार कर लेती है।
इस सबके पीछे एक निश्चित विचारधारा है। हिंदुत्व के सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर ने ‘पितृभूमि’ और ‘पवित्रभूमि’ को भारतीय होने की शर्त रख दी। यानी जिसके पुरखे और आराध्य, दोनों भारत के हैं, वही सच्चे भारतीय हैं। मुस्लिमों और ईसाई के पुरखे तो भारतीय हैं, लेकिन उनके पवित्र स्थल येरूसलम और मक्का तो विदेश में ही हैं। इसको तो बदला नहीं जा सकता। यानी ये सिद्धांत गढ़ा ही गया है ईसाई और मुस्लिमों को निशाना बनाने के लिए।
आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार के बाद आरएसएस के सरसंघचालक बने गुरु गोलवलकर भी इन्हीं सिद्दांतों को लेकर आगे बढ़े। उनकी किताब Bunch of Thoughts" (1966) में एक चैप्टर है "Internal Threats", जहां वो मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्ट्स को भारत के लिए आंतरिक खतरा बताते हैं। गोलवलकर लिखते हैं कि ईसाई और मुस्लिम “विदेशी ताक़त" हैं, जो हिंदू संस्कृति को स्वीकार नहीं करते। उन्हें या तो हिंदू संस्कृति स्वीकार करना होगा देश छोड़ना होगा।इस देश में सत्ताधारी दल जिस विचारधारा से प्रेरणा लेता है, उसके मूल में ही मुस्लिमों और ईसाइयों से विद्वेष है। ऐसे में शांति कैसे संभव है?
दिल्ली में बांग्लादेश के हाईकमीशन के बाहर हिंदुत्ववादी संगठनों ने हाल में प्रदर्शन आयोजित किया। बांग्लादेश के एक हिंदू नागरिक दीपचंद्र दास की बर्बर हत्या के विरोध में यह प्रदर्शन था। दीपचंद्र दास की हत्या की जितनी निंदा की जाये कम है। यह बताता है कि बांग्लादेश की वर्तमान सरकार के तहत वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदू सुरक्षित नहीं हैं। और जहाँ अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं होते, वह समाज असभ्य और सरकार बर्बर होती है। लेकिन यही कसौटी तो भारत पर भी लागू होती है। जो लोग दीपचंद्र दास की हत्या का विरोध कर रहे हैं, वे भारत में अल्पसंख्यकों की लिंचिंग और उत्पीड़न पर एक शब्द नहीं बोलते। बल्कि कई संगठन तो इसमें शामिल भी रहते हैं। क्या यह दोहरा रवैया नहीं है? दुनिया इसे बहुत बारीकी से समझ रही है।
देश में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति?
अमेरिका के धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (USCIRF) ने भारत को "Country of Particular Concern" (CPC) यानी विशेष चिंता वाले देश की सूची में डालने की सिफारिश एक बार फिर की है। यह सिफारिश USCIRF की 2025 एनुअल रिपोर्ट में की गई, जो 25-26 मार्च 2025 के आसपास जारी हुई। इस रिपोर्ट में 2024 की धार्मिक स्वतंत्रता स्थितियों का जायजा लिया गया और भारत को अल्पसंख्यकों के खिलाफ व्यवस्थित हिंसा के लिए CPC की श्रेणी में रखने की अनुशंसा की गई। यह USCIRF की लगातार छठी सिफारिश है (2020 से हर साल), लेकिन अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट ने अब तक इसे स्वीकार नहीं किया है।
भारत सरकार ने धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की इस रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण और राजनीति से प्रेरित बताकर खारिज कर दिया है। लेकिन यह बताता है कि भारत में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न अब दुनिया की चिंता का विषय है।
तो यह है नया भारत…जो विवेकानंद को देश-निकाला दे रहा है। याद कीजिए वह भाषण जो 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म संसद में उन्होंने दिया था। इस भाषण में उन्होंने कहा था- “मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, बल्कि सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।”
ग़ौर कीजिए, विवेकानंद हिंदू होने मात्र पर गर्व नहीं करते थे, वे इसलिए गर्व करते थे कि हिंदू धर्म सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करता है। ईसाइयों और मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने वाले स्वामी विवेकानंद की निगाह में कैसे हिंदू हैं, ख़ुद ही तय कीजिए।