बिहार विधानसभा चुनाव की तारीख़ों की घोषणा हो चुकी है और इस बीच राजनीतिक दल दलितों को लुभाने के लिए तरह-तरह की घोषणाएँ कर रहे हैं। ये दल पहले के चुनावों में भी ऐसी ही घोषणाएँ करते रहे हैं, तो क्या दलितों की स्थिति सुधरी? राज्य में दलितों की स्थिति पर नेशनल कॉन्फेडरेशन ऑफ़ दलित एंड आदिवासी ऑर्गनाइजेशन्स यानी NACDAOR ने अपनी ताजा रिपोर्ट 'बिहार: दलित क्या चाहते हैं' में बिहार के दलित समुदाय की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और मानवाधिकार स्थिति का विश्लेषण किया है। इस रिपोर्ट में दलितों की स्थिति बेहद बदतर बताई गई है। यह रिपोर्ट 2011 की जनगणना और 2023 के बिहार जाति सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में 1.65 करोड़ यानी 15.9% दलित निवास करते थे। हाल के बिहार जाति सर्वेक्षण 2023 के अनुसार, राज्य की 13.07 करोड़ आबादी में से 19.65% यानी लगभग 2.57 करोड़ दलित या अनुसूचित जाति वर्ग के हैं। बिहार देश का तीसरा सबसे बड़ा दलित आबादी वाला राज्य है, जहाँ भारत की कुल अनुसूचित जाति जनसंख्या का 8.5% हिस्सा है।

राज्य में 23 अनुसूचित जातियों को मान्यता प्राप्त है, जिनमें से छह प्रमुख जातियां- दुसाध (29.85%), रविदास (29.58%), मुसहर (16.45%), पासी (5.32%), धोबी (4.51%) और भुइयां (4.32%)- बिहार के 90% दलितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। मुसहर समुदाय विशेष रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे अधिक वंचित है।

शिक्षा और साक्षरता

रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार में दलितों की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत 66.1% से काफी कम केवल 55.9% है। दलित महिलाओं में साक्षरता दर और भी चिंताजनक है, जो मात्र 43.4% है, जबकि पुरुषों में यह 66.5% है। मुसहर समुदाय की साक्षरता दर 20% से भी कम है, जो देश के किसी भी जातीय समूह में सबसे निम्न स्तरों में से एक है। उच्च शिक्षा में दलितों की भागीदारी भी बेहद कम है। ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन (2021-22) के अनुसार, विश्वविद्यालयों में दलित छात्रों और शिक्षकों का हिस्सा क्रमशः 5.7% और 5.6% है, जबकि उनकी जनसंख्या 19.65% है।

रोजगार और आजीविका

दलित समुदाय असुरक्षित और कम वेतन वाली नौकरियों में अधिक है। 63.4% दलित गैर-कामकाजी हैं, जिनमें ज़्यादातर महिलाएँ और युवा शामिल हैं। कामकाजी दलितों में 46% सीमांत श्रमिक हैं, जो साल में छह महीने से कम समय के लिए रोजगार पाते हैं। केवल 21% को पूर्णकालिक रोजगार मिलता है जो ज़्यादातर भूमिहीन कृषि मजदूर या अस्थायी मजदूरी के रूप में है।

सरकारी नौकरियों में दलितों की भागीदारी केवल 1.3% है, जो उनके आरक्षण कोटे से कहीं कम है।

स्वास्थ्य और पोषण

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के आंकड़े बताते हैं कि दलित समुदाय में शिशु मृत्यु दर (55 प्रति 1,000 जन्म), मातृ मृत्यु दर (130 प्रति लाख जन्म) और कुपोषण की दर अन्य समुदायों की तुलना में अधिक है। दलित बच्चों में 49% बौनापन और 47.9% कम वजन की समस्या से ग्रस्त हैं। खराब स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुंच इस स्थिति को और गंभीर बनाती है।

आर्थिक और भूमि असमानता

बिहार में दलितों की गरीबी का प्रमुख कारण भूमिहीनता है। राज्य की 19.65% दलित आबादी के पास केवल 11.67% कृषि योग्य भूमि है। 84% से अधिक दलित परिवार भूमिहीन हैं और जिनके पास भूमि है, वह औसतन आधे एकड़ से भी कम है। दलित परिवारों की औसत प्रति व्यक्ति मासिक आय 6480 रुपये है, जो राज्य औसत से 40% कम है।

बजट आवंटन 

NACDAOR की रिपोर्ट में बिहार के बजट आवंटन में असमानता को उजागर किया गया है। 2013-14 में राज्य का कुल बजट 80,405 करोड़ रुपये था, जो 2025-26 में बढ़कर 3,16,895 करोड़ रुपये हो गया। हालांकि, SC/ST/OBC के लिए आवंटन में वृद्धि केवल दोगुनी हुई, और उनका हिस्सा 2.59% से घटकर 1.29% रह गया। अनुसूचित जाति उप-योजना के तहत आवंटन भी अपर्याप्त रहा, और इसका केवल 70% ही खर्च हो पाता है।

अत्याचार और हिंसा

2010 से 2022 के बीच बिहार में दलितों के खिलाफ 85 हज़ार 684 अत्याचार के मामले दर्ज किए गए यानी प्रतिदिन औसतन 17 मामले। इनमें 1202 हत्याएं, 979 बलात्कार (जिनमें 48.31% पिछले तीन वर्षों में), और 38 हज़ार 615 गंभीर चोट के मामले शामिल हैं।

यह रिपोर्ट बिहार में दलित समुदाय की बदहाल स्थिति को उजागर करती है। बिहार विधानसभा चुनावों के दौर में यह रिपोर्ट राजनीतिक दलों को आईना दिखाने वाली है।