बिहार चुनाव में प्रचार अभियान के दौरान प्रशांत किशोर ने खुद कहा था कि जन सुराज या तो अर्श पर होगी या फर्श पर। जन सुराज पार्टी फर्श पर धड़ाम गिरी, लेकिन बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए अर्श पर पहुँच गया।


बिहार विधानसभा चुनावों में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी यानी जेएसपी लोगों के मुद्दों पर केंद्रित अपनी मज़बूत नैरेटिव के बावजूद कोई खास असर नहीं दिखा पाई। माइग्रेशन, बेरोज़गारी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और उद्योगों की कमी जैसे मुद्दों पर आधारित अपनी राजनीतिक चुनौती के ज़रिए बिहार की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती देने की जेएसपी की कोशिश नाकाम रही। एक साल पहले चार सीटों पर हुए उपचुनावों में जेएसपी को नाममात्र का वोट शेयर मिला था और अब विधानसभा चुनावों में भी सोशल मीडिया पर मजबूत मौजूदगी और भारी प्रचार के बावजूद प्रशांत किशोर की उपस्थिति दर्ज कराने की उम्मीदें धाराशायी हो गईं।

243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में एनडीए की भारी जीत के बीच जेएसपी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। प्रशांत किशोर ने एक समय दावा किया था कि उनकी पार्टी 150 सीटें जीतेगी। बाद में उन्होंने कहा कि या तो पार्टी अर्श पर रहेगी या फिर फर्श पर। उन्होंने जेडीयू के लिए 25 से कम सीटों की भविष्यवाणी की थी, लेकिन वास्तविकता में जेडीयू इससे तीन गुनी से ज़्यादा सीटों पर जीतती दिख रही है। चुनावी नतीजों के बीच किशोर ने मतदान प्रतिशत में वृद्धि को युवाओं और प्रवासियों की भागीदारी से जोड़ा और कहा कि परिणाम सभी को चौंकाएँगे।


जेएसपी की शुरुआत प्रशांत किशोर ने पिछले साल की थी, जब उन्होंने आई-पैक यानी इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमिटी से राजनीतिक दल में बदलाव किया। पार्टी ने बिहार के ग्रामीण और शहरी मुद्दों पर फोकस करते हुए सोशल मीडिया कैंपेन चलाए, जिसमें युवा वर्ग को आकर्षित करने की कोशिश की गई। 

विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन बाद में तीन उम्मीदवारों ने नाम वापस ले लिए थे और एक का नामांकन खारिज हो गया था। लेकिन पार्टी को चुनाव में एक भी सीट नहीं मिलती हुई दिख रही है।

महागठबंधन को नुकसान पहुँचाया? 

जन सुराज पार्टी अपनी पहली कोशिश में एक भी सीट जीत तो नहीं पाई, लेकिन महागठबंधन के वोट ज़रूर काटे। जन सुराज को क़रीब तीन फीसदी वोट मिलते दिखे। माना जा रहा है कि ये वोट मुख्य रूप से महागठबंधन के युवा, शहरी, ईबीसी और प्रवासी बिहारियों से कटे होंगे।


राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि एनडीए अपना 2024 का वोट बेस बरकरार रखता हुआ दिख रहा है, जबकि महागठबंधन जन सुराज और AIMIM के कारण कमजोर पड़ता दिखा। कई एक्जिट पोल्स में भी जन सुराज को महागठबंधन के 'एक्स फैक्टर' के रूप में चिह्नित किया गया था, जो विपक्ष को 'सेटल' करने में भूमिका निभा सकता था।

हम लोगों को समझा नहीं पाए: जेएसपी

जन सुराज पार्टी के बिहार में अध्यक्ष मनोज भारती ने चुनाव नतीजों पर कहा कि हम लोग लोगों को बताने की कोशिश कर रहे थे, समझाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन शायद हम लोगों को समझा नहीं पाए।

जन सुराज के अभियान का असर?

2 अक्टूबर 2022 को चंपारण से शुरू हुई प्रशांत किशोर की 3000 किमी की जन सुराज पदयात्रा उसी धरती से निकली, जहाँ महात्मा गांधी ने 1917 में सत्याग्रह की शुरुआत की थी। बिहार की जनता अब प्रशांत किशोर और जन सुराज को जानती है, यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं। दशकों से बिहार दो ध्रुवों की लड़ाई का गढ़ रहा है। यहां नई पार्टी को जगह बनाना आसान नहीं। फिर भी पीके ने रोजगार, पलायन और बिहारियों के शोषण जैसे मुद्दों से युवाओं के मन में जगह बनाई।

संदेश नहीं पहुँचा पाई जेसीपी?

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि बिहार की राजनीति अभी भी जाति-आधारित समीकरणों और आरजेडी, जेडीयू व बीजेपी जैसे पारंपरिक दलों पर निर्भर है। जेएसपी की मुद्दा-आधारित राजनीति ने चर्चा तो पैदा की, लेकिन वोट बैंक बनाने में असफल रही। माइग्रेशन के मुद्दे पर प्रशांत किशोर ने बार-बार कहा कि बिहार के युवा दिल्ली, मुंबई और अन्य राज्यों में मजदूरी करने को मजबूर हैं, लेकिन यह संदेश मतदाताओं तक नहीं पहुँच पाया। इसी तरह, शिक्षा और उद्योगों की कमी पर उनकी आलोचना एनडीए सरकार पर केंद्रित थी, लेकिन मतदाता एनडीए के वादों से प्रभावित दिखे। 


चुनाव आयोग के आँकड़ों के अनुसार, इस बार मतदान प्रतिशत में काफ़ी वृद्धि हुई, जो प्रशांत किशोर के दावे को कुछ हद तक समर्थन देती है। युवा और प्रवासी मतदाताओं की भागीदारी बढ़ी, लेकिन ये वोट जेएसपी की झोली में नहीं गिरे। एनडीए की जीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियां और नीतीश कुमार की लोकप्रिय योजनाएँ अहम रहीं।

कभी चुनावी रणनीतिकार के रूप में मशहूर रहे प्रशांत किशोर ने मोदी, नीतीश सहित कई नेताओं की जीत में योगदान दिया और अब खुद की पार्टी के साथ संघर्ष कर रहे हैं। उनकी हार से बिहार में तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर सवाल उठ रहे हैं। 


बिहार की राजनीति में बदलाव की यह कोशिश भले ही असफल रही, लेकिन यह संकेत देती है कि मुद्दा-आधारित राजनीति को मजबूत आधार बनाने में समय लगता है। आने वाले वर्षों में जेएसपी का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रशांत किशोर कितनी जल्दी सबक सीखते हैं। क्या जन सुराज पार्टी का यह अंत है? या यहीं से असली राजनीति की शुरुआत?