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बिहार की नई सरकार क्या दे पायेगी 19 लाख रोज़गार?

महज 12,774 यानी 0.03 फ़ीसदी वोट का बहुमत पाकर राज करने को तैयार एनडीए की चौथी पारी में उन करोड़ों युवाओं की नौकरी और आर्थिक तरक्की की आकांक्षाओं का क्या होगा जिन्होंने जात-पांत तोड़ कर सत्ता बदलने के लिए मतदान किया है? किसानों की मुक्ति के चंपारण आंदोलन से पूरे देश को अंग्रेजों से संघर्ष की ऊर्जा देने वाले और फिर बिहार आंदोलन से जेपी की संपूर्ण क्रांति की पूरे देश में अलख जगाने वाले बिहार में युवाओं द्वारा इतनी बड़ी वोट क्रांति क्या बेकार चली जाएगी?

क्या युवजन, सांप्रदायिक तथा जातिवादी बँटवारे और छिछली वोटकटुआ राजनीति के आगे घुटने टेक कर फिर अगले पाँच साल परदेस में धक्के खाने को तैयार होंगे? बिहार के रिकॉर्ड के मद्देनज़र तो ऐसा मुमकिन नहीं है। उन्होंने महागठबंधन को जितने सारे वोट और सीट बख्श कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसीने छुड़ाए उससे तो एनडीए सरकार पर युवा एजेंडा अपनाने का दबाव बनने के ही आसार हैं।

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सातवीं बार मुख्यमंत्री भले ही नीतीश कुमार बन जाएँ मगर बीजेपी अपना जनाधार तेज़ी से बढ़ाने के लिए अपने चिर—परिचित हथकंडे तो अपनाएगी ही। दूसरी ओर एआईएमआईएम भी विधानसभा में जीती पाँच सीटों और महागठबंधन को सत्ता से महरूम करने के मद में राज्य के अल्पसंख्यकों के और ध्रुवीकरण की कोशिश करेगी। ऐसे में यदि भाईचारा टूटा और माहौल बिगड़ा तो फिर युवाओं की वह आकांक्षा कैसे पूरी होंगी जिनका ज़िक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने अंतिम चुनावी भाषणों में करने पर मजबूर हुए?

देश में सबसे कम प्रति व्यक्ति आमदनी वाले बिहार में नौकरी का वायदा करने वालों के पीछे युवाओं के लामबंद होने के ठोस कारण हैं। क़रीब 89 फ़ीसदी ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले इस राज्य में खेती की ज़मीन से लेकर राज्य की नौकरशाही तक में अगड़ों का दबदबा आज भी कायम है।

राज्य में पूंजी निवेश और निजी उद्योगों के अभाव में सरकारी नौकरियाँ ही युवाओं का सहारा हैं।

इसीलिए राज्य के कुल मतदाताओं में 51 फ़ीसदी 18 से 39 साल आयु वर्ग के वोटरों ने बढ़—चढ़ कर महागठबंधन को वोट दिया है। बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश के सालाना औसत की महज एक—तिहाई है। साल 2019—20 में भारत की सालाना कुल प्रति व्यक्ति आमदनी 1,34,226 रुपए थी वहीं बिहार में यह औसतन 46,664 रुपए ही थी। तो 11 फ़ीसदी महँगाई के बीच हर महीने सिर्फ़ 3,888 रुपए कमाई से पूरे घर का पेट कैसे भरे? इसकी बड़ी वजह प्रदेश में अधिकतर ज़मीन की मिल्कियत चुनिंदा मुट्ठियों में कैद होना है। साल 2009 के सर्वेक्षण के अनुसार, भूमिहारों के पास यादवों के मुक़ाबले दोगुनी और अति पिछड़ी जातियों के मुक़ाबले चार गुना अधिक ज़मीन है।

इसी तरह कृषि पर नीतीश की डबल इंजन सरकार ने सालाना ख़र्च देश के अन्य राज्यों के 7.5 फ़ीसदी औसत के बरअक्स बिहार में महज 3.5 फ़ीसदी किया है। सो दलितों, ग़रीबों, वंचितों और भूमिहीनों के लिए खेतीबाड़ी में भी कमाई की बहुत कम गुंजाइश है।

अन्य पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण से पिछड़ों में अपेक्षाकृत साधन संपन्न जातियों को ही फ़ायदा हुआ है। अति पिछड़े और दलित आज भी हाशिये पर हैं। इसका सबूत मानव विकास सर्वेक्षण 2011—12 है जिसके अनुसार वेतनभोगी नौकरियों में यादवों की भागीदारी 10 फ़ीसदी, कुर्मियों की नौ फ़ीसदी, पासवानों की 8.9 फ़ीसदी और जाटवों की सिर्फ़ 7.7 फ़ीसदी है। ये जातियाँ भी राज्य की आला नौकरशाही में ख़ास मुकाम नहीं बना पाईं क्योंकि उसमें 70 फ़ीसदी अफ़सर अगड़े ही हैं।

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अति पिछड़ों और महादलितों के विकट आर्थिक संकट के लिए नीतीश कुमार की वादाख़िलाफ़ी भी ज़िम्मेदार है। उन्होंने 2005 में भूमि सुधार लागू करने और 2010 के चुनाव में इन वर्गों को तीन डिसमिल ज़मीन देने का वायदा किया था जो उन्हें आज दस साल बाद भी नहीं मिली। उन वर्गों के हाथों नीतीश से इसका बदला चुनाव नतीजों में सामने आया है। बंद्योपाध्याय आयोग की भूमि सुधार संबंधी रिपोर्ट 2008 में मिली पर नीतीश कुमार ने अगले 12 साल में उसे लागू ही नहीं किया। 

आयोग ने भूमि सुधार के लिए बटाईदारों को क़ानूनी संरक्षण और राजस्व प्रशासन में सुधार को कहा था। इससे भी महत्वपूर्ण भूमिहारों और जमींदारों द्वारा कब्जाई गई सीलिंग की ज़मीन उनसे मुक्त कराकर भूमिहीनों में बाँटने की सिफारिश थी। नीतीश ने अति पिछड़ों और महादलितों को सरकारी आरक्षण में अलग खाँचे में डाल कर 2010 और 2015 में सत्ता की मलाई खाई पर भूमि सुधार लागू करके भू—असंतुलन दूर करने से मुकर गए। जबकि 89 फ़ीसदी ग्रामीण पृष्ठभूमि के राज्य में भूमि सुधार ही अति पिछड़ों के सशक्तिकरण का मूलभूत और स्थाई उपाय है।

वीडियो में देखिए, पाँच साल चल पाएगी नीतीश सरकार?

इसीलिए आज़ादी के 73 साल बाद भी राज्य की आधी आबादी खाली हाथ है। उत्तम कछारी मिट्टी और सिंचाई के लिए नदियों की बहुतायत के बावजूद रोज़गार के लिए युवाओं को भूमिहीनता की वजह से ही पलायन करना पड़ता है। उसका दर्दनाक अंजाम महामारी काल में बीवी—बच्चों सहित प्रवासी बिहारी मज़दूरों की हज़ारों मील पैदल घरवापसी के रूप में पूरे देश ने शर्म से गर्दन झुकाकर देखा। उसी से सबक़ लेकर बिहार के युवाओं ने जात-पांत के बंधन और राज्य एवं केंद्र सरकार की जबरदस्त घेरेबंदी तोड़ कर महागठबंधन को इतनी भारी तादाद में वोट दिया है।

देखना यही है कि 10 लाख नौकरियों के विपक्षी एजंडे का उपहास उड़ाने वाले नीतीश कुमार और बीजेपी के नेता सत्तारूढ़ होकर युवाओं से कैसे निपटेंगे?
ऐसा प्रगतिशील एजेंडा सेट करने के लिए तेजस्वी की अनुभवहीनता को दोष देकर हालाँकि नीतीश अपनी साख गिरा ही चुके हैं। इससे सबक़ लेकर बीजेपी के 19 लाख रोज़गार और अपने 10 लाख रुपए क़र्ज़ देकर लोगों का क़ारोबार कराने के आश्वासन को क्या नीतीश लग कर पूरा करवाएँगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी अपने अगड़ा वोटबैंक के दबाव में महागठबंधन द्वारा राज्य के वास्तविक एवं त्वरित विकास की युवाओं को थमाई रोज़गार की कुंजी दोबारा फिरकों के भूसे के ढेर में दबा कर पिछड़ों और वंचितों को राष्ट्रवाद की घुट्टी से बरगलाती रहेगी?
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अनन्त मित्तल
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