अगर गब्बर सिंह कहता, ”आज से पचास साल बाद भी जब बच्चा रोएगा, तो मां कहेगी, बेटा सो जा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा...” — तो इसे एक सटीक भविष्यवाणी कहा जाता। पचास बरस बाद भी, भारत की सबसे बड़ी हिट आज भी उसी शान से चलती है — सिर्फ़ अपने सितारों के बल पर नहीं, बल्कि उन तमाम सिनेमा के कारीगरों के दम पर जिनका काम पर्दे पर तो बोलता है, लेकिन पर्दे के पीछे की कहानी में वे अक्सर छूट जाते हैं।
शोले का वो ईंधन जो 50 साल बाद अब भी जलता है!
- सिनेमा
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- 7 Aug, 2025

शोले का वो ईंधन जो 50 साल बाद अब भी जलता है
50 साल बाद भी ‘शोले’ का जादू बरकरार है। जानिए कैसे पर्दे के पीछे के कारीगरों ने इस फिल्म को इतिहास बना दिया।
यह फिल्म नहीं थी, यह मुठभेड़ थी। एक उल्का जो परदे पर आ गिरा और कह गया — "सिनेमा ऐसा होना चाहिए।" न केवल एक कहानी, न केवल रोचकता — बल्कि ऐसा अहसास जो सिनेमा की परिभाषा ही बदल दे। अब यह केवल विश्वास का निलंबन नहीं रहा — यह विश्वास बन गया। जैसे रामगढ़ हमेशा से बसा-बसाया गाँव था, और हम बस वहाँ पहुँचे और उनकी कहानी का हिस्सा बन गए। किसी के लिए यह 70 मिमी स्क्रीन का जादू था। किसी और के लिए वह स्टीरियो साउंड जो दीवारों से टकरा कर लौटता था, जब गब्बर के बूट बजते थे और कंकड़ कांपते थे।
लेकिन जिसने भी 1975 में शोले देखी —उसे कहानी ही नहीं, उसका असर भी याद है। क्योंकि शोले हिंदी के दर्शकों के लिए सिर्फ़ मनोरंजन नहीं था। वह सिनेमा नहीं, सुनामी थी। और यह आंधी केवल सितारों या स्क्रिप्ट से नहीं उठी थी — यह तो उन कारीगरों की आग थी, जो पर्दे के पीछे काम करते रहे — जिनका नाम शायद ही आज की पीढ़ियों को याद हो — लेकिन जिनके हुनर ने शोले को शोले बनाया। आइए, शोले की 50वीं सालगिरह पर सबको उस पार्टी में शामिल किया जाए।