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फिल्म आदिपुरुष का पोस्टर।

यह आदिपुरुष आस्था और कला दोनों को आहत कर रहा है

धार्मिक, पौराणिक विषयों , इतिहास और आस्थाओं से जुड़े मसलों पर फिल्में बनाना मौजूदा कट्टरपंथी राजनीतिक-सांस्कृतिक   माहौल में आसान नहीं है । यह माहौल जिन लोगों ने रचा था, उनके लिए  भी यह दोधारी तलवार साबित हो सकता है। धर्म को चुनावी राजनीति की धुरी बनाकर वोटों का ध्रुवीकरण करने वालों और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दुंदुभी बजाने वालों और आदिपुरुष के निर्माताओं को फिल्म पर हो रहे विवाद से यह बात समझ आ गई  होगी। भले ही फिल्म की पहले दिन की कमाई के आँकड़े इस फिल्म के निर्माताओं के लिए विशुद्ध कारोबारी नज़रिये से बहुत उत्साहजनक हों लेकिन दर्शकों की निराशाजनक और नकारात्मक प्रतिक्रियाओं और नाराज़गी का बवंडर इतनी जल्दी थमने वाला नहीं है, यह भी दिख रहा है। 

सवाल यहाँ तक उठ रहे हैं कि सिनेमा के परदे पर राम-सीता-हनुमान की जो छवि प्रस्तुत की गई है, क्या अयोध्या बन रहे राम मंदिर में लोग दुनिया भर से इन्हीं के दर्शन करने आएँगे? आदिपुरुष पर फिल्म इंडस्ट्री से लेकर बीजेपी और संघ परिवार के तमाम बड़े नेताओं , नरोत्तम मिश्रा जैसे मंत्रियों , उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री  योगी आदित्यनाथ की चुप्पी के भी अर्थ निकाले जाएंगे। सिनेमा को अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने वालों की ख़ामोशी इस बात का संकेत है कि आस्था के नाम पर लोगों की खेमेबंदी का दाँव उल्टा पड़ सकता है। दिलचस्प बात यह भी है कि कश्मीर फाइल्स और केरल स्टोरी पर उत्साहित  तमाम समाचार चैनल इस विषय पर अभी हवा का रुख़ भाँपने में लगे हैं। लेकिन आम लोगों की राय के स्पष्ट संकेत है कि भले ही  फिल्म की कमाई कितनी भी हो जाए , इससे हिदुत्ववादी राजनीति के झंडाबरदारों की साख पर तगड़ा बट्टा लगा है। 

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राजनीति को दरकिनार करके ख़ालिस फिल्मी पैमानों पर भी परखा जाए तो आदिपुरुष फिल्म करोड़ों भारतीयों के लिए लोकप्रिय और आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम  के नाम पर ओम राउत और मनोज मुंतशिर शुक्ला की घनघोर यंत्रणा है आम भारतीय दर्शक पर! निर्माताओं की ओर से फिल्म के आरंभ में दिये गये अस्वावीकरण में  दावा किया गया है कि यह फिल्म वाल्मीकि रामायण पर आधारित है । वाल्मीकि रामायण के जिन हिस्सों को इस फिल्म में चुना गया है, उनका प्रस्तुतिकरण  बहुत ही वाहियात है । एक औसत उत्तर भारतीय मानस में राम की जो छवि है, ओम राउत और मनोज मुंतशिर शुक्ला ने उससे बिल्कुल अलग चित्रण क्यों किया यह सवाल उठना लाजिमी है। 

एक अलग राम गढ़ने के लिये चेहरे मोहरे, वस्त्र विन्यास से लेकर नाम तक बदलने की ज़रूरत को क्या कलात्मक आजादी के नाम पर तर्कसंगत ठहराया जा सकता है? राम के लिए राघव, सीता के लिए जानकी और हनुमान के लिए बजरंग के संबोधन ग़लत नहीं हैं लेकिन आम बोलचाल से अलग ज़रूर हैं इसलिए अटपटे लगते हैं।


जो लोग बीजेपी की धर्म आधारित राजनीति के दायरे से बाहर सचमुच धार्मिक, आध्यात्मिक कारणों से रामभक्त हैं, उनके लिए इस फिल्म में बहुत सी खटकने वाली बातें हैं। आम दर्शकों से लेकर धर्माचार्यों तक की भावनाएं आहत होने की तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं।  

तीन घंटे इसे झेलने के बाद दूरदर्शन पर अस्सी के दशक में दिखाया गया रामानंद सागर का पुराना धारावाहिक रामायण हर मामले में बहुत उत्कृष्ट कोटि का लगने लगेगा। सोशल मीडिया पर तो रामानंद सागर की रामायण की यादें ताज़ा करते तमाम वीडियो नज़र आने लगे हैं। 

हॉलीवुड की एक्शन फिल्मों और कौतुक कथाओं से प्रेरित  स्पेशल एफेक्ट्स और थ्री डी के तकनीकी तामझाम के अलावा आदिपुरुष फिल्म में कुछ है ही नहीं । पहला दोष निस्सन्देह  निर्देशक और लेखक की साझा परिकल्पना का है। कलाकार बाद में आते हैं। राम के केंद्रीय चरित्र के अभिनय के नाम पर प्रभास बिल्कुल भावशून्य हैं पूरी फिल्म में।उनकी असरदार आवाज़ बाहुबली वाले शरद केलकर की है जो अच्छी है लेकिन अभिनय तो इससे बहुत बेहतर अमरेन्द्र बाहुबली की भूमिका में था। सैफ़ अली खान बहुत लाउड रावण हैं , शायद पूरी फिल्म के स्केल की वजह से। डीलडौल ज़रूर  उन्होंने विशालकाय बनाया है इस फिल्म के लिए। उनका अभिनय बुरा नहीं है लेकिन रामायण के अरविंद त्रिवेदी इस किरदार में उनसे बहुत बेहतर थे। इकलौती राहत कृति सानन हैं सीता की भूमिका में । 

कम से कम कुछ तो सुंदर और कोमल दिखता है फिल्म में उनकी वजह ये। मनोज मुंतशिर ने हनुमान और लक्ष्मण की पहली मुलाकात के सवाल जवाब समेत बहुत से संवाद वाट्सऐप के चुटकुलों वाली चलताऊ भाषा में लिखे हैं। हनुमान को करोड़ों हिंदू लोग हनुमान चालीसा और सुंदरकांड के जरिये आस्थापूर्वक 'विद्यावान गुनी अति चातुर' के रूप में स्मरण करते हैं, आदिपुरुष फिल्म में लंकादहन प्रसंग में उनका एक संवाद है- कपड़ा तेरे बाप का, तेल तेरे बाप का, आग भी तेरे बाप की, तो जलेगी भी तेरे बाप की। हनुमान के भक्त कैसे यह बर्दाश्त करेंगे और उनकी प्रतिक्रिया किस रूप में सामने आएगी, यह अभी देखना बाक़ी है।

मनोज मुंतशिर शुक्ला ने इस फिल्म के निर्माण के दौरान अपनी आस्था के सबूत के तौर पर बड़े गर्व से कहा था कि वे अपने जूते बाहर उतार कर तब अंदर जाते थे। फिर उन्होंने इस तरह के संवाद कैसे लिखे, यह सवाल उठना स्वाभाविक है। आदिपुरुष में संवादों के जरिये वर्तमान सामाजिक राजनीतिक संदर्भों पर टिप्पणी का भी संकेत झलकता है। हनुमान एक जगह कहते हैं - जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे, उनकी लंका लगा देंगे। रावण से लड़ने के लिए वानर सेना में जोश भरने के लिए राम कहते हैं- उस दिन के लिए लड़ना जब भारत की किसी बेटी पर हाथ डालने वाले दुराचारी तुम्हारा नाम सुनकर काँप उठें। विजय का भगवा ध्वज लहराने का आह्वान भी करते हैं। 

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बहरहाल फिल्म औसत से भी नीचे है। बीजेपी परिवार, सरकार और उसके अंधभक्त हिट करा दें तो अलग बात है वर्ना इस फिल्म में दर्शक को बाँध रखने जैसी कोई बात नहीं है। 

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अमिताभ
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