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पठान : कट्टरपंथी ताक़तों को करारा तमाचा 

शाहरुख खान की फिल्म पठान ने झंडे गाड़ दिये हैं। फिल्म पठान की कामयाबी के कई आयाम हैं, कई मायने हैं। फिल्म के एक गाने बेशर्म रंग और दीपिका पादुकोण की भगवा बिकिनी पर आस्था आहत होने के नाम पर मचे बवाल के बाद फिल्म पठान को लेकर दर्शकों का जोश बहिष्कार की राजनीति के खिलाफ एक तगड़ा राजनीतिक-सामाजिक बयान है। कट्टरपंथी ताक़तों के मुँह पर ज़ोरदार तमाचा है।  

दर्शकों की प्रतिक्रिया से साफ है कि भारत के ज्यादातर आम लोग अपनी पसंद से अपने मनोरंजन का माध्यम चुनने की आजादी के अधिकार का खुल कर इस्तेमाल करना चाहते हैं चाहे कोई बहिष्कार की कितनी ही बात कहे। यानी पब्लिक जो देखना चाहती है, उसे देखने दीजिए, जो पढ़ना चाहती है, पढ़ने दीजिए, जो खाना चाहती है उसे खाने दीजिए! जो पहनना चाहती है, पहनने दीजिए। मॉरल पुलिस वाली  पाबंदी की पॉलिटिक्स से बाज़ आइये।

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 पठान की कामयाबी उस मॉरल पुलिस और बायकॉट ब्रिगेड को करारा जवाब है जो फिल्म के नाम, कहानी, हीरो-हीरोइन, गाने , संवाद, कपड़ों वगैरह के मुद्दे उठाकर समाज में फ़िज़ूल की अशांति पैदा करते हैं और जिन्हें मुख्यधारा का मीडिया खूब हवा देता है। पठान के बायकॉट की आवाज़ें अब भी सोशल मीडिया पर सुनी जा सकती हैं। दिलचस्प संयोग है कि फिल्म पठान की शुरुआती कामयाबी की ख़बरों के बीच केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने फिल्मों के बहिष्कार की मुहिम की कड़ी निंदा की है। अनुराग ठाकुर का कहना है कि भारत अपने सिनेमा की पहुँच और उसकी ताक़त के जरिये अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश कर रहा है, ऐसे में फिल्मों के बायकॉट का शोर मचाने से माहौल ख़राब होता है । प्रधानमंत्री पहले ही इस तरह की प्रवृत्तियों से बचने की हिदायत दे चुके हैं। अब दर्शकों के जोश के साथ-साथ सरकार के सख्त रुख़ के बाद फिल्मों के बहिष्कार की मुहिम छेड़ने वाले कट्टरपंथियों  के हौसले पस्त हो जाने चाहिए। 

पठान इस साल की पहली जबरदस्त हिट फिल्म बनती दिख रही है। 2022 हिंदी फिल्मों के लिए बहुत बुरा गया। अक्षय कुमार, आमिर खान और रनबीर कपूर की फिल्मों ‘सम्राट पृथ्वीराज’, ‘लाल सिंह चड्ढा’ और ‘शमशेरा’ की बॉक्स ऑफ़िस नाकामी को इनके बहिष्कार की मुहिम से जोड़ कर देखा गया। नये साल यानी 2023 की शुरुआत में ही सिनेमाहॉल में दर्शकों की भीड़ की वापसी हिंदी फिल्म उद्योग के लिए ख़ुशी और राहत की ख़बर लेकर आई है। पठान के जरिये बड़े परदे पर शाहरुख खान की धमाकेदार वापसी हिंदी सिनेमा में उनका रुतबा और दबदबा क़ायम रहने का भी सबूत है। पिछली कुछ फिल्मों की नाकामी के बाद उनके बारे में नकारात्मक चर्चाओं का सिलसिला काफी तेज़ रहा। उनके बेटे आर्यन का नाम ड्रग्स के मामले में आने के बाद काफी छींटाकशी हुई, उन पर उँगलियाँ उठीं, आर्यन जेल गये और बाद में अदालत से बेदाग़ भी छूटे। शाहरुख ने सारे मामले के दौरान मुँह बंद रखा। मुँह खोला तो कोलकाता फिल्म महोत्सव में पठान का संवाद बोलकर।
शाहरुख ने इस फिल्म के जरिये उन तमाम लोगों को भी जवाब दे दिया है जो उनके एक पुराने बयान के राजनीतिक निहितार्थ की  वजह से उनकी देशभक्ति पर सवाल उठा रहे थे। शाहरुख खान बहुत बुद्धिमान व्यक्ति हैं और फिल्मी दायरे के बाहर उनकी अभिव्यक्तियां बहुत सधी हुई होती हैं। उन्होंने जिस तरह मौजूदा निजाम के सामने किसी तरह का प्रत्यक्ष समर्पण किये बगैर अपने आपको देश का एक बेहद लोकप्रिय फिल्म अभिनेता साबित किया है, उससे उनके प्रशंसक बढ़े ही हैं। 

पठान फिल्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि यह ठेठ मसाला हिंदी सिनेमा की कहानी के खाँचे में राष्ट्रवादी मुस्लिम नायक की वापसी है। पिछले कुछ समय से कई हिंदी फिल्मों में मुस्लिम किरदारों का एक ख़ास तरह का चित्रण विवाद का विषय बनने लगा था। पठान का नायक देश की आन-बान-शान के लिए जान की बाज़ी लगा देने वाला एक किरदार दिखाया गया है । जय हिंद का नारा लगाता है। खलनायक भारत की खुफिया एजेंसी रॉ का पूर्व सदस्य है जो अपने निजी बदले की आग में झुलसते देशद्रोही हो चुका है। नायिका पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई की सदस्य है लेकिन अपने देश के एक फ़ौजी जनरल की साज़िश के खिलाफ हीरो पठान का साथ देती है।

फिल्म कश्मीर के विशेष दर्जे वाले अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर पाकिस्तान के एक फ़ौजी जनरल की भारत के खिलाफ साज़िश से शुरू होती है और तमाम साज़िशों को नेस्तनाबूद  करते हुए खत्म होती है।फिल्म में  रक्तबीज नाम का जानलेवा वायरस है जिसे भारत पर रासायनिक हमले के लिए इस्तेमाल करने की साज़िश है। नायक उसे नाकाम करता है। किंग्सुकी नाम की जापानी विधा का जिक्र है  जो टूटे टुकड़ों को सोने से जोड़ कर उन्हें और भी सुंदर बना देती है। किंग्सुकी के प्रतीक के बहाने फिल्म का नायक पठान वह सोना साबित होता है जो सबको जोड़े रखेगा। प्रतीकात्मक तौर पर यह फिल्म के जरिये अल्पसंख्यक समुदाय की सकारात्मक छवि निर्माण का प्रयास है जिसे मौजूदा सांप्रदायिक राजनीति ने नकारात्मक तौर पर प्रस्तुत करने का सुनियोजित प्रयास किया है। 

पठान की कहानी उतनी ही तार्किक या अतार्किक कही जा सकती है जितनी जेम्स बॉँड की किसी फिल्म की कहानी होती है। जो लोग डैनियल क्रेग की जेम्स बॉंड वाली फिल्में और टॉम क्रूज़ की ‘मिशन इम्पॉसिबल’ जैसी एक्शन फिल्में लगातार देखते रहे हों उन्हें पठान की कहानी और उसके एक्शन दृश्यों में हॉलीवुड की शैली से बहुत समानता दिखेगी। डिंपल कपाडिया का किरदार जेम्स बॉंड की बॉस एम से विख्यात हुई जूडी डेंच की याद दिलाता है। अफ़्रीका, फ़्रांस, स्पेन, रूस तमाम देशों में शूटिंग हुई है। तकनीकी तामझाम को छोड दिया जाए तो पठान एक तेज़ रफ्तार औसत मसाला फिल्म है। लेकिन पैसा वसूल मनोरंजन की चाहत में बड़े परदे का रुख़ करने वाले आम दर्शक को ढाई तीन घंटे का धाँसू मसाला ही तो चाहिए जो यह फिल्म देती है।

पठान फिल्म में सलमान खान की मौजूदगी एक अतिरिक्त आकर्षण है। छोटी सी भूमिका में सलमान वही करते हैं जिसके लिए उनके लाखों प्रशंसक इंतज़ार करते हैं। यशराज फिल्म्स ने सलमान खान की फिल्म ‘एक था टाइगर’, ‘टाइगर ज़िंदा है’ और ऋतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ़ की फिल्म ‘वॉर’ के जरिये एक स्पाई यूनिवर्स की श्रेणी विकसित की है। पठान उसकी कड़ी का हिस्सा है और सलमान इस फिल्म में टाइगर के किरदार में ही नज़र आए हैं। सलमान और शाहरुख के संवादों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद शाहरुख खान भी सलमान की टाइगर सीरीज़ वाली अगली फिल्म में किसी मेहमान भूमिका में नज़र आएँ जैसे रनबीर कपूर की फिल्म ब्रह्मास्त्र में दिखे थे। 

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फिल्म के अंत में  सलमान और शाहरुख की दिलचस्प बातचीत ऊपर ऊपर से तो किसी नये जासूसी मिशन के बारे में लगती है लेकिन उसमें फिल्म उद्योग में उनके दबदबे, उनकी जगह ले पाने में किसी नये सितारे की अनुपस्थिति का इशारा भी है। बहुत दिलचस्प संवाद है- देश का सवाल है बच्चों पर नहीं छोड सकते। 

यशराज बैनर की इस फिल्म में यश चोपड़ा की फिल्मों के पुराने नायक अमिताभ बच्चन की फिल्मों ‘लावारिस’, ‘खुदा गवाह’ का जिक्र एक संवाद में आता है उनके नाम के बगैर। शाहरुख का संवाद है- ‘मर्द को दर्द नहीं होता’। पठान की कामयाबी के बाद मौजूदा चलन के मुताबिक अगर निकट भविष्य में उसके किसी सीक्वेल का भी ऐलान हो जाए तो ताज्जुब नहीं होगा। 

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अमिताभ
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