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दिल्ली पुलिस को 13 हज़ार फ़ोन कॉल आए तो पुलिसकर्मी क्या कर रहे थे?

क्या दिल्ली पुलिस अपना काम ठीक से करती तो दिल्ली दंगा हो पाता? बिल्कुल नहीं। अब जो रिपोर्टें आ रही हैं वे सभी इसकी पुष्टि करती हैं। अब रिपोर्ट आई है कि मदद के लिए या दंगा रोकने के लिए चार दिन में 13 हज़ार से ज़्यादा फ़ोन कॉल पुलिस को किया गया। इसका मतलब साफ़ है कि इतने बड़े स्तर पर लोग हिंसा रोकने की बात कह रहे थे और इसके लिए प्रयासरत भी थे। लेकिन कार्रवाई क्या हुई? एक रिपोर्ट के अनुसार, जो रिकॉर्ड मिले हैं उसमें पता चलता है कि कार्रवाई न के बराबर की गई। यानी पुलिस मौक़े पर पहुँची ही नहीं। तो क्या पुलिस कम पड़ गई थी? तब दिल्ली पुलिस के प्रमुख रहे अमुल्य पटनायक ने दावा किया था कि पुलिस बल की कमी नहीं थी। फिर ऐसा क्यों हुआ कि पुलिस दंगे की जगहों नहीं पहुँची और चार दिन तक उत्तर-पूर्वी दिल्ली उबलती रही और क़त्लेआम होता रहा?

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दिल्ली देश की राजधानी है और इस वजह से संसाधनों के मामले में तो बेहतर होगी ही। हर जगह पुलिस की पहुँच बेहतर है। संचार के साधन अच्छे हैं। तुरंत कार्रवाई की सुविधा है। अधिकतर क्षेत्रों में सीसीटीवी से निगरानी भी है। देश के बाक़ी राज्यों से बेहतर पुलिसकर्मी हैं। उनकी ट्रेनिंग भी बढ़िया है। और दंगाइयों से निपटने के लिए हथियार से लेकर दूसरे साधन भी। ऐसे में क्या दंगे की गुँजाइश बचती है? भले ही नेता भड़काऊ भाषण दें। पहले चाहे जितनी भी दंगे की साज़िश रची गई हो। क्या इसे नियंत्रित करने में चार दिन का समय लगना चाहिए था? यदि पुलिस अपनी ज़िम्मेदारी निभाती तो शायद यह मामला मामूली हिंसा तक ही रुक जाता।  

क्या यह अकारण है कि दिल्ली हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने लापरवाही बरतने के लिए पुलिस की ज़बरदस्त खिंचाई की है?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पुलिस में पेशेवर रवैये की कमी है। इसने कहा कि अमेरिका में नेताओं को अभद्र बयान देने के कारण गिरफ़्तार कर लिया जाता है। 

इसी मामले में सुनवाई कर रहे दिल्ली हाई कोर्ट ने भी पुलिस की लापरवाही को माना। जस्टिस एस मुरलीधर और जस्टिस तलवंत सिंह की बेंच ने तुषार मेहता से कहा कि वह पुलिस कमिश्नर को सलाह दें कि बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर, प्रवेश सिंह वर्मा और कपिल मिश्रा के कथित नफ़रत वाले बयान पर एफ़आईआर दर्ज की जाए। कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की तीखी आलोचना की थी और कहा था कि उसे कोर्ट के आदेश का इंतज़ार नहीं करना चाहिए और अपने स्तर पर ही कार्रवाई करनी चाहिए। 

अब इस बात का जवाब कौन देगा कि किसके निर्देश पर दिल्ली पुलिस लगातार दो दिन हिंसा-उपद्रव रोकने से बचती रही? जब दबाव बढ़ा तो बाद में भी वह लचर रुख अख्तियार किए रही। 

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दंगे में पुलिस की भूमिका को लेकर और भी कई सवाल उठाए जा रहे हैं। एक वीडियो में देखा गया है कि वह सीसीटीवी कैमरे को तोड़ रही है। तो क्या पुलिस कुछ छिपाना चाहती थी? एक वीडियो में देखा गया है कि एक समुदाय विशेष के घायलों को दिल्ली पुलिस के जवान अस्पताल नहीं भेजते हैं। वे उनपर ज़्यादती करते हैं। पुलिसकर्मी लाठी-डंडे के ज़ोर पर उनसे ‘वंदे मातरम्’ और ‘जन-गण-मन’ गाने को कहते हैं। अब तो उनमें से एक युवक की मौत भी हो चुकी है। 

कई मामलों में आरोप लग रहे हैं कि कई जगहों पर पुलिस जवानों को पत्थरबाजों के साथ पत्थर चलाते या उनका सहयोग करते देखा गया।

ऐसे में यदि यह रिपोर्ट आए कि दिल्ली पुलिस को हिंसा से पीड़ित लोगों ने 13200 बार फ़ोन कॉल किया और फिर भी उन्हें सहायता नहीं मिली तो इसका क्या मतलब है? 'एनडीटीवी' की रिपोर्ट के अनुसार हिंसा के 4 दिन में यानी 23 से 26 फ़रवरी तक पुलिस कंट्रोल रूम पर फ़ोन कॉल आने की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई। जहाँ 23 फ़रवरी को फ़ोन कॉल की संख्या 700 रही, वहीं 24 फ़रवरी को 3500, 25 फ़रवरी को 7500 और 25 फ़रवरी को 1500 रही। रिपोर्ट के अनुसार, भजनपुरा थाना क्षेत्र में आने वाले यमुना विहार में हिंसा हुई थी। यहाँ 24-25 फ़रवरी को 3000-3500 फ़ोन पर शिकायत की गई। फ़ोन पर आई इन शिकायतों को रजिस्टर में भी दर्ज किया जाता है और इसमें शिकायत की जानकारी, शिकायत का समय और ‘क्या कार्रवाई हुई’ का कॉलम होता है। अधिकतर मामले में 'क्या कार्रवाई हुई' वाला कॉलम खाली था। यानी अधिकतर मामलों में कुछ भी कार्रवाई नहीं की गई थी। ऐसी ही रिपोर्ट करावलनगर थाना क्षेत्र में आने वाले शिव विहार में भी रही।

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‘एनडीटीवी’ की रिपोर्ट के अनुसार, यमुना विहार के बीजेपी पार्षद प्रमोद गुप्ता ने कहा कि उन्होंने भी बार-बार फ़ोन किया लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। उन्होंने कहा, 'पुलिस स्थिति को काबू में नहीं कर सकी थी। यदि पुलिस ने नियंत्रित किया होता तो निश्चित तौर पर ऐसी स्थिति नहीं होती।'

तो सवाल वही है कि आख़िर किन कारणों से पुलिस विफल साबित हुई? क्या उस पर राजनीतिक आकाओं का दबाव था और वह लोगों की सुरक्षा की अपनी ज़िम्मेदारी भूल चुकी थी या फिर वह इस हिंसा को गंभीरता से नहीं ले रही थी?

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क़मर वहीद नक़वी
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