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हिंदू तुष्टिकरण और भारतीय राजनीति के हिंदूकरण का दौर

मोदी-योगी के सारे करतब-कारनामे राजनीति को पूरी तरह से हिंदूमय कर देने का है। दुर्भाग्य ये है कि दूसरी पार्टियाँ भी जाने-अनजाने यही कर रही हैं। अरविंद केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी और राहुल-प्रियंका तक हिंदू तुष्टिकरण के ज़रिए राजनीति के हिंदूकरण में योगदान दे रहे हैं।
मुकेश कुमार

काशी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मेगा शो और राहुल गाँधी का यह कहना कि भारत में हिंदुओं का राज होना चाहिए, मौजूदा भारत की राजनीति को समझने के लिए काफी है। वैसे तो लगातार ऐसे प्रमाण मिल रहे थे कि हमारी राजनीति कौन सी दिशा अख़्तियार कर रही है, मगर ये दो प्रकरण तो जैसे हमारी आँखों में उँगली डालकर बता रहे हैं कि अगर कहीं कोई शक़ बाक़ी हो तो दूर कर लो।

ये दो प्रकरण हमें बता रहे हैं कि धीरे-धीरे हिंदू तुष्टिकरण अब अपने चरम पर पहुँचने लगा है। हालाँकि इसकी शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी। अगर हम आज़ादी के पहले न भी जाना चाहें तो उसके बाद संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में दिखा और फिर बाद की राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाता रहा।

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यह और बात है कि हिंदुत्ववादियों की ओर से मचाए गए मुसलिम तुष्टिकरण के शोर में वह दबता चला गया। बाबरी मसजिद में मूर्तियों के रखे जाने और उसे न हटाने या हिंदू कोड बिल के मामले में समझौते में इसे देखा जा सकता है। 

नेहरू के बाद तो ये फिसलन तेज़ होती चली गई। 1980 में इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी के बाद हिंदू तुष्टिकरण ने एक नई करवट ली। राजीव गाँधी ने शाह बानो मामले में समर्पण के बाद अतिवादी हिंदुओं को खुश करने के लिए जो किया और फिर नरसिंह राव ने जिस तरह से बाबरी मसजिद को ढह जाने दिया, वह सब हिंदू तुष्टिकरण की राजनीति का ही नतीजा था।

बीजेपी तो जनसंघ और अतिवादी हिंदू, हिंदू महासभा के ज़माने से यही कर रहे थे। उनका एक सूत्री एजेंडा ही हिंदुओं में असुरक्षा का भाव जगाकर, उन्हें पीड़ित बताकर उनकी भावनाओं के तुष्टिकरण की रणनीति पर काम करना था और ये सिलसिला अब बहुत आगे पहुँच चुका है।

मोदी का काशी शो हो या अयोध्या में मुख्यमंत्रियों का पत्नियों समेत रुद्राभिषेक, सारा खेल हिंदू जनमानस की तथाकथित आहत भावनाओं पर लेप लगाने और उनमें एक झूठा गर्व पैदा करके तुष्टिकरण करना है।

इससे हिंदू समाज का कोई भला नहीं होने जा रहा है। उनकी सामाजिक-आर्थिक तरक्की में कोई इज़ाफ़ा नहीं होने जा रहा, मगर एक बड़ा वर्ग, ख़ास तौर पर सवर्णों का, इससे तुष्ट हो रहा है।

ये ठीक वैसे ही है जैसे मुसलमानों की ऊँची जातियों और मुल्लों की तुष्टि हो रही थी, मगर मुसलिम समाज दरिद्र का दरिद्र रहा, बल्कि और भी बुरे हालात में पहुँच गया। मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के सरकारी आँकड़े ही इसकी गवाही देते हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट इस मायने में आँख खोलने वाली थी। मुसलमानों के हितैषी बनने वाले राजनीतिक दलों ने भी उनके लिए सिवाय गाल बजाने के कुछ नहीं किया।

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लेकिन संघ परिवार का तो यह घोषित एजेंडा रहा है। उसके बारे में किसी को कोई शक़ कभी नहीं था। ये भी सभी को पता था कि वह सत्ता में आने के बाद क्या करेगा। केंद्रीय सत्ता में पूरी पकड़ के साथ तो वह 2014 में आया मगर इसके पहले जहाँ कहीं भी वह राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हुआ उसने हिंदू तुष्टिकरण और मुसलमानों के उत्पीड़न का काम ही किया।

ध्यान रहे अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हिंदू तुष्टिकरण का अभिन्न हिस्सा है। गुजरात का हिंदुत्व मॉडल दरअसल हिंदू तुष्टिकरण का मॉडल ही है। वही हर जगह आज़माया जा रहा है। केंद्र में भी और राज्यों में भी। इस हिंदू तुष्टिकरण के अल्पसंख्यक ही एकमात्र दुश्मन नहीं हैं, बल्कि वे भी हैं जो अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के हितों और हक़ों की बात करते हैं। ज़ाहिर है कि इसीलिए उन्हें भी दंडित किया जा रहा है।

लेकिन यह हिंदू तुष्टिकरण अब भारतीय राजनीति के केंद्र में है और उसका हिंदूकरण कर रहा है। मोदी-योगी के सारे करतब-कारनामे राजनीति को पूरी तरह से हिंदूमय कर देने का है।

यहाँ हिंदूमय से अर्थ राजनीति के हिंदू सांप्रदायिकता से सराबोर कर देने से है। उनके इस अभियान में बहुत सी चीज़ें प्रतीकों में हो रही हैं, तो बहुत सी खुल्लमखुल्ला। अयोध्या में मंदिर निर्माण, सात लाख दिए जलाना, गंगा आरती, देव दीपावली वगैरा-वगैरा सब उसी का हिस्सा हैं। 

दुर्भाग्य ये है कि दूसरी पार्टियाँ भी जाने-अनजाने यही कर रही हैं। अरविंद केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी और राहुल-प्रियंका तक हिंदू तुष्टिकरण के ज़रिए राजनीति के हिंदूकरण में योगदान दे रहे हैं।

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अभी इस तर्क को परे रख दीजिए कि नरम हिंदूवाद कांग्रेस की ज़रूरत है या विवशता, मगर राहुल गाँधी का बयान वास्तव में बहुसंख्यकवादी दबाव के सामने समर्पण है। हो सकता है कि इसमें एक वैचारिक स्पष्टता और रणनीति दिखती हो, जिसमें बीजेपी के हिंदुत्ववाद के सामने हिंदुओं को जागृत और खड़े होने का आह्वान शामिल है। मगर वास्तव में उससे हिंदू होने की होड़ उसे मज़बूत करने का काम ही करेगी।

मैं हिंदू हूँ और देश में हिंदुओं का राज होना चाहिए का विमर्श अंतत संघ परिवार का ही मूल विचार है और राहुल गाँधी उसे पुष्ट कर रहे हैं। हम लोकतंत्र में हैं और हमारा संविधान इसकी इजाज़त नहीं देता कि किसी धर्म विशेष को मानने वालों के हाथों में देश की बागडोर हो, मगर राहुल और उसके सिपहसालार इसकी वकालत कर रहे हैं। 

राहुल के हिंदूवाद का दूसरा पहलू भी देखिए। अब वे और उनकी पार्टी मुसलमानों का नाम लेने से ही कतराने लगी हैं। उन्हें ये डर सताता रहता है कि कहीं मुसलिम तुष्टिकरण का आरोप लगाकर बीजेपी राजनीतिक लाभ न ले ले। ये हिंदू वोटबैंक का आतंक है, जिससे वह ग्रस्त हो गए हैं और वे राजनीति के हिंदूकरण का एक अपना संस्करण लेकर आ गए हैं। ये कितना का कारगर होगा ये तो वक़्त बताएगा लेकिन फिलहाल ये उनकी कमज़ोरी ज़ाहिर करता है और बीजेपी के हौसलों को बढ़ाता भी है।

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लेकिन राहुल अकेले नहीं हैं जो राजनीति के हिंदूकरण की इस वैचारिकी को विकसित कर रहे हैं। वे सभी दल जो बीजेपी के हिंदुत्व से घबराए हुए हैं, उसके दबाव में आकर हनुमान चालीसा और चंडी पाठ कर रहे हैं, इसमें शामिल हैं। शायद उन्हें लगता हो कि यह एक फौरी रणनीति है और बीजेपी को परास्त करके वे वापस पहले वाली धर्मनिरपेक्षता पर लौट आएंगे। लेकिन ऐसा होना मुश्किल होता जाएगा।

ये हिंदू तुष्टिकरण और हिंदूकरण एक क़िस्म का जाल है, जो उन्हें कभी आज़ाद नहीं होने देगा। ये तभी संभव है जब बीजेपी और संघ की शक्ति पूरी तरह क्षीण हो जाए, उसकी राजनीति का पूरी तरह से पर्दाफ़ाश हो जाए, लेकिन निकट भविष्य में ऐसा होता नहीं दिख रहा। बल्कि लग तो यह रहा है कि भारतीय राजनीति का ये हिंदूकरण धर्म-राज्य या हिंदू राष्ट्र के निर्माण की ओर बढ़ रहा है।

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