कफ सिरप से बच्चों की हाल की त्रासदियों ने एक बार फिर यह दिखाया है कि भारत को एक ऐसे दवा नियामक तंत्र की आवश्यकता है जो राजनीतिक या उद्योग-जनित दबावों से मुक्त हो और जो सार्वजनिक स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। सच्चा सुधार तभी होगा जब हम नियमन की विफलताओं का सामना करें और दवा की गुणवत्ता को सचमुच एक सार्वजनिक चिंता का विषय बनाएँ।
सरकारी रेगुलेटरी विफलताओं की बढ़ती त्रासदी
- भारत में खाँसी की दवा से बच्चों की मौत ने एक और त्रासदी को फिर से उजागर किया है कि देश का दवा रेगुलेटरी ढाँचा कितनी गहरी खामियों से भरा हुआ है।
- बिखरा हुआ सिस्टम: भारत में 37 अलग-अलग दवा नियामक संस्थाओं वाला बिखरा हुआ सिस्टम जवाबदेही को कमज़ोर करता है और दवा सुरक्षा मानकों को लागू करना कठिन बना देता है।
- नियामक कब्ज़ा: निरीक्षण और गुणवत्ता परीक्षण में पारदर्शिता की कमी नियामक के कब्ज़े (regulatory capture) की संस्कृति को बढ़ावा देती है, जिससे खराब गुणवत्ता की दवाएँ जनता के लिए घातक बन जाती हैं।
- कानूनी बनाम वास्तविक सुधार: दवा नियमन को सुधारने के लिए कानून बनाना आसान हिस्सा है। कठिन हिस्सा है नियामक कब्ज़े को चुनौती देना, नियामक ढाँचे में तकनीकी क्षमता बढ़ाना, और इसे फार्मा उद्योग के बजाय जनता के स्वास्थ्य के हित में ढालना।
क्यों हो रही हैं बार-बार जानलेवा घटनाएँ
- मध्य प्रदेश में अक्तूबर में 24 बच्चों की खाँसी के सिरप से मौत हो गई। यह घटना भारत के ध्वस्त दवा नियामक ढाँचे की एक और दर्दनाक याद दिलाती है। पिछले पाँच वर्षों में यह चौथी ऐसी घटना थी।
- पिछली घटनाएँ: जम्मू (2020), गाम्बिया और उज्बेकिस्तान (2022) और कैमरून (2023) में मिलती-जुलती घटनाएँ 140 से अधिक बच्चों की मौत का कारण बनीं।
- जहरीला केमिकल: सभी मामलों में, खाँसी के सिरप में डायइथिलीन ग्लाइकोल (DEG) पाया गया, जो एक जहरीला केमिकल है और किडनी फेल कर देता है।
- प्रशासनिक उदासीनता: यह समस्या नई नहीं है और कानून कंपनियों से अपेक्षा करता है कि वे सिरप में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की सुरक्षा जाँच करें। इसके बावजूद कई भारतीय दवा कंपनियाँ यह जाँच नहीं करतीं। बच्चों की मौतें प्रशासन में चिंता पैदा नहीं करतीं क्योंकि जनता का आक्रोश जल्दी शांत हो जाता है।
- अन्य असुरक्षित उत्पाद: खाँसी की दवाओं के अलावा, भारत में खराब तरीके से बने इंजेक्शन, आई ड्रॉप और इंट्रावेनस फ्लूड भी हैं, जो जानलेवा साबित हुए हैं और जिन्हें संक्रमण रोकने के लिए पूरी तरह स्वच्छ परिस्थितियों में बनाया जाना चाहिए।
वैश्विक स्तर पर ख़तरा, गहरे सुधार ज़रूरी
भारत में बनी दवाओं से दुनिया भर में मौतें बढ़ती जा रही हैं। चंडीगढ़ में 2022 में दूषित इंजेक्शन से 5 मरीजों की मौत के बाद से, कम से कम चार और घटनाएँ हुईं। कर्नाटक (2023), पश्चिम बंगाल (2023), अमेरिका (2023) और कोलंबिया (2024) जिनमें भारत में बने इंजेक्शन या आई ड्रॉप के कारण 2 से 5 लोगों की मौत हुई। इन गंभीर घटनाओं के बावजूद, केंद्र सरकार ने दवा नियामक व्यवस्था के सुधार के लिए बहुत कम कदम उठाए हैं। फंड बढ़ाने जैसे बदलाव पर्याप्त नहीं हैं; अगर असुरक्षित दवाओं से होने वाली मौतों को रोकने की असली इच्छा है, तो गहरे सुधार जरूरी हैं।रेगुलेटरी तंत्र की खामियाँ
दवा कानून 1940 में बनाया गया था, जब सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रांतीय सरकारों की ज़िम्मेदारी थी। स्वतंत्रता के बाद केंद्र को नए मानक तय करने के अधिकार मिले, पर उत्पादन लाइसेंस राज्य सरकारों के पास ही रहे। परिणामस्वरूप भारत में एक बिखरा हुआ रेगुलेटरी ढाँचा है जिसमें 37 दवा नियामक निकाय हैं। हर राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश का अलग-अलग, और ऊपर से DCGI एक अलग निकाय।जवाबदेही का अभाव
एक राज्य की दवा पूरे देश में बिक सकती है, पर कंपनी केवल उसी राज्य के प्रति जवाबदेह होती है जहाँ उसका लाइसेंस जारी हुआ।तमिलनाडु में बनी दवा से मध्य प्रदेश में बच्चों की मौत हो सकती है, लेकिन MP के नागरिक तमिलनाडु के दवा नियामक को जवाबदेह नहीं ठहरा सकते। गाम्बिया में 2022 में बच्चों की मौत का कारण बनी कंपनी का कई राज्यों के दवा नियंत्रकों से पहले भी विवाद रहा था, फिर भी उसका लाइसेंस हादसा घट जाने से पहले कभी रद्द नहीं हुआ।उद्योग का राज्य-स्तरीय राजनीति पर प्रभाव
फार्मा उद्योग रोजगार और टैक्स देता है, इसलिए राज्यों में उसका प्रभाव बढ़ जाता है। गैर-घातक मामलों में भ्रष्टाचार या नियम उल्लंघन के मामले अक्सर दबा दिए जाते हैं। भारत में फार्मा उद्योग की लॉबी बहुत मज़बूत है। अस्पताल, डॉक्टर उनके इशारे पर काम करते हैं। इसके बदले अस्पतालों और डॉक्टरों को मनचाहे यात्रा टूर और गिफ्ट मिलते हैं।फार्मा उद्योग भारत की कुछ सफल कहानियों में से एक है। सरकार भी इसके हितों से जुड़ी है, इसलिए अक्सर उद्योग को कड़ी सज़ा देने से बचती है। GMP (Good Manufacturing Practices) मानक (Schedule M) का संशोधन दिसंबर 2023 में अधिसूचित हुआ लेकिन उद्योग के दबाव के कारण जनवरी 2025 तक टलता रहा। छोटे और मध्यम उद्योगों को 2026 तक की छूट भी दे दी गई, जबकि पिछले पाँच वर्षों में मौतों का अधिकांश कारण यही श्रेणी थी। DePuy/J&J के खराब हिप इम्प्लांट मामले में भी पीड़ितों की बात सुनने के लिए सरकार ने कोई सार्वजनिक मंच नहीं बनाया। SEC (Subject Expert Committee) जैसी समितियाँ भी अत्यंत अपारदर्शी हैं। इनमें जनता या सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व लगभग नहीं होता।
नियामकों के बीच तालमेल की भारी चुनौतियाँ
जाँच विफलताओं, गुणवत्ता परीक्षण में नाकामी और NSQ (Not of Standard Quality) दवाओं की वापसी की प्रक्रिया अटक जाती है। नतीजा यह होता है कि खराब दवाएँ बाज़ार में बनी रहती हैं। केंद्र ने 2019 में संयुक्त निरीक्षण का अधिकार लिया, पर लाइसेंस रद्द करने का अधिकार अभी भी राज्यों के पास है। राज्य नियामक और उद्योग इस सुधार का विरोध करते रहे, जो राजनीति के प्रभाव को दर्शाता है।पारदर्शिता और सज़ा का हल्कापन
नियमों को प्रभावी ढंग से लागू करने की पहली शर्त पारदर्शिता है, जिसकी भारत के रेगुलेटरी तंत्र में भारी कमी है। भारत में दवा निरीक्षण रिपोर्टें सार्वजनिक नहीं होतीं। जनता यह नहीं जान सकती कि ड्रग इंस्पेक्टर वाकई नियमित जाँच करते भी हैं या नहीं। ड्रग टेस्ट रिपोर्टें भी आमतौर पर ऑनलाइन उपलब्ध नहीं होतीं। केवल कुछ राज्य या DCGI असफल दवाओं की एक साधारण सूची जारी करते हैं, विस्तृत रिपोर्ट नहीं।
एक केंद्रीकृत डेटाबेस न होने के कारण सरकारी तथा निजी खरीदार अक्सर उसी कंपनी से खरीद लेते हैं, जिसका दर्जा खराब है, सिर्फ इसलिए कि उसने सबसे कम बोली लगाई। उदाहरण के लिए AIIMS दिल्ली द्वारा हाल में एक कंपनी को ब्लैकलिस्ट किया गया क्योंकि उसकी सप्लाई किए गए IV फ्लूड में फफूँद (fungus) पाया गया, जो मरीजों तक पहुँच चुका था।
देरी और बेहद हल्की सज़ाएँ वास्तविक नतीजों को रोकती हैं। कई मामलों में मुकदमे शुरू ही नहीं होते या वर्षों तक खिंचते हैं (जैसे 1986 में JJ अस्पताल में DEG से 14 मौतों का मामला जिसका 2022 तक मुकदमा शुरू भी नहीं हुआ था। अधिकतर मामलों में अदालत सज़ा के नाम पर "कोर्ट उठने तक की सरल कैद" देती है। यानी दवा कंपनी का अधिकारी दिन भर कोर्ट में बैठता है और शाम को घर चला जाता है। लाइसेंस का निलंबन भी आमतौर पर केवल कुछ दिन का होता है। जब तक मौतें न हों, फार्मा कंपनियां न तो कोई पहल करती हैं न कोई नया कदम उठाती हैं।
आगे का रास्ता क्या है
भारत में एक विश्वसनीय, जवाबदेह और मजबूत दवा रेगुलेटरी प्रणाली बनाने में कई चुनौतियाँ हैं। नया कानून बनाना आसान है, लेकिन आगे बढ़ना मुश्किल काम हैं:
- नियामक ढाँचे में तकनीकी क्षमता विकसित करना।
- जनता के प्रति जवाबदेही बढ़ाना।
- नियमन का उद्देश्य सार्वजनिक स्वास्थ्य को बनाना, न कि उद्योग के हितों को।
जब तक दवा की गुणवत्ता को जनता की मुख्य चिंता नहीं बनाया जाएगा, तब तक बदलाव मुश्किल है। दवा गुणवत्ता पर घरेलू बहस पैदा करना बेहद ज़रूरी है, भले ही यह कठिन हो। क्योंकि अक्सर सरकार राष्ट्रवाद का इस्तेमाल करके आलोचना को दबा देती है।
(जन स्वास्थ्य एक्टिविस्ट दिनेश ठाकुर का यह लेख द इंडिया फोरम में प्रकाशित हो चुका है।)